बापू और मैं – 002 : पुण्यतिथि
कथा साहित्य | कहानी डॉ. आरती स्मित15 Apr 2022 (अंक: 203, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
गोरखा रह-रहकर ज़मीन पर लाठी ठकठकाता, मरी-सी फूँक मारकर सीटी बजाता चलता है, ऐसी आवाज़ कि पिल्ला भी न डरे। चोर-उचक्के की बात ही क्या! मगर हाँ, थककर सोए लोगों की नींद उचटाने के लिए काफ़ी है।
’जब गली के लोगों को ही जागना है तो भला उसे क्यों रखा है? कभी बारह बजे आता है तो कभी एक तो कभी दो . . . ये कैसी चौकीदारी हुई भला!’ नींद उचट जाने से भुनभुनाती हुई मैं फिर सोने की कोशिश करने लगी। ’गहरी रात में लाठी की ठकठक कानों को तेज़ लगती है। दिन-भर घर-ऑफिस में रोबोट बने रहो, रात को ये जनाब सोने नहीं देंगे। कुत्तों की फ़ौज भी यहीं जुटती हैं मीटिंग करने। ओह!’
करवट बदलती हुई उठी। पास रखी बोतल से पानी की दो घूँट भरी और तकिया सिर के नीचे से निकाल, कान के ऊपर रखकर सोने की कोशिश करने लगी। आँखें थकान से बोझिल थीं, मगर उचटी नींद रूठी रही।
ठक-ठक-ठक की बड़ी हल्की आवाज़ के साथ तेज़ गति से किसी के क़दमों की आहट ने अधजगे कानों को चौकन्ना कर दिया। ‘गोरखा अभी-अभी गया है। वह तो हो नहीं सकता। फिर इस तरह लाठी से ज़मीन को छुलाते भर इस चाल में चलने वाला कौन हो सकता है? क्या करूँ? बाहर निकलकर देखूँ? . . . दो बज रहे हैं।’ मोबाइल पर समय देखकर कुछ क्षण सोच में डूबी रही। ‘माघ की ठंड क़हर बरसा रही है। ऐसे में रजाई से निकलकर सीधे बालकोनी में जाना . . . कुत्ते भूँक रहे, मगर वैसे नहीं जैसे गली में किसी अजनबी या चोर-उचक्के को देखकर भौंकते हैं। अजीब संयोग है, जब जब सुधीर घर पर नहीं होते, तभी कुछ न कुछ विचित्र होता है। उस रात भी ड्यूटी पर थे जब . . . ’ सोच की लगाम कस, मैंने फिर समय देखा और अचानक उछल पड़ी। ‘मैं तो भूल ही गई थी।’
झटपट रजाई फेंक, बिस्तर से कूदी और दरवाज़ा खोल, बाहर बालकोनी में निकल आई। मेरा अनुमान सही निकला। दो फलाँग की दूरी पर घुटने तक नंगे पाँव के ऊपर धोती का कोर दिखा। दरवाज़ा बंद कर, धड़धड़ाती हुई नीचे उतर आई। चेहरे पर आनंद बरस रहा था। बापू प्यार से दरवाज़े की तरफ़ निहार रहे थे।
“बापू! आज तो आप पूरे दिन व्यस्त रहे होंगे!” उनके पाँव छूते हुए मैं पूछ बैठी।
“मैं तो मूक दर्शक था। . . . तमाशाई . . . हर बार की तरह!” पीठ पर प्यार और आशीष की धप लगाते हुए वे बोले और खिलखिलाकर हँस पड़े। “तुझे पता है, इस बार कुछ ज़्यादा ख़ातिर हुई!”
“??? ”
“कहीं मेरी प्रतिमा तोड़ी गई, कहीं जूते की माला चढ़ाई गई . . . अगर दोनों पाँव के जूते होंगे तो मेरे बहाने किसी नंगे पैर को ठंड से बचा लेंगे और प्रतिमा का तो मैं शुरू से विरोधी हूँ . . . तुझे तो पता ही है।”
“मगर बापू!” लगा, मैं जड़ होती जा रही हूँ। ‘आज के दिन अपने ही देश में . . . ’
“क्या सोचने लगी? और तेरे चेहरे से हवाइयाँ क्यों उड़ने लगीं? अच्छी भली तो आई थी!”
“नहीं, कुछ नहीं! अंदर आइए न बापू!”
