अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

इक्कीसवीं सदी के नाम पत्र 03

 

प्यारी पुत्री! 

जन्मदिन की बधाई एवं शुभाशीष! 

मैं अनुभव कर रही हूँ कि चौबीस वर्ष पूरे कर, पच्चीसवें वर्ष में प्रवेश करती तुम विश्व की बधाई स्वीकार नहीं कर पा रही हो। अलग-अलग रूपों में हिंसा की जो वीभत्सता तुमने अपने तन-मन पर झेली, उन आघातों से बने ज़ख्मों की जो टीस अब तक झेल रही हो। सच कहूँ तो तुम्हें सांत्वना देने के लिए मेरे पास भी शब्द नहीं हैं। दो देशों की टकराहट हमेशा विश्व को प्रभावित करती है, विशेषकर आर्थिक रूप में। आयुध के प्रति बढ़ता प्रेम, प्रेम के स्वाभाविक स्वरूप को नष्ट करता जा रहा है, इसमें कोई शक नहीं। राजनयिकों के निर्णय की सज़ा वहाँ की जनता भोगती है जिसकी कहीं सुनवाई नहीं होती। अपना वर्तमान और भविष्य सुधारने कई देशों के युवा बाहर जाते रहे हैं। उनकी प्रतिभाएँ विश्व-परिवेश में विकसित होती भी रहीं, किन्तु समय-समय पर उनके सँवरने में आए दिन जो बाधाएँ उपस्थित हो रही हैं, उनके कारण वे स्वयं, उनका परिवार या समाज नहीं बल्कि देश के कर्णधार हैं। तुम सबकी सिसकियों को झेल रही हो। युद्ध में मारे जाते सैनिकों सहित निर्दोष नागरिकों की चीत्कार तुम्हारे कानों को सुन्न किए जा रही है। अपनी जन्मभूमि की बात करूँ तो तुम क्रोध, नफ़रत और हिंसा में झुलसती हुई भी उठने की, उठ खड़े होने की जो हिम्मत जुटा रही थी, वह बार-बार नाबालिग़ बच्चियों, बालिग़, किशोरी के साथ हुई अमानवीय नृशंसता के कारण चूर-चूर हो गई। तुम्हारे अंगों से रिसते रक्त थक्का बनकर आँखों में जमे दिख रहे हैं। जंगल, पहाड़ और समुद्र पर भी पूँजी का वर्चस्व भला तुम कब तक सहोगी! मानवता आए दिन शर्मसार हो रही है। तुम घुट रही हो। बोल नहीं पा रही हो, तुम्हारी घुटन उन बेटियों की आंतरिक असह्य पीड़ा से अधिक उपजी है या स्वार्थ-अंधता के कारण बार-बार नदी-जंगल, ज़मीन, पहाड़, समुद्र पर क़हर ढाने वाले निर्णयों के कारण, मेरे लिए समझना कठिन है, ऐसा भी नहीं है। समझ रही हूँ, किन्तु उन्हें शब्द देने में असमर्थ हूँ। हर उम्र, हर क्षेत्र, हर वर्ग की स्त्रियाँ (कुछ एक अपवादों को छोड़कर) आज भी देह से अधिक समझी नहीं जा रहीं, पुरुष-दृष्टि की कलुषता बढ़ती जा रही है। धन कुबेरों के लिए अनीति के द्वार खुले हैं, आदि जनजाति और आदि मानवीय सृष्टि सहित प्रकृति के अन्य उपादानों का दोहन कब तक सृष्टि सहती रहेगी! कब तक सह पाओगी तुम! तुम्हारी युवावस्था का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है यह दशक। जब किशोरी थी तब तुम्हें इतना कुछ झेलना नहीं पड़ा था, ज्यों-ज्यों क़दम परिपक्वता की ओर बढ़े, तुमने घृणा, अहंकार, नफ़रत, अनाचार, कामुकता और कई अन्य स्थितियों में संकीर्णता से उपजी पतनोन्मुखी भावनाएँ झेलीं, व्यवहार झेले। फिर भी पुत्री याद रखना—

