बाल साहित्य और चित्र
आलेख | साहित्यिक आलेख डॉ. आरती स्मित15 Nov 2025 (अंक: 288, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
‘साहित्य’, जिसके सान्निध्य में पाठक रस और आनंद पाता है, चाहे वह पाठक नब्बे वर्षीय बुज़ुर्ग हो या बालक।
‘बाल साहित्य’ शब्द-मात्र कल्पना की दुनिया में उन्मुक्त सैर करानेवाला विमान का बोध देता है, जिसमें बैठकर यात्रा करते हुए बच्चे अपनी यथार्थ दुनिया में झाँकते चलते हैं। बाल साहित्य एक ऐसे साहित्य का अर्थ-बोध देता है जिसमें पैठकर बालमन अपनी जिज्ञासाओं, विचारों और कल्पनाओं की सहज अनुभूति पाता है; जहाँ उनके अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर मौजूद होते हैं, जहाँ उन्हें अपनी सोच को विस्तार देने के लिए अपरिमित धरती और असीम आकाश मिलता है; जहाँ वे विचरण करते हुए खो नहीं जाते, एक समृद्ध राह तलाशते हैं। दरअसल, बाल साहित्य बालमन को तर्कसंगत, सुविचारी और आलोचक बनाता है।
अब जिज्ञासा उभरती है कि बाल साहित्य को किस रूप में आँका जाए और उसकी परिधि क्या हो? क्या एक मनोरंजक कृति के रूप में या प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में नैतिकता का पाठ सिखानेवाली थैरेपी के रूप में और क्या उसकी परिधि में केवल सकारात्मक बातें ही हों जबकि आज इंटरनेट से जुड़े बच्चे अपने समय के साथ दौड़ लगाते हुए समझ के मामले में काफ़ी आगे निकल चुके हैं। अब वे अपने आसपास की घटनाओं से कुछ-कुछ परिचित होते हैं, और उन्हें परिचित होना भी चाहिए। कथाकार शंकर मानते हैं कि बाल साहित्य बच्चों को एक संवेदनशील मनुष्य के रूप में विकसित होने की स्थितियाँ देता है। इसलिए उसका स्वरूप वस्तुपरक हो ताकि नन्हे पाठक के दिल कि गहराई में उतर सकें। कथाकार संजीव भी मानते हैं कि बाल साहित्य ऐसा हो जो बच्चों में जिज्ञासाएँ जगाए और जिज्ञासाओं का सम्मान करे। कठिन से कठिन पहेली को भी कौतुक, हास्य, सरल, सुबोध और बेहतर ढंग से समझा जाए। संजीव जी ने भाषा और शिल्प को महत्ता दी है।
बाल साहित्य की उपादेयता यही है कि वह बालक के कोमल मन की उस स्फूर्ति को व्यंजित करे, उसे आनंद देने के साथ ही उसके व्यक्तित्व-विकास में सहायक हो। समय के साथ चीज़ें बदली हैं और इसकी अनिवार्यता भी है। अब बच्चे राजा-रानी, तलवार से युद्ध, परी और शैतान के युद्ध और चाँद पर सूत कातती, स्वेटर बुनती नानी की दुनिया से बाहर निकल चुके हैं, अब उनकी दुनिया में पक्षी-पशु के साथ-साथ नदी-नाले, पर्वत, सूर्य का ताप, बादल और बूँदों के गठन की बातें हैं; धरती के हरी-भरी होने और पेड़ों के कट जाने से उजड़ी धरती के विलाप की कल्पनाएँ हैं; अब वे रात के जीव की दुनिया में जाना पसंद करते हैं, बीज से पौधे के पनपने की कल्पना को साकार देखना चाहते हैं। वे मोबाइल, लैपटाप और कंप्यूटर के वेबसाइट के इंद्रजाल में प्रवेश करना चाहते हैं। बच्चे इन्हीं के ज़रिए इसी तरह