“चल, चलें। तेरी मुराद पूरी करने का समय है।”
“???”
“चल! दरवाज़ा बंद कर! यह मेरी कुटिया नहीं जहाँ चोर बेचारा पछतावे में डूबा रहे कि कहाँ आ गए!” बापू फिर ज़ोर से हँसे।
उनकी आँखों में साबरमती आश्रम का दृश्य तैरता दिखा तो मुझसे भी चुप रहा न गया, “आप जैसा मकान मालिक भी कहाँ होगा जो चोर को डाँटने के बजाय पूछे कि ‘तुमने नाश्ता किया?’ और फिर रसोई के इंचार्ज को ही डाँट दें कि चोर है तो क्या हुआ, उसे नाश्ता क्यों नहीं कराया! आपके स्नेह को काश हर कोई समझ पाता! . . . वैसे बापू सेवाग्राम में आपकी कुटिया तो कहने भर की थी। आपने मात्र चटाई भर ज़मीन में ख़ुद को समेट लिया था। खाना-पीना, लिखना-पढ़ना, चरखा चलाना, देश-विदेश से आए लोगों से मिलना-जुलना, राष्ट्रहित को लेकर चिंतन-विमर्श— सब वहीं, उतनी ही जगह में कैसे कर लेते थे आप?”
“चटाई भी हर समय क्यों चाहिए? मुझे तो धरती माँ का सीधा स्पर्श अधिक सुख देता था। माँ की गोद से बढ़िया बिछौना क्या! और जगह तो मन-मस्तिष्क में होनी चाहिए। सारे काम पूरे हो जाते हैं। . . . दाएँ मुड़ना है।”
“हम किधर जा रहे हैं?”
“तुझे आज बिड़ला भवन में गुपचुप आँसू ढुलकाते देखा था। तुम कुछ देर वहाँ एकांत में समय बिताना चाहती थी। तुम प्रार्थना सभा में मौज़ूद होकर भी नहीं थी . . .”
“उस समय मेरे कानों को बे-आवाज़ गोलियों की तेज़ विस्फोटक आवाज़ सुनाई दे रही थी। आपका लड़खड़ाकर गिरना, मुस्कुराते होंठों पर ‘हे राम’ और लोगों की चीख-पुकार . . . सब एक साथ गड्डमड्ड हो रहा था। दृष्टि आप पर टिकी थी जब आपको भीतर कमरे में ले जाया जा रहा था। मैं भी साथ होना चाह रही थी, हो न सकी। मुख्य द्वार बंद करने का समय हो चुका था। मैं सुरक्षा गार्ड को समझा नहीं पाई कि मैं किस क्षण को जी रही हूँ!”
“हम्म!”
“बापू! क्या आपको पहले से पता था कि आपकी मृत्यु गोली खाकर होने वाली है? आपकी इच्छा भी यही थी?”
. . .
“फिर तो यह इच्छा-मृत्यु हुई न! गोली चलानेवाला हाथ कोई हो। आपने कलकत्ते में भी गोली खाकर मरने को अपना सौभाग्य माना था। दिल्ली में भी बम के हमले से बचने पर भी आपने जीवन को लेकर ख़ुशी ज़ाहिर नहीं की थी और लेडी माउंटबेटन को भी यही जवाब दिया कि गोली खाकर मरने पर ख़ुद को ख़ुशनसीब समझेंगे। ऐसी विचित्र इच्छा का कारण? . . . क्या अमरता के लिए?”
बापू के चलते क़दम रुक गए। उन्होंने ठिठककर मेरी तरफ़ देखा, सिर पर हाथ फेरा और लंबी साँस छोड़ते हुए, क़दम आगे बढ़ा दिए।
“बापू! मैंने सुना है, सच्चे मन की प्रार्थना सुनी जाती है। क्या आपके संदर्भ में भी ऐसा माना जाए? तभी तो आपने अपने हंता को मृत्यु-दंड से बचाने के लिए भी पहले से कह रखा था। बम फेंकने वाले युवक मोहन के ख़िलाफ़ भी आपने शिकायत दर्ज़ नहीं करवाई थी, जबकि वह रंगे हाथों पकड़ा गया था और उसने क़ुबूल भी किया था! क्या समझूँ, क्षमा भावना की पराकाष्ठा?”
“कई सवाल घेरे हैं तुझे! क्यों उलझी है अतीत में?”
