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सब रब दी मर्ज़ी है . . . वही तार जोड़ता रहता है: योगवीर हांडा

 

बाहर बारिश की झमाझम और भीतर मन भीग-भीगकर नाचता हुआ . . . बूँद-बूँद स्नेह से भरा—लबालब। हांडा अंकल का स्नेह। मेरे प्रति उनकी शुभचिंता—मेरी तरक़्क़ी, मेरा स्वास्थ्य, मेरा लेखन, मेरा उर्ध्वगमन, मेरे दायित्व और गुज़रते पलों के बीच गूँथी जाती छोटी-बड़ी ख़ुशियाँ—सब कुछ। उन्हें अपनी फ़िक्र कहाँ! 102 वर्षीय युवा योगवीर हांडा – मेरे हांडा अंकल, जिनका पूरा जीवन राष्ट्र एवं समाजचेता ही नहीं, निर्भीक स्वतंत्रतासेनानी, सजग एवं कर्मठ समाजसेवी के रूप में अर्पित रहा। आज भी उसी ऊर्जा के साथ वे सबकी मदद को तत्पर दिखाई देते हैं। ठीक आठ बरस पहले ऐसी ही झमाझम बारिश के बाद खुले नीले आकाश तले उनसे मुलाक़ात हुई थी। 

वे भी क्या ही ख़ूबसूरत पल थे! उन पलों ने हमें जोड़ा और सम्बन्ध की प्रगाढ़ता को ऐसा अनूठा रूप दिया कि दिल्ली में यह पहला आवास, जो घर न होकर भी मेरे लिए अधिकारों से भरा घर है, जहाँ मेरी ज़िद, मेरी नाराज़गी, मेरी ठुनक और हम दोनों का एक-दूसरे पर अनकहा शत-प्रतिशत अधिकार–सबने अपनी-अपनी जगह बना रखी है। अधिकार भी ऐसा कि न मैं अंकल की बात से बाहर जा सकती हूँ, न अंकल मेरी। मामला ज़िद का हो तो जीत मेरी ही होनी है, ऐसा नहीं है। कई बार अंकल की ज़िद भी बच्चों से कम नहीं होती क्योंकि अंकल की इच्छा के प्रति उनके परिवार का समर्पण ग़ज़ब का है, मैं भी उनसे बाहर नहीं। वे मूक भाव से उनकी सेवा किए और करवाए चलते हैं और अंकल हैं कि जगसेवा के लिए वरिष्ठ आवास को घर बनाकर प्रफुल्लित हैं। 

बूँदों के भीतर से गुज़रते हुए आठ वर्ष पीछे जाती हुई ठिठक जाती हूँ। वर्ष 2016 की गलियों से गुज़रते हुए भगवतधाम वरिष्ठ आवास के द्वार पर पहुँचकर स्मृति मुस्कुराती है, जहाँ स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य पर अपने ‘साहित्यायन ट्रस्ट’ की ओर से वृद्धों के लिए कुछ रंगारंग कार्यक्रम करने की इच्छा से हम दोनों–मेरे साथी न्यासी ब्रजेन्द्र त्रिपाठी (पूर्व उपसचिव, साहित्य अकादमी, दिल्ली) और मैं गए थे और कार्यालय में मैनेजर से इस बाबत बात की थी। मैनेजर एसबी चटर्जी ने पहला काम यही किया कि एक पनचानवे वर्षीय युवा से मिलवाया, फिर परिचय दिया, “ये हांडा जी हैं, हम सबके गार्जीयन। आप इनसे अपने कार्यक्रम के बारे में डिस्कस कर लो।” 

वह पल भी कितना अनूठा था! हमारे सामने लंबी, छरहरी, लालिम गौरवर्ण एवं श्वेत मुलायम बालों से युक्त आकृति मुस्कुरा रही थी। हमने ग़ौर किया, वे एक अनूठे आभामंडल से घिरे, स्फूर्ति से भरे ऐसे जीवंत ऊर्जापुंज थे जिन्हें लिफ़्ट की दरकार न थी। वे सीढ़ियों से उतरना-चढ़ना पसंद कर रहे थे। हालाँकि अन्य रहवासियों की सुविधा के लिए उन्होंने अपने धनी साथी से कहकर भगवतधाम में लिफ़्ट की व्यवस्था करवा दी थी। 