की नई दुनिया, नए पात्र, नई परिस्थितियों के साथ तादात्म्य स्थापित करते नज़र आते हैं। उनकी दुनिया बड़ों की दुनिया का हिस्सा नहीं होती, उनकी अपनी थाती होती है—विज्ञान और तर्क पर आधारित दुनिया। इसलिए आज सबसे अधिक ज़रूरी है कि बाल साहित्यकार बच्चों के परिवेश, उनके मनःस्तर पर टिके रहकर साहित्य रचे। सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार हरिकृष्ण देवसरे अपनी कहानी रचकर बच्चों को सुनाते थे, कहानी के जिस भाग पर बच्चों की उत्कंठा या दिलचस्पी घटती देखते, उस भाग को बदल कर फिर सुनाते, इस प्रकार उनकी रचना बाल-समूहों से छनकर प्रकाशकों तक पहुँचती और बाल पाठक इसे बहुत पसंद करते। वरिष्ठ बाल साहित्यकार विष्णु प्रभाकर, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, की शृंखला को आगे बढ़ाएँ तो प्रकाश मनु, क्षमा शर्मा, रामेश्वर कांबोज हिमांशु, पंकज चतुर्वेदी, श्यामसुंदर अग्रवाल, प्रदीप शुक्ल आदि ऐसे सजग बाल साहित्यकार हैं जो बच्चों की दिलचस्पी को ध्यान में रखते हुए, नई-नई बातों से उनका परिचय कराते चलते हैं, वह भी इतनी सहजता और सरलता से कि बच्चा उन नैतिक मूल्यों /तत्वों को आप से आप ग्रहण कर ले।
बाल साहित्य-समीक्षक लिलियन स्मिथ का मानना है, “यह आवश्यक नहीं है कि बच्चों के लिए लिखी सभी पुस्तकें साहित्य ही हों और न ही यह आवश्यक है कि बड़े लोग जिसे बाल साहित्य मानते हैं, बाल रुचि के अनूकूल चुनी गई यह पुस्तक उस कसौटी पर खरी उतर जाय। ऐसे लोग भी हैं जो बड़ों की बातों का सरल ढंग से विवेचन ही बाल साहित्य मान लेते हैं। लेकिन यह विचार बच्चों को बड़ों का सूक्ष्म संस्करण सिद्ध करता है। वास्तव में यह धारणा बचपन को ग़लत ढंग से समझने के कारण उत्पन्न हुई है, क्योंकि बच्चों का वास्तव में जीवन-अनुभव बड़ों से बिलकुल भिन्न होता है। उनकी एक अलग दुनिया होती है जिसमें जीवन के मूल्य बाल-सुलभ मनोवृत्ति के आधार पर निर्धारित होते हैं, बड़ों के अनुभव के आधार पर नहीं।”
डॉ. हेनरी स्टील कॉमागार ने ठीक ही कहा है, “वास्तव में यह कहना कठिन है कि बच्चे इस प्रकार की पुस्तक को पसंद करते हैं, इस प्रकार की नहीं।”
हम महसूस सकते हैं कि कई ऐसी पुस्तकें, जैसे—गुलीवर ट्रैवल, हातिमताई, सिंदबाद द सेलर, अलीबाबा चालीस चोर, रॉबिन्सन क्रूसो, डेविड कॉपरफील्ड से लेकर चाचा चौधरी, मोटू–पतलू, अकबर–बीरबल, तेनालीरामा ने बच्चों और बड़ों–दोनों का दिल जीता है। हैरी पॉटर किशोरों को अधिक पसंद आती है। ‘पंचतंत्र’, विक्रम वेताल, सिंहासन बत्तीसी की कहानियों को समसामयिक परिस्थितियों में ढालने की दरकार नज़र आती है। क्योंकि आज साहित्य द्वारा बच्चों के मन में गूढ़ रहस्यात्मकता और अंधविश्वास के आरोपण की अपेक्षा विज्ञानपरक रहस्य के प्रति कौतूहल उत्पन्न करना आवश्यक है क्योंकि बच्चे बेहद संवेदनशील होते हैं। वे प्रत्येक विषयवस्तु को अपने समय के अनुरूप देखते समझते हैं। इसलिए आज बाल साहित्य के रूप में ऐसी रचनाओं की ज़रूरत है जो बालकों को वर्तमान में पनपती अपसंस्कृति की चपेट से बचा सके; विखंडित होती मान्यताओं, घिसे-पिटे जीवन-मूल्यों और सामंतवादी नीतियों से परिपूर्ण मूल्यों को किनारे कर उनमें कर्मठता, साहस, बुद्धिमत्ता और तर्कशक्ति का विकास कर सके।