“बापू! मेरे लिए आप व्यक्ति नहीं, एक विचार हैं और विचार कभी मरते नहीं। . . . और आप तो तीन दिन पहले से संकेत देने लगे थे। प्रार्थना सभा में जाते-जाते भी . . .! सोचती हूँ तो आध्यात्मिक सीढ़ियाँ दिखाई देने लगती हैं। फिर मन कुलबुलाता है प्रश्नों से कि सत्य, अहिंसा, प्रेम, समता और द्वैत में अद्वैत देख पाने वाले गाँधी क्या सचमुच जीवन त्यागने को व्यग्र थे?”
बापू कुछ क्षण मुझे देखते रहे। आँखें नम! ”क्या करता इस देह का? जिसे तुम जीना कहती हो, उस जीवन को बचाकर क्या करता जब अहिंसा मर चुकी; सत्याग्रह की लाठी टूट चुकी; अमानवीयता का नंगा नाच देख-देखकर तो रोज़ ही मर रहा था। मेरे सपनों का स्वराज तो पहले ही मिट चुका था। युवाओं की ऊर्जा देश की ताक़त बनने के बजाय झुलसाने के काम लगा दी गई। इस बुड्ढे की कौन सुनता! अपने अंतिम उपवास में मैंने उसे पा लिया, जब पा लिया तो जान भी गया कि देश में धधकी आग में बार-बार जलने-झुलसने और मरनेवाला मैं अब शांत जीवन के क़रीब हूँ। बुद्ध ने सत्य की खोज की। मैंने सत्य के प्रयोग किए। संसार के बीच रहकर संसार को समझाना चाहता था, दिखाना चाहता था सत्य की सुंदरता! मगर जब बुद्ध को नास्तिक कहने वाली यह धरती भला सत्य के मेरे व्यावहारिक प्रयोग को कैसे मानती! गोली तो खानी ही थी। मैं शुक्रगुज़ार हूँ ईश्वर का।”
वे आगे बढ़े, फिर ठिठककर बोले, “आओ भीतर उसी कमरे में चलें जहाँ मेरी देह को अंतिम बार लिटाया गया था। और शहद की बूँदें टपकाई गई थीं।”
मैंने सिर उठाकर देखा तो बिड़ला हाउस का बोर्ड चमकता नज़र आया।
♦ ♦ ♦
“मनु बेन! . . . आभा बेन आप भी!”
“मैं भी हूँ।” पीछे से मधुर आवाज़ आई तो मैं झटके से मुड़ी। बा मुस्कुरा रही थीं। झट पाँव छूने को झुकी।
“स्वदेशी बनी रहो।”
“अब क्या स्वदेशी, क्या विदेशी कस्तूरी! देख नहीं रही . . .”
“देख रही हूँ, स्वाधीन भारत को उम्र से पहले बुढ़ापा आ गया। तनकर खड़े होने की भीतरी ताक़त निचुड़-सी गई है। आने वाली पीढ़ी एक बीमार, कराहते बुज़ुर्ग को कैसे सँभालेगी और उसकी भीतरी टूटन से ख़ुद को कैसे बचाएगी, यही चिंता खाए जा रही है।”
“सत्य-अहिंसा, दया-करुणा, प्रेम और भाईचारे की मिसाल यह देश जब हिंसा को परम धर्म मान ले, जब आणविक शक्ति आत्मशक्ति पर विजय पा ले, तब . . .” बापू अचानक चुप होकर मुख्य द्वार की तरफ़ देखने लगे। “प्यारेलाल! मैं तुमसे कहा करता था न, ’मैं जलती चिता पर बैठा हूँ।’ तुम्हें लगता था, बुड्ढा सठिया गया है। देख लो! लगातार झुलस रहा हूँ। हर रोज़ एक नई चिता के हवाले कर दिया जा रहा हूँ। हर रोज़ एक गोली सीने के पार उतरती है और हर रोज़ बम से मेरे चीथड़े उड़ते हैं। सिंहासन पर रोबोट बैठा है और रिमोट किसी और के हाथ है। यह खेल पुराना है, बस पात्र और सूत्रधार की लिबास बदली है . . .”