उस दिन हांडा जी से देर तक बात हुई। उन्होंने हमें दोनों उद्यान दिखाए, जहाँ किनारे-किनारे कई तरह के फलों के पेड़ लगे थे और बैठने को लोहेवाली कुछ कुर्सियाँ भी। खर-पतवार हटानेवाली मशीन ने नरम-नरम घास को सुंदर रूप दे रखा था। बाद के दिनों में उन्होंने बताया कि उनके कहने पर घास काटने वाली मशीन भी उनके एक दोस्त ने दिया है। 

नियत दिन, 15 अगस्त 2016 को बारिश की वजह से हम तय समय पर पहुँच नहीं पाए, ज़रा देर हो गई। साज़ो-सामान के साथ जब दल सहित पहुँचे तो हैरान रह गए। कार्यक्रम बड़े प्रांगण में होना था, किन्तु बरसात की नीयत समझकर हांडा जी ने साथ लगे चौड़े बरामदे पर कुर्सियाँ लगवा दी थीं। हमारी माँग पर सबके नाश्ते व उपहार को रखने के लिए बड़ी-बड़ी मेज़ें भी झटपट जुगाड़ दीं। वहाँ काम करते श्रमिक हांडा जी की एक आवाज़ पर मदद को हाज़िर होते रहे। कार्यक्रम की सफलतापूर्वक समाप्ति के बाद जो बुज़ुर्ग नहीं आ पाए थे, उनके लिए तीन मंज़िलों तक बार-बार साथ-साथ जाकर हांडा जी हमारे साथियों के हाथ से सादर भेंट दिलवाते रहे। फिर श्रमिकों के लिए प्लेटें भिजवाईं, तब कहीं जाकर उन्होंने अपने लिए प्लेट पकड़ी। ऐसा लग रहा था, वे मेज़बान हों। कार्यक्रम होने तक हर एक बात पर उनकी अभिभावकीय दृष्टि और आगे बढ़कर ज़िम्मेदारी लेने का जज़्बा हम सबने महसूस किया। वे थक चुके होंगे मगर हमें इसका भान न होने दिया हालाँकि उनकी उम्र और कार्यक्रम में उनकी सक्रिय भूमिका देखकर हमें अनुमान हो चला था। उन्होंने प्लेट ली ज़रूर मगर अपने केयर टेकर को रख आने को कह दिया। विदा होते समय जाने क्या जी में आया, मैं आगे बढ़कर उनके गले लग गई। मेरे पास आभार प्रकट करने को शब्द नहीं थे और इस तरह अनायास स्नेह उड़ेले जाने का उन्हें अनुमान न रहा होगा क्योंकि उन्होंने धीरे-धीरे पीठ थपथपाई तो भावुकतावश उनकी हथेली थरथरा रही थी। मैं देख पा रही थी, वे कोमल पलकें नम थीं। निःशब्दता की कोख से जो ध्वनियाँ उभर रही थीं, उसे मैं स्पष्ट सुन पा रही थी। उसके बाद तो जब भी अवसर मिला, मेरा आना-जाना शुरू हो गया। धीरे-धीरे उनके भीतर की झिझक भी दूर हुई। दुलार के ख़जाने का तो मुँह उन्होंने मेरे लिए खोल ही दिया था, उनसे बातें करते हुए ज्यों-ज्यों उनके बारे में जानती चली, सौभाग्य को सराहती चली कि इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में अनायास देश के एक सच्चे नायक से मिलना, उनके परिवार से, विशेषकर उनके जीवन से अकाट्य हिस्सा के रूप में जुड़ते हुए स्नेहिल सम्बन्ध और निष्काम कर्म के ख़ूबसूरत मायने पाने के साथ ही वे दुर्लभ संस्मरण भी सुनना जो अंकल के जीवन-कर्म का हिस्सा रहे पलों की चादर बिछाते चले थे। उनकी वे यादें हमारी धरोहर थीं, इसलिए उन्हें सँजोती चली। उनकी स्मृति-यात्रा में शामिल होना एक अलग ही अनुभव देता रहा। 