बच्चे का व्यक्तित्व विकास यों तो गर्भावस्था से होता है, इसलिए उस समय गर्भवती महिलाओं को अच्छी नीतिपरक पुस्तकें पढ़ने की सलाह दी जाती है। जन्म के पश्चात लोरी और कविताएँ-कहानियाँ उनके मस्तिष्क को तैयार करती है। छह माह से एक वर्ष के बीच का बच्चा रंगीन चित्रों वाली पुस्तकों को उलटता पलटता है। यदि यह क्रम बना रहा तो ढाई से तीन वर्ष के बीच वह चित्रों के माध्यम से कहानी न केवल समझने लगता है, बल्कि बुनने भी लगता है। अब वह शिशु थाली में चाँद पाकर ख़ुश नहीं होता, सवाल करता है . . . ‘कहाँ है चाँद?’ वह इस अयथार्थ को स्वीकारता नहीं, लाकर हाथ में देने की ज़िद करता है। उसे समुद्र, नदी, तालाब से लेकर एक्यूरियम में पलती मछलियों की बातें समझ आती हैं। बढ़ती उम्र के साथ वह पुस्तक की बातों को अपने आसपास के वातावरण से जोड़ता है, खोजता है—उस रहस्यमय दुनिया तक पहुँचना चाहता है, जिसकी झलक उसे पुस्तक में मिलती है।
बाल मनोवैज्ञानिक जे.ए. हेडफ़ील्ड के अनुसार, “परीकथाएँ निश्चय ही अवास्तविक विचारों का प्रतीक होती हैं। इस आयु के बालक-बालिका को अवास्तविक से नहीं, बल्कि वास्तविकता से मतलब होता है। उसकी कल्पना उन व्यावहारिक उपलब्धियों से भरी रहती है जिन्हें वह प्राप्त कर सकता है या करेगा। इसलिए वह परीकथाओं में अधिक रुचि नहीं लेता।”
मेरिया मांटेसरी ने भी यह पाया कि “काल्पनिक और निर्मूल कहानियों के द्वारा बालक के कोमल हृदय पर ऐसे संस्कार पड़ जाते हैं जिनके कारण वे अनेक अवैज्ञानिक बातों पर विश्वास करने लग जाते हैं। शैशवावस्था के संस्कार स्थायी होते हैं, अतः बालक के मन से बाद में अवैज्ञानिक बातों को हटाना कठिन हो जाता है।”
देखा गया है कि बच्चे की सोच क़िस्से-कहानियों से अधिक प्रभावित होती है। कई बार वे उनके संस्कारों का हिस्सा हो जाती हैं। यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने कहा था, “प्रत्येक घर की प्रौढ़ महिलाओं को अच्छी से अच्छी कहानियाँ याद कराई जाएँ और उन्हें ये आदेश दिए जाएँ कि वे अपने बच्चों को उन्हीं कहानियों को सुनाएँ . . . राष्ट्र के अधिकारियों को चाहिए कि बच्चों को ऐसी कहानियाँ न सुनाने दें जो उनके मन पर अनैतिकता के संस्कार डालें।”
यह भी पाया गया है कि जिन रचनाओं को पढ़ते समय उन्हें कथानक या घटनाक्रम अपनी ज़िन्दगी या भावना से जुड़ा हुआ महसूस होता है, उन्हें वे बार-बार पढ़ते हैं। किशोर वय में प्रवेश करते बच्चों को जासूसी उपन्यास, रोमांचक कथाएँ बहुत पसंद आती हैं, जैसे कि हैंस एंडरसन, ग्रीम बंधुओं की कहानियाँ, सिंदबाद जहाज़ी, अमर चित्र कथाएँ, ख़जाने वाली चिड़िया आदि रचनाएँ . . . विज्ञानपरक कथाएँ बच्चों को नई कल्पना, भावी जीवन, समाज से परे जानने की सोच देती है।
