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सुखदायक दुःख

 

“दीदी, तुम दिल और दिमाग़ के साथ अपनी आँखें खोल कर भी रखतीं तो आज किसी दूसरी औरत द्वारा बरगलाये जाने पर जीजाजी तुमसे दूर न हुए होते।” 

“अरे नहीं नहीं, तुम्हें जो बाहर से जो दिख रहा है, भीतर से इसके बिल्कुल विपरीत घट रहा है। दूर कहाँ, तुम्हारे जीजाजी तो अब पहले से ज़्यादा घर आने-जाने लगे हैं। और तो और बच्चों की पढ़ाई, कपड़े-लत्ते, खाने-पीने, घूमाने-फिराने का और साथ ही साथ मेरा भी पूरा ध्यान रखने लगे हैं। वरना इतने बरसों से आये दूसरे-तीसरे दिन देर रात गये उनका नशे की हालत में घर लौटना, मार-पीट, तोड़फोड़, कभी राशन ले आते थे और कभी नहीं। अब वैसा कुछ भी नहीं हो रहा . . . अब तो केवल शान्ति ही शान्ति है इस घर में।”

“लेकिन तुम्हारे बेटा-बेटी जो अभी नासमझ हैं, कल बड़े होकर वे अपने डैडी की करतूतों को समझने लग गये, तो?” 

“कल की कल देखी जायेगी, समय का क्या भरोसा। वैसे भी जिस अपराध-बोध के तले दबे तुम्हारे जीजाजी अब हमारी देखभाल करने लगे हैं, तो क्या मालूम कल को जवान हो रहे अपने बच्चों को देख शर्मिंदगी से इनकी आँखें खुल जायें . . . और हमेशा के लिए इसी घर में लौट आएँ!” 

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टिप्पणियाँ

gurmail bhamra 2025/10/18 12:12 AM

Self inflicted wound .

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