माना कुहरा घना है/पर अर्थ नहीं कि/सूरज नहीं उगा है 

विज्ञान और अध्यात्म सही रूप में अपनाया जाए तो विश्व ही नहीं ब्रह्मांड से ‘कुटुंब’ का सम्बन्ध स्थापित हो सकता है। विज्ञान रहस्यों के बाहरी द्वार खोलता है, मूर्त रूप में जीवन को आसान बनाता है, अध्यात्म भीतरी तहों को—और स्व-पर का भेद मिटाकर समभाव जगाता है। वहाँ न सुंदर देह, न ही ख्याति और न ही धन का अस्तित्व टिकता है। जाति-धर्म/संप्रदाय के फैलाए गए चोचले जनसाधारण के व्यक्तित्व विकास के सबसे बड़े बाधक हैं। एक अच्छा मनुष्य होना, सृष्टि के प्रति एक विनम्र और कृतज्ञ प्राणी होना अनिवार्य है। 

समय कभी स्थिर नहीं रहेगा। जब तुम्हारे पूर्वज नहीं थे, तब भी सृष्टि थी। इस धरती पर जब वेद नहीं था, तब भी सृष्टि थी, तब भी आचार संहिता थी, तब भी मौखिक संविधान था, तब भी ‘पारि कुपार लिंगो’ जैसे आचार संहिता के रचनाकार थे, जिन्होंने मानव समुदाय का भविष्य देख लिया था और मानव प्राणी जगत्, प्रकृति में संतुलन रखते आध्यात्म की सीढ़ियाँ हर एक के लिए बनाई थीं, आज भी गोंडी लोक गीत में इस सृष्टि, पृथ्वी के महादेशों में विभाजित होने, समुद्र के स्थल-परिवर्तन आदि सहित लोककला के विकास सहित आदि संस्कृति के विकास की पूरी कथा मिल जाएगी और उसके प्रमाण भी। गोंडी पुनेम के निर्माता तथा अठारह वाद्य यंत्रों, नृत्य कलाओं, संगीत और भाषा के जन्मदाता पारि कुपार लिंगो से पूर्व भी महान आदिवासी राजा थे, जिनका कोट मध्य ही नहीं, उत्तर और कुछ दक्षिण भारत तक फैला था और जिन्होंने सकल सृष्टि (जहाँ तक उन्हें ज्ञात था) की सेवा का अद्भुत नियम बनाए थे। पारि कुपार लिंगों के शिष्यों (फ्रत्री देवों) और उनके अनुयायियों ने लिंगो की संहिता को मौखिकी द्वारा दूर-दूर तक पहुँचाया था। हड़वा कोट, मुरवा कोट की सभ्यता, जो कालांतर में हड़प्पा-मोहनजोदड़ो सभ्यता के रूप में सामने आई। कई सत्य हैं जिन पर मुलम्मा चढ़ाकर ख़ुद को आदि शासक और देव का उत्तराधिकारी घोषित करने की परंपरा-सी चल पड़ी है। 

मेरी इस चर्चा का ध्येय मात्र यही समझो कि कुछ भी स्थिर नहीं है। इस विषय पर फिर तुमसे चर्चा होगी। इतना समझ लो, संसार प्रचलित लोककथाओं पर आधारित परंपरा स्वीकारता है। तुम साक्षी हो आज की, तुम्हारे जीवन में इस वृहत्त समाज की देह और मन में कई बदलाव होने शेष हैं। धैर्य रखना। जिन बुरी स्थितियों को रोकना तुम्हारे वश में नहीं, उनके लिए शोक मत करो, किन्तु उनसे मिली सीख से भविष्य उन्नत करना। 

ऊर्जा है तो गति है, गति है तो जीवन है। जीवन है और तुम्हारा अस्तित्व उसके केंद्र में है। सभ्यताएँ मरती हैं। जीव और प्रकृति में भी जीवन-मरण का खेल चलता है। मूर्त संसार में प्राणी/मानव निर्मित शासन मरता है, जीवन कभी नहीं मरता, वह तभी मरेगा जब समय का चक्र रुकेगा। तुम उस चक्र का अहम हिस्सा हो। गतिशील रहो। हताश मत हो। देखो, चौथा पहर बीतने को है। लालिमा तुम्हारे जन्मदिन का मंगलगीत गा रही है। उसकी बधाई स्वीकार करो और मेरा प्यार भी। 