भारतीय बाल साहित्यों में नायक मनुष्य हो या पशु-पक्षी, हमेशा उदात्त गुणों से पूर्ण होता है। वह ईमानदार, सहिष्णु, न्यायप्रिय, धैर्यवान और सूझबूझ वाला होता है। फ़ैंटेसी के प्रति बच्चों का रुझान पहले भी रहा, अब भी है, तभी तो हितोपदेश, पंचतंत्र और चंद्रकांता संतति की सफलता हमारे सामने है। पंचतंत्र कथानक, घटनाक्रम, भाव और भाषा एवं शैली में इतना विशिष्ट रहा कि विश्व के लगभग सभी भाषाओं में इसका अनुवाद कीर्तिमान स्थापित करता है।
किसी स्थल पर मैंने पढ़ा था कि बाल साहित्यकार क्षमा शर्मा मानती हैं कि ‘बच्चे आज भी भूत की कहानियाँ सुनना चाहते हैं’। संभवतः उनकी कल्पना करके जो रोमांच होता है, उसमें उन्हें आनंद आता हो। किन्तु अब ऐसे बच्चों की संख्या कुछ घटी है।
हरिकृष्ण देवसरे मानते थे, “बच्चों के लिए एक पुस्तक अच्छी पुस्तक तभी बन सकती है जब वह पूरे अनुभव के साथ लिखी जाए और फिर बच्चों की अपनी कसौटी पर खरी उतरे। ऐसी पुस्तकें बच्चों की जिज्ञासा शांत करने के साथ उनकी कल्पना-शक्ति को उर्वरा बनाकर नई जिज्ञासा को जन्म देंगी और इस तरह बच्चे अन्य पुस्तकें पढ़ने को प्रेरित होंगे।”
प्रकाश मनु और पंकज चतुर्वेदी ने बाल साहित्य में इन समस्त ख़ूबियों के साथ ही एक अन्य बिंदु को महत्त्वपूर्ण माना है, वह है चित्रात्मकता। सचमुच, बाल साहित्य और चित्र का सहोदर-सा सम्बन्ध जान पड़ता है, ख़ासकर बारह वर्ष तक के बच्चों के लिए।
चित्र की अपनी समृद्ध भाषा होती है। नन्हा शिशु जब पढ़ना नहीं जानता, तब भी वह चित्र से आसपास की चीज़ों से मिलान कर उससे तादातम्य स्थापित कर लेता है। चित्रों की भाषा वह उतनी ही अच्छी तरह ग्रहण करता है, जितना बड़े बच्चे लिपिबद्ध साहित्य। रंग-बिरंगे चित्र कथानक को जीवंतता प्रदान करते हैं। घटना के अनुरूप चित्र बालमन तक शीघ्र पहुँचते हैं, साथ ही चित्रों से पुस्तक की रोचकता बढ़ जाती है।
मैंने कुछ शिशुओं/ बच्चों को लेकर दिल्ली में एक प्रयोग किया। पाँच माह के शिशु के सामने लगातार दो वर्षों तक चित्रों वाली पुस्तकें खोली और पलटी जाती रही, तो बढ़ती उम्र में उसकी बौद्धिकता अपेक्षाकृत अधिक विकसित हुई। दो वर्ष की उम्र में पुस्तकें खोलकर देखना और चित्रों के सहारे अपनी कल्पना से कविता, कहानी बुनना उसने शुरू कर दिया था। ढाई वर्ष की उम्र में उसे सभी रंगों, अधिकांश पशु-पक्षियों के नाम सहित नदी, समुद्र, बादल वन, अस्पताल, रेलवे स्टेशन—वह हर चीज़ जो यथार्थ में थी, और जिसके बारे में उसने पुस्तकों से जाना-समझा था और माँ से सुना था, उसे सबकी पहचान थी।
