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बापू और मैं – 001 : बापू का चश्मा 

 “यहाँ क्या ढूँढ़ रहे हैं बापू?”    

 “चश्मा!"

 “क्या बापू! आपका चश्मा तो 2000 के नोट पर ब्रांड एम्बेसेडर की तरह मुस्कुरा रहा है!"

 “तुमने देखा है?”

 “दो हज़ार का नोट देखे तो छह महीने बीत गए। सारे सरकारी आपात्काल तो हम जैसों की नौकरी हज़म करने के लिए ही आयोजित नियोजित होते हैं। जब नौकरी ही नहीं तो कहाँ पीला-हरा-गुलाबी नोट!”

 “नोट पर मेरा चश्मा नहीं, किसी रईस का फ़्रेम है जो अपने आक़ाओं की इच्छा के अनुसार रंग बदलता है!"

 “लेकिन देखने में तो . . . ”

 “देखने में तो सारे पुतले भी मेरे जैसे ही लगते हैं। मैं हूँ क्या?” 

 “आपके मानने वालों को तो पुतले में आप ही दिखते हैं!"

 “कौन मानने वाले? जो मुझपर व्याख्यान देने के लिए लिफ़ाफ़ा लेते हैं, वे? या जो सारी सुख-सुविधाएँ मिलने पर ही मुँह खोलते हैं, वे? या . . . ”

 “क्या लगता है आपको? जो आप पर व्याख्यान देते हैं, वे सब नक़लची बंदर हैं?”

 “सब नहीं मगर अधिकांश के कथनी-करनी में बड़ा फेर है। . . . और तुमने ऐसा कहकर बंदर जाति का अपमान किया है। वे हमारे पूर्वज-सम हैं!"

 “माफ़ कीजिए बापू। मगर मैं सच कह रही हूँ। आपके डेढ़ सौवें जन्मदिन पर तो सरकारी संस्थानों, साहित्यिक-शैक्षिक संस्थानों, पत्र-पत्रिकाओं में बस आप ही आप नज़र आए। एक नहीं, दो नहीं, पूरे एक वर्ष!”

 “और उसके बाद?”

 “बापू! आप इतने परेशान क्यों हैं? क्या सचमुच चश्मे को लेकर? किसी अधिकारी से बात करूँ?”

 “नहीं! वह भी वही चश्मा दिखाएगा जो उसे दिखाया जा रहा है। उसे क्या सारी जनता को दिखाया जा रहा है। . . . वैसे आजकल फोटोशॉप से सब सम्भव है। जब किसान आंदोलन में शामिल किसी बंदे की फोटो सोशल मीडिया से निकलकर सत्ता पक्ष के झूठे विज्ञापन का आधार बन सकती है तो मेरे चश्मे की बिसात ही क्या!” बापू हँस पड़े। 

 “बापू, आपने सचमुच उसी चश्मे से इस देश को देखा था? यहाँ की ग़रीबी, बदहाली, जाति के नाम पर अनाचार-अत्याचार, अशिक्षा, नारी-दुर्दशा . . . सब उसी चश्मे से दिखा था तो फिर आपके बाद उस चश्मे के मालिक को वह सब क्यों नहीं दिखा? क्यों देश स्वतंत्रता और विकास के नाम पर दिनों-दिन आंतरिक रूप में बदहाल होता गया। अभी तो आपके चश्मे की आड़ में . . . ”

 “मैंने 'क़ैसर-ए-हिंद’ की उपाधि इसलिए लौटा दी क्योंकि ब्रितानी सरकार मुझे ‘मानव सेवा’ के लिए सम्मानस्वरूप देने के बावजूद उन लोगों ने मुझे चंपारण जाने, वहाँ रुक कर काम करने और अपने किसान भाइयों पर निलहे ज़मींदारों द्वारा हो रहे ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने से रोक रही थी। मगर आज!”

 “???”

 “आज मेरे नाम पर देश की बोली लगाने वालों को क्या कहूँ! ग़रीब का खादी ग़रीब का न रहा। तकली-चरखा सब दम तोड़ गए। . . . . मेरे उसूल भी,” बापू की पेशानी पर उभरी रेखाएँ घनी हो उठीं। 

 “तुमने सचमुच मेरा चश्मा नहीं देखा है?”

 “नहीं बापू! अनासक्त आश्रम, साबरमती आश्रम से लेकर बिड़ला हाउस तक में कई चीज़ें दिखीं, मगर चश्मा नहीं दिखा!"

 “झुग्गियों में ढूँढ़ा था?”

 “नहीं!"

 “मलबे में?”

 “नहीं!" 

 “फिर?” 

 “संग्रहालयों में और उन जगहों पर जहाँ पब्लिक के देखने के लिए चीज़ें रखी जा सकती हैं।”

 “इसलिए नहीं दिखा!"

 “लेकिन बापू! इन उजड़ी झोपड़ियों और मलबे के ढेरों में भला आपका चश्मा कहाँ होगा!”

