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आदी और दादू

आदित्य, जिसे प्यार से सभी आदी कहते थे, अपने दादाजी का बहुत चहेता था। होता भी क्यों न! बेचारा चार साल का ही था जब उसकी मम्मी अपनी दूसरी प्रैगनेंसी के दौरान इन्फ़ैक्शन होने की वज़ह से भगवान को प्यारी हो गई थीं। आदी के डैडी राजीव ने तब से अपना दु:ख भुलाने के लिए ख़ुद को अपनी दुकान के काम-काज में व्यस्त कर लिया था। और अपनी इस इकलौती सन्तान की सारी ज़िम्मेवारी अपनी बूढ़ी माँ को सौंप दी थी। स्वयं तो सुबह जल्दी घर से निकल जाता और देर से रात को घर आते ही, खाना खाकर ऊपर अपने कमरे में चला जाता। पाँच साल बीत जाने के बाद भी वो अभी तक उठते-बैठते अपनी पत्नी को सदा अपने आसपास महसूस करता। 

आदी की दादी उसे प्यार तो बहुत करती थीं, परन्तु उसके व घर के कामों से उन्हें फ़ुरसत ही नहीं मिल पाती थी कि उसके साथ आराम से बैठकर हँस-बोल सकें। सो यह काम दादाजी पिछले पाँच बरसों से बड़े प्यार और दुलार से निभा रहे थे। आदी उन्हें दादू कहकर बुलाता था। वह उसके स्कूल के होमवर्क में मदद करते और शाम को पार्क में ले जाते। वहाँ आदित्य अपने हमउम्र के बच्चों के साथ हँसता-खेलता। 

इस छोटे से परिवार का ख़ुशियों व ग़मों से मिश्रित जीवन जैसे-तैसे गुज़र रहा था। और फिर अचानक एक रविवार, जब राजीव घर पर ही था, तो दादाजी को पेट दर्द के साथ-साथ बहुत तेज़ बुख़ार होने की वज़ह से उन्हें हस्पताल ले जाना पड़ा। काफ़ी टैस्ट वग़ैरह करने के बाद डॉक्टर ने यह कहकर उन्हें वहीं भर्ती कर लिया कि दो-एक दिन में जब रिपोर्ट आ जाएगी तभी कुछ कहा जा सकेगा। आदी अगले दिन स्कूल न जाकर हस्पताल में दादाजी को देखने की ज़िद पर अड़ गया। दादी ने बड़ी मुश्किल से समझा-बुझाकर उसे स्कूल की बस में बिठा तो दिया, लेकिन दो घंटे बाद ही स्कूल का चपरासी उसे घर छोड़ने आ पहुँचा। कहने लगा, "माता जी, इसने तो रो-रो कर ख़ुद को बेहाल कर दिया। इससे पहले कि इसकी तबियत बिगड़ जाती, प्रिंसिपल साहब ने मुझे इसे घर छोड़ आने को कहा। बाक़ि आपको उन्होंने फ़ोन पर समझा ही दिया होगा कि आप इसे इसके दादाजी से मिलवाने ले ही जाएँ।"

दादीजी ने हस्पताल जाना तो था ही, सो आदी को साथ ले गईं। वहाँ दादा-पोते का आमना-सामना होते ही दोनों ऐसे गले लगकर मिले जैसे मालूम नहीं कितने बरसों बाद मिले हों। अपने दादू को हँसते-बोलते देख आदी को चैन आ गया। और उनसे यह वादा कर लिया कि अब वो कल स्कूल जाएगा और स्कूलवालों को परेशान भी नहीं करेगा। उनके साथ लगभग दो घंटे बिताकर आदी अपनी दादी के साथ घर आ गया।

दो दिन बाद डॉक्टर ने रिपोर्ट आने पर जो कुछ बताया, उसे सुनकर तो राजीव के पाँवों के नीचे से जैसे ज़मीन खिसक गई। उसने कहा, "प्रोस्टेट कैंसर की आख़िरी स्टेज है। चार-छ: महीने का ही वक़्त बचा है, अगर यहाँ रहकर ये इलाज करवाएँ, तब भी बस दो-एक महीने ज़्यादा और जी लेंगे।"

