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वरदान भरा श्राप

 

मम्मी-पापा के एक दुर्घटना में अचानक स्वर्गवास होने पर मुझे अपनी कॉलेज की पढ़ाई आधी-अधूरी छोड़ पापा की दुकान सम्भालनी पड़ी। हमारा घर दुकान के ऊपर वाले हिस्से में ही था। मैं उनकी पहली संतान थी व मेरे दोनों भाई आयु में छोटे होने के कारण पापा मेरी छुट्टी वाले दिन या काम के लिए कहीं आने-जाने पर वह अक़्सर मुझे ही दुकान सौंप निश्चिंत हो चले जाते थे। 

इतना बड़ा आघात और मैं केवल बीस बरस की . . . दोनों छोटे भाइयों की ज़िम्मेदारी मैंने बिना किसी हिचकिचाहट के अपने ऊपर ले ली, क्योंकि उनकी देखभाल करने वाला मेरे अतिरिक्त कोई और था भी नहीं। 

♦    ♦    ♦

समय बीतता गया। कब दोनों की पढ़ाई पूरी हुई और उनके विवाह भी (दोनों ही की लव-मैरिज) बिना किसी बाधा के कैसे सम्पन्न हुए, मालूम ही न चला। परिवार, दुकान, शादी-ब्याह इन सभी व्यस्तताओं में मुझे अपने बारे कभी सोचने का अवसर ही न मिला . . . और न ही मुझे आज तक इस बात की कोई रंजिश रही। 

मुझ से छोटा भाई जो पढ़ाई में कुछ कमज़ोर ही रहा, जैसे-तैसे बी.ए. पास करने के बाद दुकान में मेरा हाथ बँटाने में लग गया। अपने ही साथ पढ़ने वाली एक लड़की से विवाह कर लगभग दो बरस तो ख़ुश रहा। लेकिन दुकान अच्छी चल निकली थी तो वहाँ उसका अधिकतर समय बीतने के कारण भाभी ने आये दिन का झगड़ा करना शुरू कर दिया कि उनके यहाँ संतान न होने की वजह दुकान और घर का एक ही बिल्डिंग में होना ही है। परेशान होकर व मेरे समझाने पर वह समीप ही किराए का घर लेकर पत्नी सहित रहने लग गया। लेकिन बरसों बाद भी भाभी की गोद न भरी। 

उधर हमारा छोटा भाई पढ़ाई में होशियार था। वह आई.ए.एस. बनकर दूसरे शहर में नौकरी करने लगा था। वहीं अपने ऑफ़िस में काम करने वाली सहकर्मी जो अपने माँ-पिता की इकलौती संतान थी, उस के साथ विवाह रचाकर घर-दामाद बन गया। समय बीतते उनके यहाँ प्यारा-सा एक बेटा व फिर बेटी हुई। परन्तु होनी को कौन टाल सकता है, जब छोटी भाभी कैंसर से जूझती हुई शीघ्र ही चल बसी। 

दोनों भाइयों का अपना-अपना दुख . . . और सुनने-सुनाने के लिए उनकी माँ समान मैं इकलौती बहन। बड़ा भाई पत्नी के दिन-रात के तानों से परेशान तो छोटा भाई अपने बच्चों को ननिहाल से निकाल कर . . . जहाँ वे पैदा हुए व बड़े हुए . . . कहीं और तबदीली करवाने से मजबूर। मेरा फ़ोन सदा व्यस्त रहता, कभी बड़े का दुखड़ा तो कभी छोटे की दुविधा भरी कहानी। 

मैं लाचार! कर भी क्या सकती थी!! हाँ . . . केवल प्रभु से प्रार्थना ही करती रही कि हे ईश्वर, मेरे भाइयों का हर दुख हर ले। और भगवान ने मेरी सुन ली। 

मेरे दोनों ही भाई एक ही वर्ष के अन्तराल में कोरोना के क्रूर हाथों अपने प्राण गँवा बैठे। मैं निर्दोष होकर भी अपनी प्रत्येक श्वास के आते-जाते स्वयं को अपराध-ग्रसित महसूस कर रही हूँ। मुझे क्या मालूम था कि भगवान सुन तो लेते हैं लेकिन वही प्रार्थना एक वरदान नहीं श्राप भी सिद्ध हो सकती है। 

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