“बापू! एक बात अच्छी हुई। किसान सत्याग्रह ने विजय पाई। वे घर लौट चुके हैं। मैंने ख़ुद देखा था, आपका चश्मा हर एक नाक पर टिका था।”
“तुझे भोली कहूँ या मूर्ख! क्या तुझे सचमुच लगता है सत्याग्रह सफल हुआ? तुझे उनके बीच छद्मवेशी नहीं दिखा? विभीषण भी नहीं दिखा? अगर सत्याग्रहियों का आत्मबल इतना कच्चा हो कि वे अपने शहीदों की शहादत भूला दें और और . . .”
“ओह! बस भी कीजिए। आप तो बच्ची के पीछे ही पड़ गए।”
“ये अब बच्ची नहीं है कस्तूरी। इसने अपनी इच्छा से काँटों की राह चुनी है तो लहूलुहान होगी ही। मिलने वाले ज़ख्मों से भाग नहीं सकती। क्या मैं भूल जाऊँ कि मुझे जिन्होंने कभी नहीं देखा, वे भी मेरे आह्वान पर अपना सर्वस्व लुटाने आंदोलन में शामिल हो गए। आंदोलन की ताक़त वे आम लोग होते हैं। पेट भर खाए, अघाए लोग नहीं। इस आंदोलन में भी आम किसान और उनकी स्त्रियाँ शहीद हुए। तब और अब . . . किसी भी सत्याग्रह में आम जनता सिर्फ़ खोती है,” बापू की आवाज़ में दर्द उभर आया।
“अहिंसा का पाठ पढ़ाते हुए भूल गया था कि बिना अंत:चेतना जाग्रत हुए मानव सत्य पर टिका नहीं रह सकता। और जो सत्य से भटक गया, वह भला कैसा सत्याग्रही! मैं उपवास के द्वारा अपने शरीर को इस यज्ञ में आहूत कर सकता था, मैंने किया। 46 से देश का जो चेहरा बदला, वह मेरे सपनों का भारत न था, न है। भारत मुट्ठी भर आक़ाओं में नहीं, करोड़ों साँसों में जीता है। कभी जाति, कभी धर्म, कभी क्षेत्र तो कभी वर्ग के नाम पर सुलगती आग देह को ही नहीं मन-बुद्धि को राख कर रही है। आश्चर्य! किसी को दिखता क्यों नहीं!”
“दिखता है बापू! जिन्हें दिखता है, उनकी आँखें उनकी नहीं रह पातीं।”
“गांधारियों को पट्टी उतारनी पड़ेगी। धृतराष्ट्रों की बढ़ती संख्या भयावह दौर का संकेत दे रही है। मगर इतना पक्का है कि गाँधी को मिटाने की कोशिश में सदी बीत गई। नई सदी ने भी दो पारी खेल लिए, फिर भी ये हैं कि अपना क़द बढ़ाए जा रहे हैं।”
सबका ध्यान उस ओर चला गया, जिधर से आवाज़ आई थी।
“इसे पहचानती हो?” बापू मुस्कुराए।
“नहीं।”
“नाम तो सुना ही होगा। इक्कीसवीं सदी का नया भगवान!” उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बापू खिलखिलाए। वह पतला-दुबला युवक, उम्र यही कोई पैंतीस से चालीस के बीच सिर झुकाए ज़मीन ताकता रहा।
“अरे, इसकी बैरेटा पिस्तौल को तो देखा होगा?” मैं भौचक्क-सी बापू का चेहरा निहारने लगी।
“बैरेटा पिस्तौल नहीं जानती? इक्कीसवीं सदी में हो। चारों और हथियारों का खेल देखती-सुनती हो; गुनती-धुनती हो। . . . वह खिलौना नहीं, सचमुच का पिस्तौल था . . . खिलौने जैसा। मगर था करामाती। क्या कहते हैं उसे . . . स्वचालित! ट्रिगर दबा नहीं कि काम हो गया। उसी ने तो मुझपर उपकार किया।”
