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बहकावा

 

“मुझे मालूम है, कृति! तुम घर पर ही हो। प्लीज़ दरवाज़ा खोलो।”

काफ़ी समय तक खटखटाने पर भी दरवाज़ा न खुला तो देव दरवाज़े से मुँह सटा कर रुआँसा हो कहने लगा, 
“तुमसे माफ़ी माँगने आया हूँ . . . जिस औरत के बहकावे में आकर मैंने तुम्हें और छह माह के बेटे रौनक़ को घर से निकाल दिया था, उसीने झाँसा देकर वह घर अपने नाम करवा लिया और . . . मुझे घर से बेघर कर दिया। तुम पर चरित्रहीन होने का लांछन लगाकर मैं भी कहाँ सुखी रह पाया। और फिर मुझे पिछले सप्ताह ही मालूम हुआ कि रौनक़ किसी और का नहीं, मेरा अपना ख़ून है। इतने बरसों बाद उसे अपने दोस्त के बेटे की जन्मदिन-पार्टी में देखते ही पहचान गया . . . बिलकुल मेरे ही जैसे नैन-नक़्श . . . “

देव की बात पूरी होने से पहले ही एक बड़ी-सी कार घर के गेट से प्रवेश हो उसी के समीप आकर रुक गई। लगभग उसी की आयु का एक व्यक्ति उसमें से उतरा व देव से हाथ मिलाते हुए अपना परिचय दिया, “आय'म अर्जुन . . . आप देव हैं न! आपका कितना भी थैंक्स करूँ, तब भी कम ही होगा। आपने दस बरस पहले जिन्हें अपने घर से निकाला था न . . . अब पिछले सात सालों से केवल वही कृति ही नहीं बल्कि बेटे रौनक़ ने भी मेरी लाइफ़ को स्वर्ग बना कर रखा हुआ है।”

और फिर अर्जुन ने देव का हाथ छोड़ते हुए हँस कर कहा, “सॉरी, मैं अपनी ही धुन में बोलता चला जा रहा हूँ। अन्दर आइए न . . . रौनक़ से नहीं मिलिएगा क्या?” 

देव को लगा कि धरती फट जाये ताकि वह उसमें उसी समय समा जाये। बिन कुछ कहे वह तेज़ी से पलटा व गेट की ओर चल पड़ा। वहाँ खड़े किए हुए अपने स्कूटर पर सवार हो देखते-देखते वह अर्जुन की आँखों के सामने से ओझल हो गया। 

वह दिन था और आज का दिन . . . किसी ने फिर कभी देव को नहीं देखा। क्या मालूम कि धरती ने वास्तव में ही उसे . . .

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