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इंग्लैंड में प्रवासी छात्र की पहली होली

 

भारत से जब मित्रों का फ़ोन आया, 
पूछा होली का त्योहार कैसे मनाया? 
सच बताने से पूर्व कुछ हिचकिचाया, 
बोलते हुए फिर गला भी भर आया। 
 
न भारत सा मौसम, न बाज़ार सजे, 
कैसा त्योहार न मस्ती न किये मज़े। 
पिचकारी न ही रंग कहीं बिकते देखे, 
नाच-गाने न ही ढोल कहीं बजते सुने। 
 
लुत्फ़ तो वहाँ था भीगने में, ठंडाई में, 
ठंडी में यहाँ सभी दुबके पड़े रज़ाई में। 
याद न आई गुजिया या पकवान की, 
याद रहा कॉलेज या शिफ़्ट शाम की। 
 
छोड़ो बात दुश्मनों को गले लगाने की, 
फ़ुर्सत यहाँ कहाँ मिलने-मिलाने की। 
वीकैंड में ही मंदिर वाले त्योहार मनाते, 
काम-धंधे में व्यस्त हम कहाँ जा पाते। 
 
परदेस की क्या दीवाली या क्या होली, 
सूनी सड़कें देख सीने पर लगे है गोली। 
मन दुखी करने से लेकिन क्या मिलेगा, 
कुछ पाने के लिए कुछ तो खोना पड़ेगा। 

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