पुत्री! निज उन्नयन की चर्चा करूँ तो तुम्हारे साथ चलते हुए मैंने जीवन को साधने की कला विकसित की, अंतर्यात्रा भी पहले की अपेक्षा अधिक की। तुमने अपने चौबीसवें वर्ष में मुझे संचारी भावों पर विजय हासिल करने में सहयोग दिया। ईश्वरीय आस्था ने पूर्णता पाई। ‘स्व’ लुप्त हुआ तो अहंकार जो कई बार स्वाभिमान के साथ सेंध लगाने में सफल होता था, उससे मुक्ति मिली। परम पिता पर शत प्रतिशत विश्वास प्रतिकूल परिवेश में भयभीत नहीं करता और न ही परिस्थितियाँ अब मन अशांत करती हैं। चिंता का स्थान चिंतन ने ले लिया है। काली रात में ध्रुव तारा और भोर की लालिमा सदैव दिखाई देते रहे हैं। मानव-मानव में भेद क्या, पूरी सृष्टि के साथ समभाव स्थापित हुआ है। ‘जय सेवा’ का जो मंत्र आदि शासक प्रथम शंभु ने अपनी प्रजा को दिया था, जिसे कालांतर में ‘जीव सेवा शिव सेवा’ भी कहा गया, उसी मंत्र को व्यवहार में उतार लिया है। देश की आर्थिक दशा बिगड़ी है। मध्यवर्गीय जनता भी इस चपेट में आई। मैं भी अछूती नहीं रही किन्तु आश्वस्त हूँ। शांत हूँ। जो चीज़ें/भावनाएँ/अवस्थाएँ बदली या घायल हुईं, वे स्वतः दीप्त होंगी क्योंकि इन सबके बीच ही दिव्य सकारात्मक ऊर्जा की अनुभूति पा सकी हूँ—और यह सब तुम्हारे इसी चौबीसवें वर्ष में अपेक्षाकृत अधिक सुदृढ़ हुआ। मुझ जैसे और मुझसे बेहतर कई प्राणी हैं; न जाने और कितने होंगे, जिन्होंने जीवन को नए सिरे से देखने और जीने की कोशिश को सँवारा होगा। संघर्ष को सीढ़ी बनाई होगी और आगे बढ़े होंगे! कितनों ने वृहत्त समाज की अमावस के अँधेरे को कम करने के लिए ख़ुद को मशाल बनाया होगा! 

पुत्री! अच्छे-बुरे में से अच्छी चीज़ों को सहेजो और आगे बढ़ो। विश्व की बधाई स्वीकार करो। सत्यपंथी बनो, सत्य की निर्भीक साक्षी बनना ताकि तुम्हारे जीवन काल में जब-जब इतिहास बनाने के लिए छलावे का चेहरा चिपकाए वर्तमान पन्नों पर उतरे तो तुम उसके छद्म रूप को नकारने योग्य प्रमाण कहीं किसी कोने में सहेज सको। परिवर्तन की गति तीव्र है। घबराना नहीं। 

शक्तिमती, बुद्धिमती, वैभवी, आनंदमयी भव! 

 तुम्हारी मासी 
 आरती स्मित

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

इक्कीसवीं सदी के नाम पत्र
|

प्रिय पुत्री सदी,  शुभ स्नेह! …

इक्कीसवीं सदी के नाम पत्र 02
|

  प्रिय इक्कीसवीं सदी!  शुभ स्नेह! …

एक पत्र
|

प्रिय पत्रिका साहित्य कुन्ज,  यहाँ…

एक माँ का अपने बेटे के नाम ख़त
|

प्रिय बेटा,  शुभाशीष आशा करती हूँ कि…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पत्र

सामाजिक आलेख

कहानी

व्यक्ति चित्र

स्मृति लेख

कविता

ऐतिहासिक

साहित्यिक आलेख

बाल साहित्य कहानी

किशोर साहित्य नाटक

गीत-नवगीत

पुस्तक समीक्षा

अनूदित कविता

शोध निबन्ध

लघुकथा

यात्रा-संस्मरण

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं