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एक पत्र

प्रिय पत्रिका साहित्य कुन्ज, 

यहाँ सभी कुशल पूर्वक हैं। ईश्वर से तुम्हारे व तुम्हारे सम्पूर्ण परिवार के सुखमय व दीर्घ जीवन की कामना करती हूँ। 

इस 15 अप्रैल को पूरा एक वर्ष हो गया जब मैंने नियमित रूप से तुम्हारे लिए कुछ न कुछ लिखकर भेजने का प्रयास करना आरम्भ किया था। उसके साथ-साथ तुम्हारे संस्थापक प्रकाशक एवं मुख्य सम्पादक आदरणीय सुमन कुमार घई जी के पुराने सम्पादकीय भी एक-एक कर पढ़ने आरम्भ किये। (मैं यहाँ उल्लेख करना चाहूँगी कि तुम्हारा नया अंक प्रकाशित होते ही मैं सर्वप्रथम सम्पादकीय पढ़ती हूँ, तत्पश्चात लघुकथाएँ, और फिर समय मिलने पर अन्य रचनाएँ) 

इन सभी ने मेरी हिन्दी में जो थोड़ा-बहुत सुधार ला दिया है, मैं उसके लिए तुम्हारा व तुम्हारे माध्यम से तुम्हारे लेखकों व आदरणीय घई जी का आभार व्यक्त किये बिन रह नहीं पाई। 

यूँ प्रतीत होता है जैसे मुझे एक बहुत उच्च विद्यालय की प्रथम कक्षा में प्रवेश तो मिल गया है . . . अब और भी बहुत कुछ सीख कर अंतिम कक्षा तक पहुँचने का मुझे भरपूर प्रयास निरन्तर बनाये रखना होगा। 

अंत में यह महत्त्वपूर्ण तथ्य लिखकर पत्र समाप्त करती हूँ कि तुमसे प्रेरित होकर मैंने उन रचनात्मक शब्दों का प्रयोग करना आरम्भ कर दिया है जिन्हें मैंने भारत में कभी (प्राचीन काल में) सुना-पढ़ा था। परन्तु इंग्लैंड में रहते सब भूल-भुला दिया व उनके स्थान पर उर्दू व पंजाबी को अँगरेज़ी भाषा के साथ मिश्रित कर खिचड़ी परोसना आरम्भ कर दिया। उन अनगिनत भूले-बिसरे शब्दों को अब हिंदी व अँग्रेज़ी के दो-तीन शब्दकोष की सहायता से पुन: प्रयोग करने का प्रयत्न कर रही हूँ। ये उनमें से कुछ शब्द हैं जो मेरी पुरानी रचनाओं में खिचड़ी के रूप में मिलेंगे, और अब जिनका प्रयोग मैं इस प्रकार उत्साहित होकर कर रही हूँ जैसे कि एक छोटे बच्चे को उसका कोई खोया हुआ प्रिय खिलौना मिल गया हो:

अत:, अति, अंतराल, अन्यथा, अनजान, आभार, इत्यादि, उचित, उल्लेख, एकांकी, जिह्वा, परन्तु, परिणाम-स्वरूप, प्रतीत, पश्चात, पशु, पुन:, पूर्व, भय, यदा-कदा, यद्यपि, लघुकथा, व, हृदय, संभवत:, साधुवाद, आदि आदि। 

तुम्हारी सदैव शुभचिंतक व आभारी

— मधु

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