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बचे होने—  के मायनों की परत खोलती कविताएँ 

 

पुस्तक: जितना बचा है मेरा होना 
लेखक: नरेंद्र मोहन
पृष्ठ: 199
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन (प्रथम संस्करण) 
मूल्य: 250 रु.

बीसवीं सदी से इक्कीसवीं सदी की धारा में अपनी क़लम से विलक्षण उपस्थिति दर्ज करते चलनेवाले कवि नरेंद्र मोहन की नई काव्यकृति ‘जितना बचा है मेरा होना’ अपने शीर्षक से बहुत कुछ कह देती है। पुस्तक के भीतर प्रवेश करने से पूर्व अनुक्रम पर दृष्टि डालना लाज़िमी था। चार खंडों में गूँथी चौरासी कविताएँ! हर खंड अपने भीतर समाहित कविताओं के चरित्र बताता हुआ-सा! पाँचवें खंड में दो लंबी कविताएँ रखी गई हैं। ये कविताएँ अपने आप में एक मुकम्मल कहानी ध्वनित करती हैं जिनमें रेखाचित्र का टशन भी है।

‘दो शब्द’ से गुज़रते हुए कवि के तेवर और भीतरी वात्याचक्र का अंदाज़ हो जाता है। ‘दो शब्द’ के अंतर्गत रखे गए तमाम शब्द, इस संकलन से कवि के रागात्मक जुड़ाव और उद्देश्य के प्रकटीकरण में सक्षम आग, नदियाँ और पेड़ कविता में प्रयुक्त ऐसे सशक्त और केंद्रीय रूपक हैं जो विभाजन और विस्थापन की त्रासदी का दंश, उनकी स्मृतियों से उठती-लहकती लपटों से पाठक को झुलसाने में समर्थ हैं। ये ही वे रूपक हैं जो बार-बार क़लम से उतरकर पिछले सात दशकों और उनसे भी पहले की स्थितियों से रू-ब-रू कराते हैं। किंतु कुछ कोमल भावों / संवेगों/ रंगों/ ध्वनियों और लय-तालों को उद्बोधित कविताएँ भी हैं। 

संग्रह के पहले खंड ‘जितना बचा है मेरा होना’ तेईस कविताओं का गुलदस्ता है जिसमें संवेदना का प्रवाह, व्यंग्य की तीक्ष्णता और करुणा की निर्झरता महसूसी जा सकती है। कुछ कविताओं में लालित्य भी है, जीवन के मधुर पलों की कोमलता भी है; रंग और मंच की मिली-जुली अभिव्यक्ति भी है। इस खंड की पहली कविता ‘मैं मरना नहीं चाहता’ में देश की वर्तमान स्थिति से उद्भूत पीड़ा के अंतर्दाह से झुलसते मन से उद्भासित भाव उतर आए हैं काग़ज़ पर। एक बानगी ... गलती हुई रीढ़ की हड्डी / और तनी हुई गरदन की नसों को लेकर /मैं मर्सिया पढ़ रहा हूँ /और तैयार कर रहा हूँ / देश का ब्ल्यू प्रिंट /……. मेरी मदद करो महाकवि / मैं मरना नहीं चाहता 

रोष से शुरू हुई कविता व्यंग्य-कटार चलाती हुई विडंबनाओं में घिरकर करुणा की स्थिति में पहुँच जाती है। यही व्यंग्य की सिद्धि है। ‘दीवारें कँपाती हँसी’ सत्ता, शिक्षा, मीडिया और साहित्यिक आलोचना के क्षेत्र में पदासीन महामहिमों पर तीखा कटाक्ष है। भाषा के मनमाने प्रयोग पर तीखी टिप्पणी करते हुए नरेंद्र मोहन ने जिस तरह शिक्षा, जनसंचार और साहित्य-तंत्रों के भीतर राजनीति की दुर्गंध फैलाते और भाषा का शोषण करते तथाकथित पुरोधाओं को आड़े हाथ लिया और फटकारा है, एकबारगी नैतिक अवमूल्यन पर कबीर की फटकार स्मृति में तैर जाती है। कविता ‘हँसी फूटने पर’ एक गोली है जो दनदनाती हुई आती है और सीने में धँस जाती है। साहित्य/ राजनीति की आड़ में अराजक तत्वों को बढ़ावा देने वाले सफ़ेदपोशों और आतंकवाद, उग्रवाद, माओवाद के समापन के नाम पर निर्दोष ग्रामीणों/ जनजातियों की सहनशक्ति चुकने तथा प्रतिकार करने की वृत्तियों का ख़ुलासा करती है यह कविता। क्षणिका ‘हँसते-हँसते’ तीन पंक्तियों में ’गागर में सागर’ भरने की कहावत चरितार्थ करती है। ‘विसंगति’ में पुरस्कारों की होड़ में लगे चाटुकारों/ लोलुप साहित्यकारों पर कवि चोट करते हैं और विसंगतियों से टीसते मन से फूट पड़ती है करुणा। कवि की संवेदना कराहती हुई पूछती है — रुँधी रुँधी आवाज़ / शब्द कहाँ है / शक्ल कहाँ है/ आवाज़ और शब्द और शक्ल तीनों में /कोई रिश्ता क्यों नहीं है?