एक दिन, यों ही बात करते-करते वे बताने लगे, “3 सितम्बर 1922 में लाहौर में जनमा और बचपन से सत्याग्रह आंदोलनों में शिरकत करता चला। 30 अक्टूबर 1928 को जब साइमन कमीशन लाहौर आया और उसके विरोध में लाला लाजपत राय ने अहिंसक रैली निकाली, मैं यही कोई छह-सात बरस का था। मैं भी अपने परिवार के बड़ों के साथ उस रैली में शामिल हुआ था। सिपाही सब पर दनादन लाठियाँ बरसाए जा रहे थे। थोड़ी चोट हमने भी खाईं। लालाजी पर जानबूझकर लाठी चार्ज करने की घटना मेरे सामने की है। फिर तो इसके बाद जितने छोटे–बड़े सत्याग्रह आंदोलन हुए, सबमें खुलकर भाग लिया। ‘नमक सत्याग्रह’ में भी और 26 जनवरी 1930 को ‘स्वतंत्रता दिवस’ मनाया गया, उसमें भी। स्कूल से भाग-भागकर जलसों में शामिल होना, नेताओं को सुनना, अपनी गिलहरी भूमिका निभाना जीवन का उद्देश्य बन गया था। मेरे ऊपर ताया जी श्री गुलजारी लाल नंदा का प्रभाव सबसे अधिक पड़ा। बचपन से ही मैं उनकी छाया में सच्चाई, ईमानदारी, कर्मठता और देशभक्ति का सच्चा पाठ पढ़ रहा था। टीन एज से ही अपने ताया जी के साथ मीटिंग में जाने और सारे बड़े नेताओं को सुनने का अवसर पाया। जैसे तुम बैठी हो, वैसे ही गाँधी, नेहरू, सुभाष, पटेल, जिन्ना और भी कई बड़े नेताओं के पास बैठकर उनकी बातें सुनी हैं। ताया जी लेबर लॉ के चेयरमैन थे तो कई बार उनके घर पर ही मीटिंग होती थी। उस समय मैं सेवादार बना ताया जी के साथ होता था। अहमदाबाद गया तो इंजीनियरिंग करने था, मगर सत्याग्रह आन्दोलनों में हमेशा लगा रहा। एक बार तो कार्यकर्ताओं पर शूट ऐट साइट का ऑर्डर हो चुका था, फिर भी हमने छिप-छिपकर पोस्टर लगाए। मैं एथलीट चैम्पियन था तो लड़कों की टोली का हेड मुझे ही बनाया जाता था। एक बार हमने पोस्टर्स तो लगा लिए, साथ में बिट्ठल भाई और भी कुछ छात्र थे, जब वहाँ से रफ्फूचक्कर होने वाले थे, उसी समय सिपाही आ गए। उन्होंने हम पर बंदूकें तान दीं। हम कितना भी बहाना बनाएँ, वे सुनते नहीं थे, उसी समय कुछ पठान गार्ड मुझे पहचान गए तो उन्होंने सिपाहियों को रोका, फिर मुझसे पूछने लगे– सुबह-सुबह यहाँ क्या कर रहे हो? 