बापू मज़ाकिया मूड में आ गए मगर मेरे चेहरे पर तैरती वितृष्णा भाँपते हुए बोले, “न! न! इससे नफ़रत मत करो। राष्ट्रहित के नाम पर इसके और इस जैसे युवाओं के दिमाग़ में जो बात लंबे समय से भरी गई, वह तो उसकी झाँकी भर थी। तुम यह देखो न! 1916 से सत्याग्रह की लड़ाई छेड़ने वाले इस गाँधी के देश में हिंसा की चीज़ें किस तरह बिक रही थीं। युवाओं को बरगलाया जाता रहा कि बिना हिंसक क़दम के स्वाधीनता नहीं मिलेगी। युवा लहू गर्म होता है। उनका ध्येय ऊँचा था। पहले भी मैंने हिंसा का विरोध किया, अब भी करता हूँ, मगर किसी से नफ़रत नहीं कर सकता। हिंसा से आज़ादी की चाह रखने वालों को अब भी समझ नहीं आ रहा कि क्या हासिल हुआ? . . . तुम लोग जिसे आज़ाद मुल्क कहते हो, क्या वास्तव में आज़ाद है? ग़रीब और ग़रीब हो रहे। बेरोज़गारी, महँगाई, आत्महत्याएँ, जघन्य अपराध, कौमी दंगे, पूँजी की सत्ता में दख़ल, भाई-भतीजावाद और धर्म के नाम पर भारतीय संस्कृति के साथ छेड़छाड़, शिक्षा का दुरुपयोग . . . इन पचहत्तर वर्षों में क्या ऐसा नहीं हुआ जो किसी भी देश को रुग्ण बना दे।”
सब मौन थे। एक सूई भी गिरे तो आवाज़ हो। बापू की तड़प चेहरे पर उभरती-मिटती रही। बा अब ख़ामोश न रह सकीं। “जिन किसान-मज़दूर भाइयों, जिन त्याज्य और शोषित भाइयों की स्थिति सुधारने के लिए तुमने परिवार नातेदार, समाज सबसे टक्कर लिया; साबरमती से लेकर से गाँव तक भटकते रहे . . . काम करते और मुट्ठी भर साथियों से करवाते रहे। क्या ही अच्छा सिला मिला तुम्हें! भीमराव के कहने पर दक्षिण भारत में उनके सामाजिक उत्थान के लिए तुम दिन-रात एक किए रहे। सुभाष को बेटे से कम न समझा। क्या बाप-बेटे में मतभेद नहीं होता! सुभाष ने कभी सम्मान कम नहीं किया मगर ये कृतघ्न लोग! कभी सुभाष तो कभी भीमराव के नाम पर मतभेद उपजाते हैं। और कितनों को पता है, तुमने न सिर्फ़ भगत सिंह बल्कि उन सबके लिए निजी तौर पर सिफ़ारिश की थी। जो लोग तुम्हें राजनीतिक खिलाड़ी कहते हैं, वे इतिहास का पन्ना क्यों नहीं पलटते?”
“हाहहाहा!” बापू ज़ोर से हँस पड़े। “इतिहास! कस्तूरी, किस इतिहास की बात कर रही। अव्वल तो मैं राजनीतिक दख़ल देना बहुत पहले छोड़ चुका था और शुरू से जिस समतामूलक समाज के निर्माण में लगा था, उसका पता तो उस समय के लोगों को भी नहीं। . . . और अभी तो एक तरफ़ विज्ञान का विकास चरम पर है दूसरी तरफ़, इतिहास में दर्ज़ सत्य को ख़रोंच-खरोचकर या तो मिटाया जा रहा है या उसके ऊपर झूठ का इतना सुंदर मुलम्मा चढ़ाया जा रहा है कि इतिहास रह कहाँ जाएगा! जलियाँवाला बाग़ से लेकर साबरमती तक अब पर्यटन स्थल बन रहे। शोधकर्ता इतिहासकार वहाँ क्या पाएँगे? आनेवाली संतति वहाँ क्या पाएगी? ऐसी कितनी जगहें हैं जिनके मूलरूप बदल दिए गए हैं। आत्मदीप जलाने की चर्चा कहीं सुनाई नहीं पड़ती। घंटे और अजान की ध्वनि पर राजनीति हो रही। बुद्ध, ईसा, साईं चूके, मैं तो साधारण प्रयोगधर्मी था। अब तो सब इस नए भगवान के हाथ में है। यही रोके तो रोके।” कहकर बापू ने उस युवक के चेहरे पर नज़र गड़ा दी।
“मैं जल रहा हूँ बापू! अपनी ही आग में जल रहा हूँ। कोई उपाय नहीं सूझता। कैसे समझाऊँ उन्हें कि वे उसी ग़लती को न दुहराएँ जो मैंने किए।”