संवाद की यह प्रक्रिया सरल होते हुए भी सरोकारों के जटिल दरवाज़े खोलती है। ‘रक्तपात’, ‘सेवकराम’,’घ्राण शक्ति’ ‘घोड़ा’ इसी श्रेणी की कविताएँ हैं। ‘इस हादसे में’ कविता में कवि ने नेता से संवाद स्थापित किया है— सीधे-सीधे, बेलौस आवाज़ में, पूरी ठसक के साथ। व्यंग्य की पैनी धार से भीतर तक चीरते हुए... । ... पड़े पड़े मरूँ या कुछ करूँ /आत्मघाती स्थिति से कैसे बचूँ? ‘रक्तपात’ कविता में ये जो उहापोह, जो द्वंद्व हैं, वे शब्दों से परे की पीड़ा को बाँधते ही नहीं, उनसे हौले-हौले गुज़ारते भी हैं। ‘मुक्तिबोध को याद करते हुए’ कविता का तेवर भी वही है— उजास के पीछे के अँधेरे को टटोलती हुई... उजाले में से /अँधेरा फूटता दिखे /लक़दक़ ....... नरेंद्र मोहन व्यंग्य-वाण निशाने पर साधने में ग़ज़ब का हुनर रखते हैं! एकबारगी बाबा नागार्जुन की कविताएँ स्मृति में जीवंत हो उठती हैं। नरेंद्र मोहन की कविता भक्ति/ समर्पण के नाम पर चारण प्रवृत्ति रखने वाले, वैचारिक अंधता भोगते व्यक्ति/समूह पर खुला वार करती हुई देश की वर्तमान स्थिति की कलई खोलती है। व्यंग्य के हथौड़े से सत्ता पर सीधे-सीधे चोट करतीं कवि की कविता ‘एलर्जी’ मारक कविता कही जा सकती है ‘कहाँ ख़त्म होती है बात’ कई तहों में खुलती जानेवाली कविता है।

‘बाहु फोर्ट से तवी’ कवि के जलते मन की भीतरी सतह में मौजूद ठंडक का स्पर्श कराती कविता है। जम्मू के बाहु फोर्ट से सटकर बहती हुई तवी नदी का नायिका के रूप में मानवीकरण अपने भीतर एक तरंग समेटे हुए है.... सुन लिया संगीत में थिरकता / उसका जिस्म ..... वहीं दूसरी ओर, ‘क्या नदी मर चुकी है’ कविता मानव-स्वार्थ के प्रदूषण को ढोती और दम तोड़ती नदियों की पीड़ा बाँचती है। ‘आज़ादी’ ‘लघु में विशाल’ कविता है। भाषा के बिगड़े स्वरूप से चिंतित, उसकी मुक्ति के लिए समाज की नब्ज़ टटोलते कवि को उम्मीद है.... हो सकता है / मरते हुए आदमी की पहचान का नाम और ठोस संकेत / भाषा देना शुरू कर दे/ और हमारे हाथ और तलवे / महसूस करने लग जाएँ आग!