यह सुन दादाजी सोच में पड़ गये। उनके पेट-पीठ में अक़्सर दर्द रहता था और 'यूरिन फ़्लो' में भी कभी-कभार मुश्किल पेश आती थी। उसके लिए वो अपने डॉक्टर की दी हुई दवा समयानुसार ले तो रहे थे . . . लेकिन अब उन्हें अपनी चिन्ता होने की बजाए आदी की फ़िक्र हो गई कि 'अगर मैं हस्पताल में रह जाता हूँ, तो जो बच्चा एक दिन मेरे बिना न रह सका, वो इतने महीनों कैसे रहेगा? ऊपर से हस्पताल में मिलने के लिये आने-जाने में उसकी पढ़ाई पर भी तो असर होगा। मेरा वक़्त तो आ ही गया है . . . तो जाने से पहले क्यों न पोते के साथ-साथ अपनी पत्नी और बेटे का जीना थोड़ा आसान करता जाऊँ!' सो दादाजी ने डॉक्टर और राजीव को अपना फ़ैसला सुनाया कि हस्पताल की बजाए वह घर पर ही रहकर दवा वग़ैरह लेते रहेंगे।

राजीव ने एक केयरर का इंतज़ाम कर लिया, जो सुबह और फिर शाम को आकर दादाजी के खाने-पीने और दवा वग़ैरह का पूरा ध्यान रखता। राजीव भी अब सिर्फ़ सुबह चार घंटे के लिए ही दुकान पर जाता, बाक़ी दिन का काम उसका असिस्टैंट सँभालता। वो ज़्यादा से ज़्यादा समय अपने पिता के साथ गुज़ारना चाहता था। यद्यपि किसी ने आदी को सच्चाई नहीं बताई थी, फिर भी उसे अंदाज़ा हो गया था कि दादी छुप-छुप कर क्यों रोती हैं, या डैडी अब पहले की तरह घर से बाहर रहने की बजाए ज़्यादातर घर में ही दादू के पास क्यों गुज़ारते हैं। मिलने-जुलने वाले जब-जब उन्हें देखने आते, तो कुछ उनकी बातों से भी उसे मालूम हो गया था कि दादू अब चन्द ही महीनों के मेहमान हैं।

आदित्य चुप सा रहने लग गया। स्कूल आता-जाता, होमवर्क करता, कोई कुछ पूछता तो छोटा सा जवाब दे वहाँ से हट जाता। उसके ननिहाल में उसके सिर्फ़ एक मामा थे जो अमेरिका रहते थे। उन्हीं दिनों वो भारत आए तो जब आदी को मिलने आए, उसे हमेशा की तरह अपने ससुराल दो दिनों के लिए ले गए। वहाँ दूसरे बच्चों के साथ दो दिन चुटकियों में बीत गए। और उसके मामा भी उसके साथ खेलते-गाते हुए उसकी मुस्कराहट वापस लाने में कुछ हद तक सफल हो गये।

नौ साल का यह छोटा बच्चा न जाने कब और कैसे बड़ों की तरह सोचने-समझने लग गया था। रात को अगर दादाजी के करहाने की आवाज़ आती तो दौड़ कर उनके कमरे मे जाकर उनसे पूछता 'दादू कुछ चाहिए?' या उनका कंबल ठीक से ओढ़ाकर, वापस दादी के कमरे में अपने बिस्तर पर आकर सो जाता। दादी को तो रात को अपनी भी होश नहीं रहती। बेचारी दिनभर घर के काम-काज, मेहमानों की ख़ातिरदारी से थकी-हारी जो होती थीं।

दादू दिन पर दिन कमज़ोर होते जा रहे थे। पतले-दुबले तो पहले से ही थे, अब दो महीनों में ही हड्डियों का बस एक ढाँचा सा बनकर रह गये थे। आदी के साथ हँसना तो क्या, बात करते हुए भी हाँफ जाते थे। हर रात उनके करहाने की आवाज़ पिछली रात की आवाज़ से दोगुना दर्दभरी होती। एक रात तो आदी को दादाजी की आवाज़ सुनते ही 3-4 बार उठ कर उनके कमरे में जाना पड़ा। दादू ने अगली रात उसे रोकते हुए कहा, "ज़रा मेरे पास बैठकर दो मिनट मेरी बात सुनो . . . उससे ज़्यादा देर तक तो मैं बात कर भी न कर सकूँगा।"

