बंदीगृह
कथा साहित्य | लघुकथा मधु शर्मा15 Feb 2024 (अंक: 247, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
“यह तुम्हारा ही किया-धरा लगता है” या “हमें बनाने की कोशिश न करो” आदि-आदि उसे अपने ऊपर थोपे हुए निराधार दोष निरन्तर सुनने को मिलते।
बंदीगृह रूपी ससुराल में आये दिन उसे महसूस होता कि जैसे वह एक कटघरे में खड़ी हो और अपने निर्दोष होने के प्रमाण प्रस्तुत करने पर मजबूर की जा रही हो। और जब असली दोषी का मालूम हो जाने पर वह निर्दोष प्रमाणित हो जाती तो लांछन लगाने वाले वही लोग उस बात को टालमटोल कर जाते।
समय यूँ ही बीतता गया परन्तु प्रतिदिन के मानसिक प्रहारों से घायल हो उसका कलेजा छलनी-छलनी होता चला गया। और एक दिन . . . एक दिन पुनः दोषी ठहराये जाने पर निर्दोष होते हुए भी उसने वह अपराध स्वीकार कर लिया। वह परिणाम से भली-भाँति परिचित थी और वही हुआ . . . ससुराल से निकाल दी गई।
बेघर होते ही जो सुकून उसके मन में घर कर गया, वह उस चिन्ता की तुलना में कि ‘रोटी-कपड़ा-मकान का प्रबन्ध अकेली कैसे कर पायेगी’ से कहीं अधिक गुणा सुखद था। यद्यपि देर से सही लेकिन एक बात का उसे अब एहसास हुआ कि प्रत्येक बंदीगृह में ढेरों दोषी सहित कुछ निर्दोष भी दंड भुगत रहे होते हैं। परन्तु कुछ-एक बंदीगृह में किसी व्यक्ति का अपराधी न होने पर भी वह यदि अपराध स्वीकार कर ले तो वहाँ से उसके छूट जाने की सम्भावना रहती है।
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