‘क्या यह गिद्ध तुम्हारी भविष्यवाणी में था’ में पिता से जुड़ी स्मृतियों का मर्मस्पर्शी वर्णन है, वहीं ‘पेड़’ कविता मनुष्य की स्वार्थ वृत्ति का कच्चा चिट्ठा खोलती है। ‘थोड़े लिखे को बहुत समझना दोस्त!’ पत्र शैली में लिखी इस कविता में विभाजनकाल के दंगों की मर्मांतक पीड़ा अंट नहीं पा रही है, बस छलक ही जा रही है। यहाँ ‘रिरियाते हुए’ देशज शब्द का यह सुंदर प्रयोग हैं। बहरहाल, यह कविता भय का आतंक झेलती है, अविश्वास को पथराती है; सौंदर्य की स्मृति को परे ढकेल दिल्ली की वर्तमान आबोहवा का दिग्दर्शन कराती है और अंतिम पंक्ति में अनकहे की शक्ति समायोजित कर, पाठक के चिंतन-सामर्थ्य पर छोड़ देती है कि वे उसकी कितनी तहें खोलते हैं...। इसी प्रकार, कविता ‘हथेली पर अंगारे की तरह’ में पीड़ा का अद्भुत विस्तार है। पेड़ की त्रासदी में कविता की त्रासदी का बिंब जहाँ एक ओर आलंकारिक सौंदर्य बिखेर रहा है वहीं भाव पक्ष चिंता में सना है। दो राय नहीं कि बिंब विधान में कवि अनूठे हैं, ध्वनियों को पकड़ने की कला अनूठी है साथ ही भाव का वैभव उनके लेखन को ऐश्वर्यशाली बनाता है। ‘जिस्म अब भी थरथरा रहा है’ कविता मोटे आवरण में लिपटी है। यह बार-बार तहों के सीवन के खोले जाने की माँग करती हुई कविता है। ‘मुझे कल्पना दो’ उज्जैन में प्रकृति का लावण्य कवि को अनिवर्चनीय सुख में लपेटे हुए है।

दूसरा खंड ‘शब्द एक आसमान’ अट्ठारह कविताओं का समुच्चय है। तत्कालीन परिवेश में व्याप्त भय और आशंका, आवाम की अंतहीन पीड़ा, टूटन-विखंडन और इन सबकी अनुभूतियों से जूझता कवि मन! व्यथा सँभाले नहीं सँभलती तब फूट पड़ती हैं ऐसी कविताएँ! पहली कविता ‘सपना’ विभाजन की त्रासदी, शरणार्थी होने की अव्यक्त पीड़ा, मौत के आतंक से भयभीत और जीवन की कठोरता से रू-ब-रू होने की स्थिति, जो समय के साथ थिर हो गई, में गति का स्वप्न और जीवन में स्पंदन की उम्मीद जगाती है। ‘मैं सुंदरी की वापसी चाहता हूँ महाकवि’ में कवि की मनोव्यथा की थाह लेना कठिन है और थाह पाने के बाद उबरना और भी कठिन। ‘पहाड़ नीली कमीज़-सा’ में प्रकृति के साथ कवि की अंतरंगता छलक पड़ी है। सुंदर बिंब-विधान! रोचक और आकर्षक भी। वहीं ‘ज़रा छूकर देखिए न!’ में गाँधी से संवाद चुटीला रूप लिए है। ‘चुप्पी’ विभाजनकाल में हुए क़त्ल-ए-आम के मंज़र की दहशत को ओढ़ती-बिछाती प्रतीत होती है। उस पीड़ा की लहर उमगती दिख रही है ‘चुप्पी’ में।        कवि ने ‘अपने में लौटने’ या आत्मन्वेषण को केंद्र में रखकर कई कविताएँ रची हैं। वे शब्द में प्रवेश कर, शब्द के सहारे, धरती-आसमान, दृश्य-अदृश्य, शून्यता में पूर्णता—सब खंगाल कर लौटते हैं और उनकी अनिवर्चनीय अनुभूतियाँ एक-एककर कविता की पोशाक पहनती चली हैं— ‘शब्द-स्मृति’, शब्द : एक आसमान’, ‘सृजन का मुहूर्त’ इसी धुरी पर घूमती कविताएँ हैं। संदर्भ में भिन्नता है। ‘सृजन का मुहूर्त’ कवि के जन्मकाल से संदर्भित कविता है। अपने जन्म का भव्य रेखांकन और कर्फ़्यू का यथार्थ चित्रण। 

‘एक लकीर खाली-सी’ में लाहौर-प्रसंग लिखते हुए निंदर की पीड़ा बह निकली है स्याही बनकर …. । ‘बाहर से कौन आया होगा!’ में दंगे के बाद की स्थिति का बेहतरीन चित्रण है ‘लड़की डरी हुई है’ में परिस्थितिवश भयकंपित जनता की मन: स्थिति चित्रित है तो ‘ख़ून की भाषा’ में कवि का निंदर बनकर अतीत को टटोलना। भाषा का चमत्कार यहाँ भी .... 

 मैं कुतरने लगता हूँ / पिता की यादें/ उतरने लगता हूँ / अब्दुल मजीद की पथराई आँखों में 
 ‘क्यों’ कविता कटु सत्य परोसती है कि अंतर्पीड़ा का भोक्ता दूसरा नहीं हो सकता! ‘पहली बार’ अनुभूति की अनुभूति को रेखांकित करती सुंदर बन पड़ी है। ‘एक खिड़की खुली है अभी’ उम्मीद, साहस के साथ ही संभावनाओं को जन्म देती है। ‘खूशबू’ पत्नी के साथ बिताए अनगिन पलों की दास्तान है। घर की दर-ओ-दीवार पर चस्पाँ पत्नी की यादों की मर्मस्पर्शी व्यंजना है— लौट आएगी / मेरी ही दस्तक/ चक्कर काटती/ मुझे बरजती.... 

इस संग्रह का तीसरा खंड — ‘जैसे हम पाते हैं प्रेम’ तेईस कविताओं से सजी नन्ही फुलवारी है। इस खंड में, रंगों/ चित्रों में समाहित रंगों को कई दिशाओं/ कई संदर्भों में बिखेरती कविताएँ हैं। सभी कविताएँ अतिसूक्ष्म, बेधक, भेदक और अनुभूति के गहरे कुएँ से आवाज़ लगाती हुई प्रतीत होती हैं। ‘जैसे हम पाते हैं प्रेम’ मानव मनोविज्ञान को साधती, बेहतर कविताओं में से एक है। ‘रचना क्षण’ में कवि का नियंता भाव से अपनी उपस्थिति ख़ारिज करते हुए, अपने प्रिय को नवल रूप देने की संवेदना रंग-ब्रश को माध्यम बनाकर प्रकट हुआ है। ‘कंपकंपाती रंग-परते’ में दंगे का असर उभरता है तो ‘पुतली नाच’ में कवि के कथ्य और शिल्प का। हर कविता एक-दूसरे से इतर, देश की नई ज़मीन – राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक स्थिति को रेखांकित करती हुई! चरित्र और चारित्रिक विडंबनाओं का सुंदर अंकन! व्यंग्य का पुट लिए हुए। व्यंग्य का यही पुट ‘मुर्दा या ज़िंदा’ में भी नज़र आता है... मैं मरा अधमरा/ कठपुतली ज़िंदा 

‘मेरा नाचना’ में कवि का कठपुतली में स्वयं प्रतिबिंबित होने का एहसास पीड़ा के उत्स तक ले जाता है। ‘नाच’ कविता में प्रेम के आत्मरूप के आस्वादन का प्रभाव छलक-छलक पड़ता है। नृत्यकला से समागम, आकंठ निमज्जित होने की हद तक साधारणीकरण करा पाने में समर्थ है यह कविता। ‘एक नृत्य लगातार’ में बचपन का स्नेह बढ़ती उम्र के साथ आत्मीयता में रूपायित होता है। उस अंतर्भाव की मादकता नर्तकी की थिरकन में अभिव्यक्त है। ‘सृजन एक सिलसिला’ भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर बढ़ते क़दम को चिह्नित करती समृद्ध कविता है। ‘वक़्त और कैनवस’ चित्रकार द्वारा रंगों से वक़्त को बाँध लेने की कोशिश दर्शाती क्षणिका बेहद रोचक है। 

‘रंग बोलने लगे हैं’ में कवि के चित्रकार मन ने संवेदना को रंगों में उकेरा है। कई परतें हैं इस कविता की। सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को स्वयं में समेटे, मौन की चीख़ सुनाई देती है यहाँ। ‘कला दर्शन नहीं है’ कला की अमूर्त्त महत्ता को रेखांकित करती है। ‘मृदंग की थाप पर’ सत्ता के विरोध में आवाज़ उठाने और त्रासदी भोगने — त्रासदी की कोख से नई संभावना को जन्म देने की कथा है। ‘नृत्य छवि’ पाठक की दृष्टि बाँध लेती है। सम्मोहन से बँधा पाठक दर्शक की भाँति प्रत्येक पंक्ति के रूप-लावण्य को निहारता रह जाता है। ‘कोई और हो जैसे!’, ‘नृत्य भाषा’, ‘क्या करूँ?’ नृत्य के सूक्ष्म प्रभाव को उकेरती, उसके सम्मोहन में बाँधती, ठगे-से रह जाने की स्थिति में ला खड़ा करती है। ‘कोई और हो जैसे’ में कवि की उलझन की बानगी देखें —एक को पकड़ता हूँ / दूसरी छूट जाती / पंखुरी-दर-पंखुरी खिलती/ पपड़ियों-सी उतर आती / कभी बाहर की तरफ खुलती/ कभी अंदर की तरफ़ मुड़ती 

‘अलात-चक्र’ सहित कई कविताओं में कवि के चित्रकला, नृत्यकला, नाट्यकला से संबद्ध विशद ज्ञान और उसमें सूक्ष्मता से उतरने, गहराई में पैठने और पाठक को अपने सम्मोहन में बाँधने— बाँधे रखने के विलक्षण शिल्प-कौशल की प्रशंसा न करूँ तो अनुचित होगा। कवि के लेखन को समग्रता से आँकें तो यह कहना ही पड़ता है कि भाव पक्ष की समृद्धि अन्य समकालीन कवियों में मिल भी जाए किंतु विषय-वैविध्य, भाषा, शैली, शिल्प, बिंब-विधान, गद्यात्मकता में अनूठी लयात्मकता, सरगम और संगीत सहित थिरकन और स्पंदन जो यहाँ मौजूद है, एक साथ अन्यत्र दुर्लभ है। ये कविताएँ हर बार एक नए अर्थ के साथ प्रकट होकर चकित-चमत्कृत करती हैं। 

चतुर्थ खंड ‘कविता मुझे बचा लो’ के अंतर्गत बीस कविताओं का ग़ुंचा है। पहली कविता ‘मुंतज़र अलजैदी’ उनसे मिले पलों का समुच्चय है और उनके बहाने से इराक़ की त्रासद साँसों का भी। ‘कुर्सी और बहेलिया’ स्वार्थसिद्धि और पदोन्नति की होड़ में नैतिक मूल्यों का हनन करते हुए मानव द्वारा स्वयं को नैसर्गिकता से दूर किए जाने की आम प्रवृत्ति का सुंदर रेखांकन है। ‘दुख’ प्रतिरोध के सामर्थ्य की कविता है। कवि की संवेदना टीसती है जब बेगुनाह ग्रामीण आदिवासी भूख और उससे भी अधिक सुरक्षाबलों के अत्याचारों के शिकार होते हैं और कोई कुछ नहीं कहता! ... ‘सिलसिला’ में कवि ने लाहौर के अपने और नन्हो के घर में व्याप्त जीवंतता को जीवंत रूप में रेखांकित किया है। ‘खुद आकर देख क्यों नहीं लेते?’ कविता वैश्विक स्तर पर उदारीकरण और विकास के नाम पर मची तबाही का दृश्य उकेरती है। एक बिंब .... अमेरिकन गर्म कोट उधर / और पतलूनें इधर / लड़ती रहीं 
‘घर’ में बचपन की स्मृतियों को जीता कवि मन बार-बार उस ओर भागता है और उस स्पंदन को महसूसता है जो कहीं पीछे छूट गया है....
.... और महसूस करने लगा / उँगलियों में साँस लेता / वह घर / जो अब मेरा नहीं है लाहौर की भीनी यादों और विस्थापन के बाद की अवस्थाओं ने संवेदना की अजस्र धार बहा दी है। बंटकर कहीं का भी न होने का दुख ‘दिल्ली में लाहौर लाहौर में दिल्ली’ कविता में उभरा है। दो जगहों में बंटे शरीर के साथ ही बंटे मन की अवस्था का करुण चित्रण है। आज़ादी के सात दशक बाद भी कवि अपने बिखरे बचपन की टीस से उबर नहीं पाए हैं जिसकी झलक ‘मैं ही मरा हूँ आसपास’ में मिलती है। बानगी देखें .... दहशत में लब खुले हैं आज़ाद / बेख़्वाब/ बेआवाज़ / कलबुर्गी हो आ इखलाक़/ मैं ही मरा हूँ – आसपास 

 ‘बर्बरता के अँधेरे में’ नाटक से साधारणीकरण के पश्चात जन्मी कविता है जिसमें निर्वासन की अकथ कथा को कवि ने एकालाप शैली में पिरोया है। ‘किरदार निभाते हुए’ बेहद सूक्ष्म अनुभूतियों से भरी है। कविता बार-बार पढ़े जाने की माँग करती है और हर बार नए अर्थ खोलती है.... पंखुरी-दर-पंखुरी। ‘राजा नंगा है’ लोककथा नरेन्द्र मोहन की कल्पना में उतरकर कविता में ढलती है। व्यंग्य की नोक बरछी-भाले से कम पैनी नहीं। कविता ‘खंभे मुँह ताकते रहे’ में पुतली के माध्यम से तत्कालीन राजनीति का स्वरूप और आज़ादी के बाद के परिणाम का सुंदर नियोजन हुआ है। व्यंग्य-सौष्ठव अपने उत्कर्ष पर है। 

‘परिंदा’ कविता मन की उड़ान को बाह्य परिवेश के आकर्षण से बँधा दिखाती है, वहीं ‘मुक्ति की चाह’ बंदिशों से घिरे मन, दबोची गई अभिव्यक्ति और सुलगते विचारों की मुली-जुली व्यथा-कथा है। दमन और प्रतिरोध के दोनों पक्षों को कवि ने चित्रकार के रंगों से उजागर किया है। कविता ‘बहुत दिनों के बाद’ दलितों, दमितों, शोषित वर्गों, सताए गए आदिवासियों के प्रति कवि की संवेदना इतिहास के पन्नों को खंगालती हुई रोशनी के पीछे के अँधेरे को चिह्नित करती है।‘कहाँ हो तुम’ कवि शोषण के विरुद्ध उठाई आवाज़ के लावे के ठंडा होने से पहले अपनी पुकार ज़ख्मी नजीम अहमद तक पहुँचाना चाहते हैं .... 
... जितना बचा है मेरा होना / उसी के बूते/ पुकारता हूँ— कहाँ हो तुम? 

इस खंड की अंतिम कविता ‘कविता मुझे बचा लो’ में कवि की पीड़ा सत्ता और पूँजी के आगे झुकते-बिकते साहित्यचेता के व्यवहारों को देखकर बढ़ रही। कोई राह नहीं सूझती तब पीड़ा का विरेचन करती है कविता ..... कंपकंपाती रूह / कल्पना काठ / कविता मुझे बचा लो/ मेरे भीतर बेचैनियाँ भर दो 

पुस्तक के अंतिम खंड में दो लंबी कविताएँ हैं। पहली कविता ‘एक अग्निकांड जगहें बदलता’ में विभाजन से पूर्व, कवि की बाल-स्मृतियों में उभरे लाहौर के भीतर पैठी मास्टर यूसूफ़ की यादें कवि को झकझोरती हैं, बेचैन करती हैं। पूरी कविता देश के टुकड़े होने की ख़बर से विक्षिप्त हुए मास्टर युसुफ की अंतर्दशा एवं बहिर्दशा का मार्मिक चित्रण है। कविता विभाजन के कारण हुए दंगे, विस्थापन की त्रासदी का जनमानस पर पड़ते दुष्प्रभाव को इस तरह उधेड़कर रख देती है मानो हादसों से उत्पन्न दहशत से भीत मानव मन का सिटी स्कैन और एमआरआई किया गया हो। ऐसी कविता विरल है। 

दूसरी लंबी कविता ‘खरगोश चित्र और नीला घोड़ा’ में सलमान और सुचित्रा जितने यथार्थ पात्र हैं उतनी ही यथार्थ स्थितियाँ-परिस्थितियाँ भी। मन: स्थितियों के अंकन में कवि लाज़वाब हैं ही। खरगोश का बिंब सशक्त है। पेंटिंग और कलाकार और दर्शक के माध्यम से स्त्री के साथ घटित दुर्घटना, अदृश्य बन्दिशें, अभिव्यक्ति की मुक्ति के लिए छटपटाहट का अद्भुत चित्रण है।

नरेंद्र मोहन शोषितों /पीड़ितों के भीतर सुलगती आग की आवाज़ हैं। चाहे वह दलित हों या आदिवासी/ हिंदू हो या मुस्लिम / अबोध हो या परिपक्व, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। उनकी कलम इन सबकी ज़ुबान बन जाती है और अर्थों की विराटता अपना वैभव बिंब और ध्वनियों के माध्यम से पसारती है तो बुद्धि चकित रह जाती है। नरेंद्र मोहन भाव, भाषा, ध्वनि, लय, कथ्य-शिल्प सहित अन्य समस्त कलाओं /साज-सज्जा को एक वितान पर लाकर तान देते हैं ..... कुछ इस तरह कि रंग-डूबे ब्रश से छितराए गए रंगों की विविधवर्णी आभा कविता को आभासित करती है। शोधार्थियों के लिए यह कृति अर्थों की दुनिया का एक नया अध्याय खोल पाने में समर्थ है।

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