 “यहीं रहता आया हूँ तो यहीं कहीं होगा न! तुम ढूँढ़ोगी राज भवन में या उस जैसे बड़े भवनों में क्या पता, कल यहाँ के नए संसद भवन में ढूँढ़ने लगो तो मिलेगा क्या? तलाश की दिशा सही होनी चाहिए!" कहते हुए बापू फिर ढूँढ़ने में लग गए। 

मैं चश्मा ढूँढ़ने दूसरी तरफ़ बढ़ गई। बढ़ती-बढ़ती नदी किनारे आ पहुँची। अचानक दुर्गंध से नथुना भर गया और धुएँ से आँखें। कुछ दिखाई न देता। कुछ लोगों के रोने-कलपने की आवाज़ रह-रह कर सुनाई देती रही। टटोलती हुई आगे बढ़ी तो अनायास पाँव जम गए। कई छोटी-बड़ी चिताएँ जल रही थीं। चिता से उठता धुआँ आसमान धुँधला कर चुका था। लपट नरम पड़ने लगी थी। एक लंबी क़तार अर्थी की! चारों ओर ख़ाकी वर्दी और बूट का पहरा था। लोग बिलख रहे थे। उनके परिजन को कोरोना ने नहीं, भूख और अस्पताल की बदहाली ने निगला। ये वे बदनसीब थे, जिनके पास निजी अस्पतालों में जाने के पैसे नहीं थे। पाँव जड़ हो गए दिमाग़ सुन्न! नन्ही चिता पर रखे बापू के झुलसे चश्मे से रक्त की धार बह रही थी। 

“बाऽऽऽपूऽऽऽ” 

मेरी चीख सुनकर बापू लंबी डग भरते आए। मेरे हाथ जलती चिता की तरफ़ उठ गए। वे उस ओर कुछ क्षण देखते रहे, फिर पलटे और लौट चले। 

“बापू?”

. . . . . .

“बापू! आपका चश्मा तो . . . ”

“झुलस गया, मरा नहीं है। तुमने देखी नहीं रक्त की बूँदें?”

“लेकिन!!!”

बापू ने जवाब का इंतज़ार न किया और तेज़ क़दमों से आगे बढ़ते गए . . .  मैं पीछे, बहुत पीछे छूट गई। महीनों बीत गए . . .  

 

 ♦ ♦ ♦ 

 

“बापू! आप यहाँ? इस वक़्त? . . . सब ख़ैरियत तो है?”

“ख़ैरियत होती तो आता क्या? किसानों के भीतर सत्याग्रह की आँच को हवा न दे रहा होता! जानती हो, कितने शहीद हुए?”

“सुना तो है बापू कि लगभग साढ़े चार सौ किसान शहीद हुए!"

“संख्या उससे भी ज़्यादा है। मैं प्रणाम करता हूँ उनको जो अन्याय के ख़िलाफ़ और सच के साथ खड़े हैं चाहे वे कोई हों। किसान, पत्रकार या कोई भी। उनमें मेरी संवेदना अब भी साँस ले रही है। यह चश्मा अब अपनी ताक़त दिखाएगा। समय आ गया है . . . असहयोग आंदोलन नए सिरे से नए तेवर के साथ . . . कल भी उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ आंदोलन छिड़ा था और आज भी!"

“मगर आज तो मैं गंगा को रोता हुआ देख कर आया हूँ!"

“???”

“कितनी अचेतन अवस्था है तुम्हारी! तरस आता है मुझे! आसपास की चीत्कार, रोदन, सिसकियों की ध्वनियाँ तुम्हें सुनाई नहीं दे रहीं? कान बहरे हैं क्या?”

“समझी नहीं बापू! मुझसे कुछ भूल हो गई क्या?”

“भूल नहीं! अज्ञानता। तुम लोग उतना ही जानते हो, जितना मीडिया बताता है। चलो मेरे साथ!” 

बापू ने मेरी गति को नकारते हुए अपने क़दमों गति की बढ़ा दी . . . मैं पीछे, बहुत पीछे लगभग दौड़ती-सी चलती रही। बापू रुके तो जान में जान आई। साँस अब भी असामान्य थी। सामने दीरा था। विशाल दीरा! गंगा-यमुना संगम का साक्षी दीरा! आज मानवता के नोचे-खसोटे जाने की व्यथा-कथा सुनाता और हज़ारों की संख्या में पड़ी चचड़ी दिखाता हर एक को कटघरे में खड़ा करता प्रतीत हुआ। 

“बापू, यह क्या?”

“यही दिखाने लाया हूँ!"

“कल इतनी अर्थियों को जगह नहीं मिली। रोते-बिलखते परिवारों को मजबूरी में अपने-अपने परिजन की अर्थी पर कुछ विशेष निशान लगाकर हटना पड़ा, ताकि सुबह वे अपने परिजन के पार्थिव शरीर को पहचान सकें और उनका दाह-संस्कार कर सकें। मगर रातों-रात लावारिश लाश की तरह इन सभी को बुरा अंत मिला। जीते जी भी और मरने के बाद भी! . . . और मेरा राम चुप है!"