“तुम ही कर सकोगे। प्रेम और अमन में बड़ी शक्ति है। तुम्हारे भीतर करुणा जग रही है। इसका अर्थ है, ईश्वरीय प्रकाश तुम्हारे भीतर फूट रहा है। पहले मैं कहता था, ईश्वर ही सत्य है। फिर मैंने माना, सत्य ही ईश्वर है। आज भी यही मानता हूँ। जिस दिन प्रेम और करुणा से भर जाओगे तब शायद फिर वापस लौटो यहीं इसी धरती पर . . . और समझा सको कि ग्लोब पर स्याही से खिंची गई लकीर हो या धरती पर कँटीले तारों से, सब बेमानी है। विश्व सीखे उन पहाड़ियों से, उन नदियों से उन सागरों-महासागरों से जो कभी भेद नहीं करते। एक पहाड़ी शृंखला सिक्किम से चीन तक बढ़ चली। देखो! कितनी एकता है उन पहाड़ियों में। देशों ने पहरे बिठा रखे। रावी नफ़रत की शिकार हो गई। चाँदनी चौक में घूमो या अनारकली बाज़ार में . . . भेद कर पाओगे? सब अपने लगेंगे तुम्हें। विश्व का ऐसा कोई कोना नहीं, जो प्रेम से घृणा मिटा न दे।”
“बापू! माफ़ कीजिए, मगर मैं सहमत नहीं। अगर ऐसा होता तो मोहन को क्षमादान मिलने के बाद ये आप पर गोली न चलाते,” मैं सुलगती हुई-सी बीच में बोल पड़ी।
“संसार जिसे आतंकवाद कहता है, वह है क्या? सोचो! ज़िहाद के नाम पर हो या राष्ट्र भक्ति के नाम पर, जब दिमाग़ में अधिक से अधिक बारूद भरा जाता है तो व्यक्ति व्यक्ति कहाँ रहता है, मानव बम बन जाता है जिसे अपने जीवन के प्रति भी कोई लगाव नहीं रहता। तुमने सेना का प्रशिक्षण देखा है? दुश्मन देखो और गोली बरसा दो। एक अंगुल ज़मीन की लड़ाई में अपनी देह के चीथड़े बन जाने की भी परवाह नहीं करते। हमारे क्रांतिकारी शहीद भी इसके प्रमाण हैं। लक्ष्य आक़ा तय करते हैं, शेष जो हैं वे प्रशिक्षित मस्तिष्क-मात्र हैं। तुम आए दिन सेनाओं के साथ घटित दुर्घटनाएँ भी सुनती हो और आतंकवादियों से जुड़ी घटनाएँ भी, क्या उन दोनों के आक़ाओं की सेहत पर कोई असर होता है? मैंने मानव-प्रेम की बेल लगानी चाही। इसे नफ़रत का प्रशिक्षण मिला था, ऐसा नहीं कहूँगा। मगर राष्ट्र प्रेम के नाम पर इसे मानव मात्र से प्रेम का प्रशिक्षण नहीं मिला था। बस यही! आज भी यही हो रहा है। मनुष्य अपने भीतर सत्य उद्घाटित करना भूल गया है। बुद्ध ने कहा था, “अप्प दीपो भव!” मगर मनुष्य आत्मदीप बनने के बदले मंदिर के भगवानों में शक्ति ढूँढ़ रहा है। वह ईश्वर को नहीं, अवतारवाद को बढ़ावा देने में ख़ुद को भूलता जा रहा है। . . . इसे दोष न दो।”
बापू ने उसकी नम आँखों को बरसने से रोक लिया। वे उसके कंधे थपथपाकर सांत्वना देते रहे। उनकी आँखों में स्नेह, चेहरे पर मुस्कान खिली थी। वे उसकी और मुख़ातिब हुए, “तुम अपनी जगह सही थे। उस समय के हालात ऐसे थे कि कोई मुझे समझ पाने की स्थिति में नहीं था। मैं स्वयं हैरान था। जल रहा था। क्या लगता था लोगों को, मैं उस अराजक स्थिति में शांत था? संतुष्ट था? क्या बँटवारा मेरी रज़ामंदी से हुआ था? क्या राजनीति में मेरी दख़ल थी? बंद कमरे में स्याही से लकीर खींचकर बँटवारा!!! नेहरू अकेला नहीं था, पटेल भी साथ था। और ये 370 की आग जो लहक रही है, इसके पीछे का सच आज भी छिपाया जा रहा है। ख़ैर, मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गया! इस लड़की को तुम लोगों से मिलाने लाया हूँ। ‘वाद’ नहीं मानती है। सत्य की राह चुनी है। अपने हिस्से की धूप, हवा, पानी, आसमान और अपनी नन्ही अँजुरी में प्रेम लिए फिरती है तो लोग इसे भी संशय की दृष्टि से देखते है। सत्यपंथी की राह आसान नहीं हो सकती! मगर ज़रा ठसक तो देख इसकी।” बापू खिलखिलाए। उनकी बोली में बाल-सुलभ चंचलता और नेत्र से प्रेम झड़ रहा था। मनु बेन आगे बढ़ी और मुझे गले से लगा लिया।