“वो रात ताया जी के घर रुक गया था तो अब हॉस्टल जा रहा हूँ।”

पठान गार्डों ने सिपाहियों को समझा-बुझाकर हमारी जान बचाई और हम ख़ैरियत मनाते हुए वहाँ से खिसक लिए। बात यहीं ख़त्म नहीं हुई। पुलिस का हम पर शक बढ़ गया। प्रिंसिपल पर पुलिस का दबाव बढ़ने लगा। और आए दिन की हमारी कारिस्तानी के कारण कॉलेज में ताला लग गया। तालाबंदी के बाद आरसी टेक्निकल कॉलेज के इलेक्ट्रिकल, मेक्निकल इंजीनियरिंग स्टुडेंट के रूप में करियर यहीं समाप्त हुआ और ताया जी के साथ काम करना बढ़ गया। उनके साथ ही बापू से मिलने साबरमती भी गया; 1942 के आंदोलन में भी खुलकर भाग लिया। इस बीच लाहौर-अहमदाबाद और बाक़ी जगहों पर आना-जाना लगा रहा। 1946 के दंगे में जब हालात बिगड़ रहे थे, हम तब भी टिके रहे। पिताजी लाहौर छोड़ने को तैयार नहीं थे। मगर, 1947 में हमें लाहौर छोड़ना पड़ा। पिताजी ने हिम्मत नहीं हारी। फिर धीरे-धीरे सब चीज़ें लाइन अप होती गईं। मैं ताया जी के संगत में रहा, तो देश और समाज के लिए जीना सीखा। मेरे सगे भाई ने हमारी प्रॉपर्टी हड़प ली, ज़ोर बाग़ में आज भी कोठी खड़ी है। पिताजी भी ईमानदार और कर्मठ थे, समाज के लिए जीने वाले थे। लोदी रोड के पास शवदाह गृह मेरे पिताजी का ही बनवाया हुआ है। उनके ही मन में ये बात आई और ऊपर इसकी माँग रखी। ईमानदारी और काम करने का वही जूनून मेरे भीतर भी आया।” 
 
संवाद के दौरान यादों की गठरी से जो घटनाएँ बाहर ढुलक आतीं, हांडा अंकल उनकी चर्चा करते हुए, उसी कालखंड में पहुँच जाते। मैंने ग़ौर किया, ऐसे समय में उनके चेहरे पर अनूठी आभा उभर आती। वे साक्षी भाव से सब बताते जाते। जाने कितनी ही बार हम मिले, कितनी ही बार उनको अतीत को जीते, आज़ादी से जुड़े हर बिंदु पर ठिठकते अनुभव किया। उस पल उन्हें टोकना, कोई जिज्ञासा ज़ाहिर करना अपराध-सा लगता। 

अपनी यादों के फूल चुनती हुई उनकी यादों के उपवन में जाना और घूमकर लौटते हुए फिर एक फूल चुन लेना कितना आह्लाद दे जाता है! वर्ष 2017 को ट्रस्ट के कार्यालय का उद्घाटन करने अंकल आए। हमारे ट्रस्ट के संरक्षक हरीश नवल भी आए थे। उन दोनों को पहले अपने कमरे में ही उन्हें बिठाया। अंकल ने विधिवत उद्घाटन किया। उस दिन हमने कार्यालय में कुछ कार्यक्रम भी रखे थे, अंकल ने उसमें भी अपनी उपस्थिति दर्ज़ की। इस तरह मेरे घर और ट्रस्ट के कार्यालय—दोनों ने उनका आशीर्वाद पा लिया। 

फिर एक ख़ूबसूरत दिन सामने आ गया। वर्ष 2018! अंकल का जन्मदिन। अरुण भाई साहब हर बार की तरह केक लेकर सपरिवार आशीर्वाद लेने आए। उनकी इच्छा थी, अंकल उनके बीच केक काटें, मगर अंकल ने केक फ़्रिज में यह कहकर रखवा दिया कि बिटिया आने वाली है, तभी काटूँगा। इन बातों से बेख़बर मैं शाम को पहुँची। भैया-भाभी जा चुके थे। मेरे जाने के बाद बरामदे में कुर्सियाँ सजीं, टेबल लगा, फिर मेरे साथ अंकल ने केक काटा। मुझे अफ़सोस रहा, ज्ञात होता तो मैं पहले ही आ जाती। इतने शीतल और अपरिमेय स्नेह की कल्पना वही कर सकता है, जिसने पाया हो। उस शाम की यादगार तस्वीरें मुस्कुराती हैं। उसके बाद से तो नियम ही बन गया, अंकल के हर जन्मदिन में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करने और उनके परिवार एवं रहवासियों के साथ मिल-जुलकर ख़ुशियों की नदी को गति देने का। यों भी दस से पंद्रह दिन का फ़ासला हो जाए, मैं जा न पाऊँ या फोन न कर पाऊँ, अंकल का फोन आ जाता है। मेरी भी कोशिश रहती है, महीने में एक-दो बार वरिष्ठ आवास जाकर मिल ही लूँ। 

4 सितंबर 2018 ने भी स्मृति की गठरी में कुछ ख़ूबसूरत पल सँजो रखे हैं। 

उस दिन साहित्यायनन ट्रस्ट के वार्षिकोत्सव के अवसर पर ट्रस्ट की ओर से अंकल को ‘साहित्यायन समष्टि साधक सम्मान’ अर्पित किया, वह क्षण सचमुच आह्लाद से भरने वाला रहा। अरुण भाई साहब अंकल को लेकर आए। यह सम्मान उन विभूतियों को दिया जाता रहा जिन्होंने समाज के लिए किसी न किसी रूप में जीवन अर्पित कर दिया। इससे पूर्व डॉक्टर राधाकृष्ण सहाय, डॉक्टर लक्ष्मीकांत सहाय एवं ‘ड्रॉप डेड’ के संस्थापक आबिद सूरती जी को अर्पित किया गया था। इस वर्ष सुप्रसिद्ध साहित्यकार चित्रा मुद्गल जी के सामाजिक कार्यों के लिए उन्हें भी अर्पित किया जाना था, किन्तु वे दिल्ली से बाहर थीं। 96 वर्षीय युवा हांडा अंकल ने हिंदी भवन में खचाखच भरे हॉल में अतिथि श्रोताओं को संबोधित किया, यह उनके लिए भी यादगार शाम रही। पूरे कार्यक्रम में उनकी उपस्थिति बनी रही। भगवतधाम में रहती रजनी बेदी मासी ने भी कविता पाठ किया। धीरे-धीरे मुझे समझ आने लगा कि अंकल भगवतधाम की धड़कन हैं। वरिष्ठ आवास के किसी भी रहवासी को कोई भी समस्या हो, अंकल साथ खड़े नज़र आते हैं। डॉक्टर बुलाना, अस्पताल भेजने की व्यवस्था करना, हल्की-फुलकी तकलीफ़ में स्वयं दवा आदि उपलब्ध करवाना, ‘जीवन अनमोल’ में सभी रहवासियों के इलाज एवं जाँच आदि की फ़ीस में रियायत स्थायी रूप में लागू करवाना आदि-आदि कितने ही काम उनकी दिनचर्या में शामिल रहे हैं। 

अंकल के लिए अभिनंदन पत्र लिखने के क्रम में उनके सामाजिक कामों की झलकियाँ मिलीं, मस्तक श्रद्धा और सम्मान से नत हुआ। 1989 में आए दिन चेन-पर्स आदि की छीना-झपटी के उस दौर में अंकल ने दिल्ली पुलिस को सुझाव दिए और दिल्ली पुलिस की ओर से अंकल ‘नेबरहुड वाच क्राइम’ के हेड बनाए गए। चालीस युवाओं की टोली बनाकर अंकल ने इतनी मुस्तैदी से काम किया कि उनके नेतृत्वकाल में एक भी आपराधिक घटना नहीं घटी। उन्हें उनके कार्य के लिए दिल्ली पुलिस की ओर से सम्मानित भी किया गया। अंकल के कमरे की दीवार पर चिपका प्रशस्ति पत्र आज भी इसकी गवाही देता है। भाखड़ा नांगल डैम आज भी अंकल की सूझबूझ की कहानी सुनाता है। न्यू रोहतक रोड में जब सीवर पाइप लगाने का काम शुरू हुआ, अंकल ने वहाँ अपनी पहुँच और दूरदर्शिता का परिचय देते हुए प्लास्टिक का सीवर पाइप लगवाने की व्यवस्था दी। उनके काम और उनके स्वभाव का असर था कि जज, ज़िलाधिकारी से लेकर राज्यपाल तक उनकी बात सुनते-समझते थे। ऐसे कितने ही काम अंकल की सूझबूझ और सहयोग से सम्पन्न हुए। अपनी दो-दो कोठियों के हाथ से निकल जाने का उन्हें रत्ती भर भी मलाल नहीं हुआ। नियंता पर अटूट विश्वास रखने और पिता की सेवा को धर्म मानने वाले हांडा अंकल ने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कभी नकारात्मक विचार को घुसपैठ करने की अनुमति नहीं दी। उनका यही स्वभाव उनकी संतानों में भी नज़र आता है। पिता के प्रति समर्पित अंकल के पूरे परिवार, विशेषकर अरुण भाई साहब के पूरे परिवार को निकट से जानकर यह जाना-समझा कि वृद्धाश्रम में रहते सभी लोग संतान के सताए नहीं होते, कुछ अपनी मर्ज़ी से जीवन के अंतिम क्षण तक जनसेवा के विचार से भी आते हैं। 

हर रोज़ किसी न किसी रूप में जनसेवा करना उन्हें ताज़गी से भर देता है। उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक विडंबनाओं पर लेख भी लिखे, लोगों की सोई चेतना को झकझोरने का भी काम किया। किताबों से ऐसी मैत्री कि अब भी पढ़ते हैं। मेरी कई किताबें पढ़ डालीं और उन पर अपनी प्रतिक्रिया भी देते रहे। कई स्कूलों में मुख्य अतिथि के रूप में जाते रहे। बेटियों के सामूहिक विवाह के आयोजन में सम्मानित अतिथि के रूप में जाते रहे। पिछले डेढ़ दशक से अब तक वे भगवतधाम के दूसरे रहवासी और सबसे अधिक उम्र के होने के कारण सबके अभिभावक होने का दायित्व ख़ुशी-ख़ुशी निभाते जा रहे हैं। जो एक बार मिलता है, उनका होकर रह जाता है। 

पलों को ओढ़ती-बिछाती आगे बढ़ूँ तो दिखते हैं 2020 के वे अनूठे पल, जब अंकल को समर्पित किशोर उपन्यास ‘अद्भुत संन्यासी’ प्रकाशित होकर आया तो हमने उनके एवं अन्य रहवासियों के हाथों विमोचन करवाया, बिना किसी कोलाहल के। मेरे निवेदन पर अरुण भाई साहब भी समय निकालकर आए और इस अवसर पर साथ रहे। अब यह संयोग था कि उस समय अंकल से मिलने कई लोग आ गए तो वे भी उस उत्सव का हिस्सा बन गए। यों भी लॉक डाउन के बाद मिली छूट ने उनसे मिलने-जुलने वालों की संख्या बढ़ा दी थी। अंकल भी बिना आराम किए सबके स्वागत में जुटे रहते। उनके कमरे की कलात्मक व्यवस्था देखकर कोई भी भूल सकता है कि वह वृद्धाश्रम के एक कमरे में बैठा है। चित्रकला के प्रति उनका रुझान और बाग़वानी का शौक़ उनके द्वारा पेंटिंग से सुसज्जित बोतलों में लगे मनी प्लांट आदि बेलों तथा गमलों में तरह-तरह के फूल-पत्तियों, औषधीय पौधों से आबाद उस उद्यान से स्पष्ट होता है जहाँ अपने रहवासियों के साथ अंकल जाड़े की धूप सेंकते हैं। 

पिछले बिंदु पर लौटूँ तो उस समय पुस्तक खोलते ही अंकल की मुस्कुराती तस्वीर ने उन्हें चौंकाया, अतिथियों से कहने लगे, “अरे, यह इस बच्ची का प्यार है वरना मैं कौन-सा तोप हूँ जितना ये मुझे इतना मान दे रही है।” उनकी यही विनम्रता और निष्काम सेवा भावना उन्हें भीड़ से अलग करती हैं। 
 

यों तो अंकल से मिलने के लिए मुझ पर समय की कोई पाबंदी नहीं है, मगर जब भी जाऊँ तो शाम गहराते ही उनकी रट शुरू हो जाती है, “बेटा, घर जाओ। समय ठीक नहीं है।” पहले मेरे हज़ार मना करने पर भी नीचे उतरकर मेरे साथ तब तक खड़े रहते जब तक मैं कोई सवारी ले न लूँ। फिर चालक को ताक़ीद करते, “ठीक से ले जाना।” फिर मुझे—“घर पहुँचकर फ़ोन कर देना।” यदि मैं वापसी में कुछ ख़रीदारी करने लगती और देर हो जाती तो उनका फ़ोन आ जाता, “अब तक तुम घर नहीं पहुँची।” मैं देर तक उनकी उस चिंता में घुले वात्सल्य और आत्मीयता से सरोबार रहती। यह प्रक्रिया आज भी ज़ारी है। बस, अब उनके नीचे आने पर मैंने रोक लगा दी है, तो केयर टेकर को साथ भेजते हैं। 

स्मृति में सँजोए मुस्कुराते पलों में वर्ष 2021 के वे पल भी तो हैं जब कोरोना की मार के बीच मिली राहत और उस अवसर पर अपने 50वें जन्मदिन को अंकल एवं अन्य रहवासियों के साथ मनाने के साथ ही ‘स्मित जीवन’ की ओर से अपने पिता की स्मृति में ‘रामकृष्ण जीवट एवं जिजीविषा युवा सम्मान’ आरंभ किया। यह सम्मान मेरे एक संघर्षशील किन्तु जीवट दृष्टिबाधित बैगा छात्र ‘उमाशंकर’ को ‘अपने अति पिछड़े गाँव में शिक्षा एवं अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए’ प्रदान किया गया। वरिष्ठ आवास के हॉल में आयोजित इस कार्यक्रम में भी व्यवस्था का दायित्व अंकल ने अपने ऊपर ले रखा था। मेरे पहुँचने से पहले एक हाथ की दूरी पर कुर्सियाँ गोलाकार में लगी थीं। कुछ रहवासी आ चुके थे। सम्मान राशि अंकल के कर-कमलों से प्रदान की गई। उन्होंने अपनी ओर से भी उस युवा को आशीर्वादस्वरूप राशि भेंट की। सम्मान चिह्न हमारे परिवार के वरिष्ठ दीदी-जीजाजी ने प्रदान किया। अंकल ने शुभकामना संदेश दिए। अंकल एवं उपस्थित अन्य सम्मानीय जन के साथ केक काटने की रस्म अदा हुई। अंकल तब तक आराम करने को तैयार न हुए, जब तक वहाँ उपस्थित हर एक रहवासी को सादर नाश्ता-चाय करवा न दिया और फिर शेष को उनके कमरे में भिजवा न दिया। यह तो एक बानगी है। वास्तव में वरिष्ठ आवास के भीतर आयोजित प्रायः हर आयोजन में अंकल जिस तरह सक्रिय रहते हैं और सबकी बेहतरी का ध्यान रखते हैं, वह स्वभाव विरल है। अंकल से मिलने के बाद, मेरी दिवाली और होली पहले भगवतधाम में ही मनती है। उनके साथ जीवन को रंग और उजास से भरते हुए हर एक के लिए ख़ुशी का गुलाल उड़ाना, हर आँखों में नूर बसाना अलग ही आनंद देता है। उनकी अनुपस्थिति में भगवतधाम का नूर खो गया-सा लगता है। सिर्फ़ मुझे ही नहीं, हर एक को। वे एक ऐसे फूल हैं जिनके बिना माला का सौंदर्य प्रकट नहीं होता। कितने-कितने ही तो ख़ास पल हैं, जो उनके साथ बीते और समय की स्मृति का नायाब हिस्सा हो गए। यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि उनके साथ बीता हर पल अपने भीतर हमारे सम्बन्ध का अनूठा सौंदर्य समाहित कर लेता है। 