“!!!”

“अवाक हो! परंतु दृष्टि बंद मत होने देना। देखो ख़ाली पड़े जनाज़े के इस खटोले को! गिन सको तो गिनो इनकी संख्या, नहीं गिन पाओगी। कहाँ-कहाँ गिनोगी? कितने-कितने गिनोगी? थक-हार कर वैराग्य ले लोगी! न, वैराग्य मत लेना। वैरागी बनना, मगर देश और समाज की सेवा के लिए, इसलिए नहीं कि मानवता शर्मसार हो!" 

“देखो! देखो गंगा की ओर! वह भी आज के इस कुकृत्य से क्षुब्ध है . . . अपनी देह से उठती दुर्गंध से विकल है। देख रही हो वह पुल! वहाँ, उस ऊँचाई से गंगा की गोद में संक्रामक रोग से विदेह हुए लोग फेंके गए। गंगा की पवित्र धारा हैरान है परेशान है, किससे कहे वह अपनी व्यथा! . . . तुम लिखती हो न? सच लिखने का साहस है न तुम में? तुम्हें साथ लाया हूँ, ताकि क़लम की रोशनाई से मेरी लाठी बना सको और थमा सको हर उस हाथ में जिसने आज सहा है। सत्याग्रह कायरता नहीं सिखाती। यह लाठी प्रहार के लिए नहीं, आधार देने के लिए होगा!" बापू पलटे और चल पड़े। 

“बापूऽऽ!”

“ऽऽऽ”

“फिर कब आएँगे?”

“गया ही कब था? . . . जब तक उपनिवेशवादी मानसिकता भारत भूमि को अपवित्र करती रहेगी, मुझे तो कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में टिके रहना ही होगा, ताकि मेरे ये बच्चे मुर्दा होने से पहले तक ज़िंदा रहें और जाने से पहले अपना चश्मा नई पीढ़ी को सौंप जाएँ। सत्याग्रह ज़ारी रहे!" 

बापू तेज़ क़दमों से आगे बढ़ गए . . . 

 

♦ ♦ ♦ 

 

महीनों बाद इधर आना हुआ। हज़ारों ट्रॉलियों, शामियानों, तंबुओं और खुली जगहों में बैठे हर प्रांत, हर वर्ग और हर क़ौम के बचपन, यौवन और बुढ़ापे के चेहरे पर सत्याग्रह मुस्कुराता दिखाई दिया। उसके चेहरे पर न मलिनता थी, न भय का नामोनिशान! बापू का चश्मा उसकी नाक पर टिका, सत्य और अहिंसा की शक्ति से भरे नए भारत से रू-ब-रू कराता मिला। 

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टिप्पणियाँ

Sudershan ratnakar 2021/11/26 10:54 PM

प्रासंगिक, उत्कृष्ट रचना। बधाई आरती जी।

डॉ करुणा पांडे 2021/11/26 12:34 PM

आरती जी की लेखनी से निकली एक बेमिसाल रचना

धर्मपाल सिंह 2021/11/26 06:27 AM

बहुत ही मार्मिक कहानी और प्रासंगिक भी। गाँधी जी शारीरिक हत्या भले एक विक्षिप्त व्यक्ति ने की हो, लेकिन हम सब उनके विचारों की हत्या रोज कर रहे हैं। मुझे लगता है कि हमें एक-न-एक दिन गाँधी के चश्में से देखना ही होगा। आरती स्मित की भाषा शुद्ध है जबकि आजकल लेखक/ प्रकाशक भाषा पर बिल्कुल ध्यान नहीं दे रहे।

विजय कुमार मल्होत्रा 2021/11/26 03:45 AM

ऐसा लगता है कि लेखिका ने बापू के चश्मे से एक बार फिर भारत-माता के सपूतों को रोते-बिलखते देखा है और मर्मांतक पीड़ा से विगलित होकर अपनी कलम उठाई है. लेखिका को साधुवाद !

अंजू 2021/11/25 11:44 PM

आधुनिक समय की स्थिति को दर्शाती सुंदर कहानी।हम जैसे युवाओं का मार्गदर्शन करने के लिए बहुत -बहुत धन्यवाद मैम।

Shivam singh 2021/11/25 10:56 PM

इस लेख पर कहने के लिए मेरे पास शब्द नही है, वैसे तो आरती मैम द्वारा लिखी हर कहानी, लेख, बालमनुहार(छोटे बच्चों की कविता, कहानियाँ),और व्यंग्य सभी अव्वल दर्जे के होते हैं लेकिन ये मुझे सर्वाधिक प्रिय लगा। यह एक उत्कृष्ट राजनीतिक व्यंग्य है और विशेषतः उनके लिए जो हर समय गांधी जी का चोला ले कर चलते हैं और जब उनकी राजनीतिक नाँव डूबने लगती है उसे धारण कर लेते हैं। इस लेख का हर शब्द बेहतरीन तरीके से जुड़ा है जैसे कोई माला गुथी हो।उत्तम मैम so nice

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