“अपना ख़्याल रखना। डिगना मत। झुकना मत,” कहती हुई बा ने माथा चूम लिया।
“नहीं झुकेगी। लाठी की ज़रूरत तो हम मर्दों को पड़ती है। तुम्हें झुका पाई ब्रितानी सरकार? फिर तुम्हें और मुझे साथ लेकर चलनेवाला भला कैसे झुक जाएगा? असंभव!” कहते हुए बापू मेरी तरफ़ थोड़ा झुककर फुसफुसाए, “मेरे कहे का आज़ाद देश के आक़ाओं ने मान नहीं रखा, मगर तुम्हारे पैर ज़मीन टिके हैं। तुम मेरे कहे का मान रखना और जाते-जाते एक चुटकी सच नई पौध को सौंप जाना।” और अचानक आवाज़ में मसखरी शामिल हो गई, “वरना सदियों यही पढ़ाया, सुनाया, सिखाया जाएगा कि नए भगवान ने अधम गाँधी को मारकर हिंदू राष्ट्र को बचा लिया। हाहाहा . . .।” फिर गंभीरता छलकी, “सच का दीया जलता रहे, यह दायित्व उठा पाओगी न?”
“आप कंधे की मज़बूती टटोलकर ही दायित्व देते हैं। बा का आशीर्वाद बना रहे।”
“अब बा को मक्खन न लगा। मनुड़ी भी बा को ख़ुश करने में लगी रहती थी। क्यों . . .” बापू ने मनु को छेड़ा तो सब हँस पड़े।”
“सुबह के चार बजने वाले हैं। आभा-मनु, प्रार्थना शुरू करो।”
“बापू! आज मैं शुरू करूँ?”
“इससे शुभ क्या होगा!” बापू आनंदित हुए, “मेरी पुण्यतिथि पर जब देश वाद-विवाद में उलझा है। पक्ष-विपक्ष अपनी-अपनी रोटी सेंक रहे हैं, 74 वर्ष बाद तुम इस अमृत बेला में वहीं अपनी प्रार्थना शुरू करो, जहाँ तुमने संध्या प्रार्थना को रोका था। तुम्हारी प्रार्थना नई इबारत रचेगी। चलो, चले। खुले आक़ाश के नीचे फिर गूँजे प्रेम-संदेश . . .”
बापू, बा आगे-आगे, पीछे-पीछे बाक़ी सबके साथ मैं बापू के क़दमों का अनुसरण करती हुई . . .
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टिप्पणियाँ
जेन्नी शबनम 2022/04/12 12:21 PM
अद्भुत लिखा है। बापू के सोच को किस तरह मिटाया जा रहा है, दुख होता है देखकर। अंतिम समय में किस पीड़ा से गुजरे होंगे बापू। आज तो हर रोज़ उनकी हत्या हो रही है। प्रभावपूर्ण लेखन के लिए बधाई आरती जी।
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मधु 2022/04/22 04:01 PM
आरती जी, साधुवाद। आपने इस कहानी के माध्यम से जो 'सत्य की राह चुनी है। अपने हिस्से की धूप, हवा, पानी, आसमान और अपनी नन्ही अँजुरी में प्रेम लिए फिरती है तो लोग इसे भी संशय की दृष्टि से देखते है...' तो क्या मैं भी बापू की पदयात्रा की तरह आपकी इस यात्रा में आपके साथ जुड़ सकती हूँ? वह कहते हैं न कि 'एक और एक ग्यारह' हो जाते हैं। क्या मालूम, वही संशय भरी दृष्टि वाले भी यह सत्य व प्रेम का उमड़ता सागर देख स्वयं को सम्भवत: रोक न पायें और आपकी यात्रा में सम्मिलित हो जायें!