स्मृति में गूँथे पलों की सुंदर माला में से एक फूल फिर मुस्कुराता है— 2022 ई. अंकल का सौंवाँ जन्मदिन। हम सब (परिवार) मिलकर ख़ूब धूम मचाना चाहते थे, मगर अंकल राज़ी नहीं हुए। न्यूयॉर्क, मुंबई, पटना, दिल्ली, उत्तर प्रदेश आदि-आदि जगहों से सारे रिश्तेदार उत्साह से भरे इकट्ठे हुए, वे अंकल की इच्छा के आगे नत हो गए। भगवतधाम के व्यवस्थापकों की ओर से भोज का आयोजन हुआ। दिन भर उनके चाहनेवालों का आना-जाना लगा रहा। परिवार वालों ने उनके स्वागत के लिए सुंदर व्यवस्था करके रखी। भीड़ थोड़ी कम हुई तब हमने कुछ पल संग-संग बिताए और मस्ती भरी तस्वीरें कैमरे में क़ैद हुईं। 

अंकल वास्तव में चलता-फिरता समाज हैं। उनकी व्याप्ति कहाँ-कहाँ तक है, नापना कठिन है। ग़रीब से ग़रीब, अमीर से अमीर–हर जाति-धर्म, हर व्यवसाय के लोग न सिर्फ़ उनसे जुड़े हैं बल्कि उन्हें अपने जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं और अंकल का साथ पाकर स्वयं को धन्य मानते हैं। अंकल के स्वभाव एवं व्यवहार में ऐसी चुम्बकीय शक्ति है कि उनसे एक बार मिलने वाला बार-बार खिंचा चला आता है। ऐसे व्यक्तित्व को किसी एक घर-परिवार या रक्त सम्बन्ध के सीमित दायरे में रोके रखना सम्भव भी नहीं है। 

भगवतधाम में रहकर सबकी सेवा, सबका सहयोग करने का उनका जज़्बा हमें बार-बार निःशब्द करता रहा है। अपनी शारीरिक तकलीफ़ छुपा जाना उनकी पहली और अपनी वजह से किसी को ज़रा भी परेशान न होने देना उनकी दूसरी और अंतिम बुरी आदत है, इसलिए अरुण भाई साहब को उनके स्वास्थ्य को लेकर अपेक्षाकृत अधिक सजग रहना पड़ता है। उनकी सजगता और पिता के प्रति सेवा भाव का ही चमत्कार है कि हांडा अंकल पिछले दो-तीन वर्षों में वे दो-तीन बार मौत के मुँह से बाहर आए। आज भी उन्हें छड़ी की आवश्यकता नहीं। उनके मुखमंडल से अनोखी आभा विकीरित होती रहती है। इस निष्काम कर्मयोगी को देखकर विश्वास गहराता है कि ईश्वर सद्कर्मों में बसा है और हर सदी में अपने दिव्य अंश को धरती पर अवतरित करता रहता है ताकि मानवता की जीवंतता के प्रति हम आम जन की आस्था बनी रहे। 

पिछले वर्ष भी हमने अंकल का 101वाँ जन्मदिन उनके साथ, उनके आशीष की छाँव तले बिताया और अब 3 सितंबर 2024 वह सुखद समय आने वाला है जब वे 102 वर्ष पूर्ण कर, 103वें वर्ष में प्रवेश करेंगे। कर्मयोगी सदीनायक योगवीर हांडा अंकल यों ही सक्रिय रहें, जीवन को ऊर्जा से भरते रहें और अपने वैश्विक परिवार को जोड़कर रखते हुए हमारे बीच मानवता की मिसालस्वरूप विद्यमान रहें, यही प्रार्थना, यही दुआ . . .। 

आमीन! 

सब रब दी मर्ज़ी है . . . वही तार जोड़ता रहता है (योगवीर हांडा)

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