रुक-रुक दादू कुछ कहने की कोशिश कर रहे थे, "आज मैं तुम्हें अपने बचपन की आपबीती सुनाना चाहता हूँ . . . परन्तु पहले मेरी क़सम खाओ कि यह बात कभी किसी को न बताओगे! . . . मैं . . . मैं भी अपने माँ-बाप की इकलौती औलाद था। वे मुझे कभी दूसरे बच्चों के साथ बाहर खेलने नहीं देते थे . . . और मोहल्ले वाले बच्चे हमारे घर के अंदर बैठकर मेरे साथ खेलने की बजाय . . . बाहर खेलना पसंद करते थे . . . सो मेरी ज़िद करने पर पिता जी ने मेरे साथ खेलने के लिये एक छोटा सा सफ़ेद रंग का पप्पी ला दिया। मैंने उसका नाम अपने फ़ेवरट कॉमिक 'टिनटिन' के पैट वाला यानी स्नोई रख दिया। . . . हम दोनों एक दूसरे के बिना एक पल भी न रहते। जब तक मैं स्कूल होता, स्नोई चुपचाप एक कोने में लेटा रहता . . . मगर न जाने कैसे मेरी स्कूल-बस के घर की नुक्कड़ तक पहुँचने से पहले ही उसे मालूम हो जाता . . . ठीक उसी वक़्त बंद गेट के आसपास चक्कर लगाने लगता . . . और जोश में आकर भौंकना शुरू कर देता।"

हाँफते हुए दादू ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, "मगर एक दिन गेट खुला देख जैसे ही स्नोई बाहर दौड़ा तो एक . . . कार से टकरा कर बहुत ज़ख़्मी हो गया। वैट (जानवरों के डॉक्टर) की पूरी कोशिश और इलाज के बावजूद भी ठीक होने की बजाए . . . उसकी हालत दिन पर दिन बिगड़ती चली गई . . . वैट के कहने पर पिता जी उसे इंजैक्शन देकर हमेशा के लिए नींद की गोद में सुलाने को तैयार हो गये . . . मगर मैं नहीं माना। अगली दो रातें स्नोई बिल्कुल भी सो नहीं पाया . . . बस अपनी अधखुली आँखें मेरे चेहरे पर गड़ाए मानो कह रहा था, ’अगर तुम मुझे इतना चाहते हो तो . . . अपने ही हाथों से मुझे इस दर्द से छुटकारा दे दो।’ और मैंने . . . और मैंने वही किया।"

आदी से नज़रें चुराते हुए दादू ने उसका हाथ पकड़ा और गिड़गिड़ाती आवाज़ में कहा, "आदित्य तुम भी मुझे बहुत चाहते हो, है न? . . . तो क्या मेरी आख़िरी ख़्वाहिश पूरी करोगे? . . . मुझे भी स्नोई की तरह इस दर्द से छुटकारा चाहिए..और सिर्फ़ तुम ही मेरी मदद कर सकते हो, मैं . . . " इससे पहले दादू अपनी बात पूरी कर पाते, आदित्य अपना हाथ छुड़ाकर वहाँ से दौड़ता हुआ दादी के कमरे में पहुँचा और काँपते हुए अपने बिस्तर पर जा लेटा।

अगली सुबह दादी के बार-बार जगाने पर भी आदी समय पर जाग न पाया। जल्दी-जल्दी तैयार होकर, नाश्ता करने की बजाए हाथ में ही पराँठे का रोल बनाकर, स्कूल-बैग उठाए, दौड़कर घर के गेट के आगे रुकी स्कूल-बस में जा बैठा। आज तो उसने दादाजी को हमेशा की तरह 'बाए, लव यू दादू' भी नहीं कहा। फिर तो यही सिलसिला चल पड़ा। यहाँ तक कि दादू के कमरे में तभी जाता जब वहाँ कोई दूसरा मौजूद होता।

इस घटना के लगभग तीन सप्ताह बाद एक दिन आदित्य को स्कूल में पहुँचे मुश्किल से एक ही घंटा हुआ था कि उसके प्रिंसिपल ने उसे बुला भेजा। उनके ऑफ़िस में गया तो देखा पड़ोस वाली आंटी उसे लेने आईं हैं, और कह रही थीं, 'तुम्हारे दादाजी की तबियत बहुत ज़्यादा बिगड़ गई है, तुम्हें देखना चाहते हैं।' मगर जब घर पहुँचा तो उन्होंने बताया कि ’आज सुबह तुम्हारे डैडी दुकान पर जाने से पहले जब दादाजी से बात करने उनके कमरे में गये तो उनका चेहरा देखते ही जान गये थे कि वो शरीर छोड़ चुके हैं।'

यह सुन आदी न तो रोया, न ही किसी से कुछ बात कर सका। क्योंकि वही दादू जिन्हें वो अपने दादाजी नहीं बल्कि एक दोस्त से भी बढ़कर मानता था, उस रात उनके ही मुख से एक मूक जानवर के साथ की गई उनकी निष्ठुरता सुन, दादू के प्रति सँजोया बरसों का उसका प्यार उसी पल जाने कहाँ ग़ायब हो गया था।

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