गंगाजल
कथा साहित्य | लघुकथा मधु शर्मा1 Nov 2021 (अंक: 192, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
"बेटी! कटोरी में गंगाजल ले आओ और उसमें दो पत्ते तुलसी के डाल देना। तुम्हारे पिताजी की साँस उखड़ रही है . . . लगता है ये अब हमें छोड़ कर जाने वाले हैं। गंगाजल पिलाने से इनके अटके प्राण आसानी से निकल जायेंगे," पति के सिरहाने बैठी कामिनी की सास ने काँपती आवाज़ में कामिनी को धीमे से कहा।
पूजा घर की बजाए वह रसोई घर की ओर चल दी और नलके से कटोरी में पानी भरते हुए बुड़बुड़ाने लगी, "हुँह! अटके प्राण आसानी से निकल जायेंगे . . . मेरी जूती! मेरे इतना झगड़ा करने पर भी इस मकान का हिस्सा मेरे नाम नहीं किया। सेवा मुझसे करवाते रहे और जायदाद मेरे पति व दोनों जेठों को दे डाली! जेठानियों को मकान में दिलचस्पी हो न हो, लेकिन सास-ससुर की सेवा वे नहीं, मैं ही करती रही हूँ . . . चाहे हम इन्हीं के ख़रीदे घर में रह रहे हैं।"
बाहर तुलसी के गमले के समीप जाकर कामिनी ने किसी दूसरे ही पौधे की दो छोटी पत्तियाँ तोड़ कर आधी पानी भरी कटोरी में डाल दीं। जब तक ससुर के कमरे में पहुँची, वह दोनों हाथ जोड़कर भगवान का नाम ले रहे थे और फिर उन्होंने सदा के लिए आँखें मीच लीं। उनकी पत्नी ने काँपते हाथों से चम्मच द्वारा उस 'गंगाजल' को उन्हें पिलाने की कोशिश करी लेकिन वह उनके बंद होठों में से बह कर रह गया।
कामिनी की सास भी इसके बाद अधिक दिन जी न सकीं। बेटे व बेटी की ज़िम्मेवारियों से निपट कामिनी व उसके पति ने बाहर घूमने जाने की योजना बनाई। पासपोर्ट बनवा कर जब हाईवे के मार्ग से दिल्ली से वापस आ रहे थे तो दूसरी दिशा से तेज़ी से आते एक ट्रक के साथ उनकी कार का ऐक्सिडैंट हो गया। पति को तो थोड़ी सी ही खरोंचे आईं, लेकिन कामिनी बुरी तरह से घायल हो गई। जब तक ऐम्बुलैंस पहुँची और उसे हस्पताल पहुँचाया गया, कामिनी अंतिम साँसें गिन रही थी।
कामिनी की रुक-रुक कर आवाज़ निकल रही थी और आधी बेहोशी में न जाने क्या-क्या कह रही थी, "चंद बूँद . . . गंगाजल . . . गंगाजल पिला दें . . . ताकि यह मेरे अटके प्राण . . . आसानी से निकल जायें। . . . नहीं नहीं, बहू . . . तुम तो . . . तुम तो . . . बिल्कुल भी न लाना . . . क्या मालूम . . . क्या मालूम गंगाजल का छलावा देकर . . . मुझे सादा . . . सादा पानी पिला डालो। बिल्कुल वैसे ही . . . जैसा मैंने . . . जैसा मैंने बाबूजी के साथ किया था।"
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