इसीप्रकार, छत्तीसगढ़ का एक-डेढ़ वर्ष का शिशु चित्र के सहारे लगभग 25 से 30 पशु-पक्षी और फल के नाम बता सका। माता-पिता चित्रात्मक पुस्तक उसके सामने खोल देते और पूछते ‘गाय/ काउ कहाँ है’, इसी प्रकार, और भी कई चीज़ें। वह शिशु उँगली रखकर सही–सही बताता जाता। मैंने स्वयं जाँचा कि कई शब्द तो उसने चित्र देखकर स्वयं कहे। इतना ही नहीं, यथार्थ में उन विषयवस्तुओं को देखकर झट से पहचान भी गया।
कहने का सीधा-सादा अर्थ यह है कि चित्र, कहानी हो या कविता—किसी भी रचना के प्रति बालमन में रोचकता पैदा करते हैं। चित्रों की अपनी, बड़ी समृद्ध भाषा होती है।
सजग बाल साहित्यकार सदैव रचना के अनुरूप चित्रांकन पर ध्यान देते हैं। जैसे, यदि कहानी आदिवासी गाँव की है तो पात्र का चित्रण आदिवासी के रूप में और परिवेश उनके गाँव जैसा ही होगा, अन्य क्षेत्र के गाँव जैसा नहीं। इससे बच्चे की कल्पना-शक्ति का सही दिशा में विकास होता है। आगे जाकर वे उन चीज़ों को स्वयं पहचान जाते हैं।
चित्र प्रादेशिक विशेषता को उभारने का भी काम करते हैं। भूगोल पढ़कर बच्चे बोर हो जाते हैं, मगर यदि भूगोल की जानकारी रोचक कहानी की तरह चित्र सहित दी जाए तो बच्चे रुचि लेंगे। उदाहरणतः यदि लाचेन नदी की कहानी के साथ ही उत्तरी सिक्किमवासी सहित उफनती बर्फ़ीली नदी और चमकते-दमकते पत्थरों से पटे किनारे का चित्रांकन होता है तो बच्चा उस परिवेश में पहुँच जाता है। वह अपनी कल्पना में उन आकर्षक पत्थरों को छूकर देखता है, नदी के ठंडे जल में उतरकर देखता है और उसके तेज़ प्रवाह से रोमांचित हो उठता है। वह पूर्वी भारत के लोगों को पहचान जाता है, फिर वह उन्हें अपना-सा लगने लगता है। यह बात हर प्रदेश पर लागू होती है। इसी प्रकार, यदि हम जोहिला (झेलम) नदी किनारे बसे भूभाग का चित्र दिखाते हैं तो मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ का आदिवासी बच्चा उससे तुरत जुड़ता है। मगर, एक बात यह भी कि यदि हम उन्हें ‘जेंटलमैन’ में सूट-बूट टाई वाले व्यक्ति का चित्र दिखाते हैं तो वह अपने परिवार और समाज के धोती-कुरता बंडी पहने बुज़ुर्ग को उस श्रेणी में नहीं रख पाता। शिशु मन एक बार जो छवि गढ़ लेता है, उससे उबरना उसके लिए कठिन होता है। तो, यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि किस समाज को किस प्रकार की चित्रात्मक पुस्तक दी जाय। कुछ समय पहले जनजातीय भाषा में बाल पुस्तकें प्रकाशित हुईं, चित्र भी स्थानीय आदिवासी परिवेश के अनुरूप गढ़े गए, बच्चों में प्रचलित भी हुआ, मगर बाद में यह कहकर बंद कर दिया गया कि इससे शिक्षा विभाग पर अतिरिक्त भार पड़ता है। यह जानकारी मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्र में कार्यरत व्यक्ति से स्कूली शिक्षा पर विमर्श के दौरान मिली। इन क्षेत्रों में चित्रात्मक पुस्तकों की पहुँच अभी बाक़ी है, इसलिए आँगनवाड़ी से लेकर प्राथमिक विद्यालय पहुँचे बच्चों का पुस्तक के साथ दोस्ताना रिश्ता नहीं बन पाया है। यही हाल राजस्थान के दौसा ज़िले के अंतर्गत आए कई गाँवों के विद्यालयों के भी मिले। मेरे व्यक्तिगत शोध एवं प्रयोग से स्पष्ट रूप में यह परिणाम दिखा कि चित्र के साथ पलता-बढ़ता बच्चा अन्य बच्चों की अपेक्षा अधिक मेधावी होता है।
अब जबकि विश्वग्राम की संकल्पना को अधिक बल मिलने लगा है, रचना के साथ चित्रों की उपस्थिति की महत्ता बढ़ जाती है। पलाश के वन की बात यदि बिना चित्र के करें तो बच्चा उसके सुर्ख़ रंग की वैसी कल्पना नहीं कर पाएगा या छतनार वृक्ष के जीवों की रोचक कहानी सुनाए तो छतनार वृक्ष और उसके ऊपर रहते जीवों के चित्र कहानी को सजीवता प्रदान करेंगे। ज्यों-ज्यों बालक बड़ा होता जाएगा, चित्र की अपेक्षा कहानी पढ़ना अधिक पसंद करेगा, बावजूद इसके बिना चित्रों वाली पुस्तक वह कम लेना चाहेगा। क्योंकि चित्र रचना को सजीव के साथ ही सरस भी बनाती है।
कहानी कोई भी हो, पात्र और परिवेश का चित्रांकन बाल पाठकों को उस स्थान-विशेष से जोड़ने में मदद करता है, जहाँ कहानी ले जाना चाहती है। बाल साहित्य में आवरण चित्र का विशेष महत्व है। आवरण चित्र बालकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। बच्चा पुस्तक हाथ में लेता है, पलटता है, भीतर के चित्र देखता है, साथ में दिए हुए कथा-खंड को पढ़ता है, फिर निर्णय लेता है कि पूरी पुस्तक रोचक होगी या नहीं। आज का बाल पाठक, पाठक ही नहीं आलोचक भी है। उसे इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि कौन-सा साहित्यकार सुप्रसिद्ध है, कौन नहीं। वह पुस्तक या पत्रिका तभी पलटता है जब आकर्षक आवरण चित्रों के बीच झलकता शीर्षक उसे गुदगुदाता है या उत्कंठित करता है। फिर बारी आती है अंतर्कथा की—अंतर्चित्रों की, जिसके साथ उसे अपनी यात्रा पूरी करनी होती है। लोटपोट, इन्स्पैक्टर विक्रम, मालगुडी डेज़, ऊपर की दुनिया नीचे की दुनिया, अन्तरिक्ष में विस्फोट, यह मैं हूँ आदि रचनाएँ चित्रों के कारण ही प्रिय रही हैं।
यह शुभ संकेत है कि वर्तमान समय में चित्रांकन की गुणवत्ता पर अपेक्षाकृत अधिक ध्यान दिया जाने लगा है, रंगों के समन्वय, काग़ज़ों की मुलामियत या उसके खुरदरेपन को कहानी में वर्णित क्षेत्र के अनुरूप बननेवाले चित्रों के हिसाब से उपयोग किया जाता है। प्रथम बुक्स, एकलव्य, नेशनल बुक ट्रस्ट, चिल्ड्रेन बुक ट्रस्ट, प्रकाशन विभाग एवं अन्यान्य प्रकाशन संस्थानों ने बाल साहित्य के लिए चित्रांकन की अनिवार्यता समझी जिसका फल यह हुआ कि इलेक्ट्रोनिक हमले के बावजूद बच्चों में पुस्तक के प्रति रुचि बढ़ी है। और कई बाल पुस्तकों ने ऑनलाइन अपनी उपस्थिति दर्ज़ कर बच्चों तक पहुँचने में सफलता पाई है। रंगीन चित्रात्मक रचनाओं का सफल प्रभाव यह रहा कि पिछले कई दशकों से उनपर कार्टून चलचित्र बन रहे हैं; बच्चे पुस्तक में वर्णित कथाक्रम का चित्र से मिलान कर अभिनय कर रहे हैं। अब, अभिभावकों पर निर्भर करता है कि वे बच्चे को कितना प्रेरित करते हैं!
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