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तुम तो मेरी प्यारी बिटिया हो: रामदरश मिश्र

 

किसी सघन, समृद्ध वृक्ष तले बैठकर सुस्ताना वैसी ही अनुभूति देता है जैसा घर-परिवार के बड़ों के संरक्षण में पलना-बढ़ना। ठीक, इसी प्रकार, किसी बड़े का साथ, उनका स्नेह और आशीष छतनार वृक्ष की छाँव-सा प्रतीत होता है। ऐसी ही कुछ प्रतीति हुई थी जब हिंदी साहित्य के शताब्दी पुरुष रामदरश मिश्र जी से छह वर्ष पूर्व सायास मिलना हुआ था और तब से लेकर अब तक उस छतनार वृक्ष की छाया निरंतर घनी और शीतल ही होती जा रही है। ऐसा नहीं कि यह शीतलता सिर्फ़ मुझे मिली, जो भी उस छाँव में बैठा, सारी तपिश भूल गया। सहज-सरल, मृदु मुस्कान के भीतर जीवन की गहन अनुभूति, सहज ज्ञान और उससे उपजे औदार्य से भरा व्यक्तित्व अपने बाद की चार पीढ़ियों को नेह-डोर से इस तरह बाँधे है कि कोई मुक्त नहीं होना चाहता— मैं तो बिलकुल नहीं। 

समय की स्मृति में दर्ज़ आत्मीय पलों को झाड़-पोंछकर सहेजने के क्रम में वे अनमोल पल हाथ आ गए जब फोन पर आज्ञा लेकर उत्तमनगर वाले घर पर उनसे मिलने गई थी। इसके पहले की औपचारिक मुलाक़ात को मुलाक़ात कहना ठीक न होगा क्योंकि तब केवल कई कृतियों के रचयिता को मंच पर देखना-सुनना और यदा-कदा उनके सामने पड़ने पर, उनका अभिवादन करने और उनसे आशीर्वाद लेना भर हुआ था, जुड़ाव नहीं। हाँ, मगर कुछ तो था जिसमें मन स्वयं बँधता जाता था—क्या? . . . उनकी स्निग्ध मुस्कान, उनके नेत्रों से प्रवाहित नेह, उनकी सादगी, सहज-सरल निर्दोष बालक-सा हर एक को अपने आभामंडल में समेट लेने का उनका स्वभाव . . . जो भी था, वह भीतर कहीं अपनी जगह बना ही लेता था। 

स्मृतियाँ भी क्या ख़ूब हैं! अपने भीतर जाने कितने ही पलों को उनके होने की सार्थकता दे जाती हैं और वे पल जीवन को एक संदेश, हृदय को एक आश्वासन दे जाते हैं कि इक्कीसवीं सदी अभी इतनी संवेदनशून्य नहीं हुई कि किसी से मन के तार जुड़ न पाएँ। यह सदी आज भी आत्मिक स्नेह, शुभेच्छा, सकारात्मक आलोक की थाती सँभाले आगे बढ़ रही है। इसका श्रेय उन सभी को जाता है जिन्होंने सम्बन्ध को स्वार्थपूर्ति का माध्यम नहीं बनाया, जिन्होंने ऊँचाई प्राप्त करने के बाद भी अपनी सहजता नहीं छोड़ी, जो निष्काम भाव से परवर्ती पीढ़ी के लिए उजास की लक़ीर खींचते चले। ऐसे ही कुछ गणमान्य मेरे जीवन का अकाट्य हिस्सा बन गए। उनसे जुड़े तमाम पल मेरे ख़ज़ाने का हिस्सा . . . . . . 

वर्ष 2018 में, धूप और गर्म हवा के थपेड़ों के बीच जिस घर के प्रवेशद्वार पर दस्तक दी थी, कहाँ पता था, भीतर घुसते ही सारी तपिश हर ली जाएगी; वह झिझक, वह संकोच और वह अनजाना भय जो पूरे रास्ते मुझे दबोचे रहा है, दबे पाँव भाग जाएगा! मगर, ऐसा हुआ जब बैठक में कुरता-पजामा पहने, आँख पर चश्मा चढ़ाए उस छतनार वृक्ष के चरणों में प्रणाम निवेदित किया और उनके नेहाशीष से भीगने लगी। उनकी विशालता बाह्यरूपी नहीं थी, वह विराट् वैभव स्वच्छ सरल हृदय का था जिसके आलोक में स्निग्धता थी, शीतलता थी, आर्द्रता थी, स्नो शॉवर जैसी हल्की बर्फ़ीली फुहार। 

सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ. हरीश नवल की सलाह पर आदरणीय मिश्र जी से मिलने का मन बनाया था। उनकी कृतियों संग यात्रा करती हुई कई पड़ावों पर ठिठकी खड़ी थी, जिनसे आगे बढ़ने के लिए मिलना ही उचित लगा। नवल सर ने आश्वस्त किया, “बड़े रचनाकार तो हैं ही, उदारहृदयी और स्नेही भी हैं, तुम्हें मिलकर अच्छा लगेगा।” नवल सर के कहने पर मन तो बना लिया, झिझक बनी रही थी। हालाँकि उनकी कृतियों संग यात्रा करते हुए अनुमान हो चला था कि गाँव की माटी की सौंधी सुगंध उनकी साँसों में बसी हैं, साथ ही ग्रामीण परिवेश की समस्याएँ, कुरीतियाँ, बुराइयाँ और संकीर्णताएँ भी सरोकार के रूप में उनके दिल-ओ-दिमाग़ में जगह बनाए हुए हैं। गाँव की माटी ने उन्हें सरलता, सहजता, सौहार्द भावना सौंपी तो समय के साथ बदलते जीवन मूल्यों और मानवीय मूल्यों की टूटन की कचोट भी। 

बहरहाल, मैं तय समय पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करने पहुँच गई। सुबह के साढ़े ग्यारह बजे होंगे, गर्मी ने मेरे चेहरे पर अपना असर छोड़ दिया था। झिझकना, स्वयं में सिमटना तब तक जारी रहा जब तक आदरणीय रामदरश मिश्र सामने नहीं आए थे, उस समय, उन्हें सामने पाकर लगा मानो वर्षों से जानती हूँ। मुँह से ‘सर’ की जगह ‘बाबूजी’ निकला। अभी चरण स्पर्श कर उठी ही थी कि माता जी पानी का गिलास ट्रे में लेकर स्वयं आईं (चाहतीं तो उस समय काम कर रही बाई से भिजवा सकती थीं)। अपने से इतने बड़े से इस तरह सेवा लेना भीतर तक सकुचा गया जो मिश्र जी की अनुभवी आँखों ने पढ़ लिया। सामने लगे सोफ़े पर बैठने का इशारा करते हुए बोले, “तुम इतनी दूर से आई हो। प्यास तो लगी होगी न! ये सबकी माँ हैं। सब पर प्यार लुटाती हैं।” 

माता जी भी मुस्कुराईं। थोड़ी देर बाद वे भीतर चली गईं। उन दोनों के होंठों पर थिरकती सहज-सरल मुस्कान देखकर सोच उपजी कि ‘इन्हें कभी क्रोध आता होगा? इनके बीच कभी नाराज़गी पनपती होगी?’ दोनों एक-दूसरे के प्रति इतने आश्वस्त, इतने समर्पित दिखे कि इसे परखने के लिए मुझे न उनके शब्दों की ज़रूरत पड़ी, न ही देर तक ग़ौर करने की। किताबों से भरे मुस्कुराते कबर्ड उस कमरे के आभामंडल को सकारात्मक ऊर्जा से भरते नज़र आए जिनके रचनाकार मेरे सम्मुख बैठे थे और वहीं एक कबर्ड में उस समय तक उन पर हुए 209 शोधकार्य भी मुस्कुरा रहे थे। अब तो उनकी संख्या लगभग 300 है जो प्रेमचंद पर हुए शोधकार्यों के बराबर या कुछ कम अनुमानित है। 

उस कमरे में कहीं कोई तामझाम, कोई बनावटीपन न था। कुछ ही मिनटों में वह परिवेश अपना-सा लगने लगा। फिर तो कोई औपचारिक सिरा ढूँढ़े बग़ैर सहज संवाद आरंभ हो गया। बाबूजी से विश्वविद्यालय की नीतियों और परिवेश से लेकर प्राध्यापक के दायित्व आदि-आदि पर चर्चा होने लगी। चर्चा के दौरान उन्होंने कहा, “छात्रों को सही शिक्षा और सही दिशा में बढ़ने की प्रेरणा देना तो प्रत्येक प्राध्यापक का दायित्व है।” इसी प्रकार, अन्य कई बिंदुओं पर वे अपने विचार रखते गए। 

उनकी बातों ने मन को बल दिया तो चेहरे पर मुस्कान खिल गई। तसल्ली हुई कि मेरे पग सही दिशा में बढ़े हैं। ‘समान सोच पीढ़ीगत फ़ासले मिटा देती है’, इसकी भी अनुभूति हुई। मेरे सामने अब केवल एक बड़े रचनाकार और प्राध्यापक नहीं, एक मार्गदर्शक भी बैठे थे जिनकी बातों से गुज़रते हुए स्वयं को टोहने-टटोलने की प्रक्रिया अपने आप होने लगी। बाबूजी बातों-बातों में बताते रहे, “कविता संवेदना से जोड़ती है, संवेदनशील बनाती है और दूसरों को समझने का गुर सिखाती है। ।” 

मेरे पूछने पर कि उन्हें किस विधा में क़लम चलाना अधिक रुचिकर है? उनका सहज उत्तर था–“कविता और कहानी के सृजन में मुझे समान आनंद मिलता है। कविता और कहानी आविर्भूत होती है, वहाँ मैं सचेत मन से कुछ भी नहीं करता।” 

बाबूजी को सुनते हुए मन आनंद से भरता रहा। उनकी सरल, मधुर वाणी में कुछ तो था जो उनके कहे हर एक शब्द को ठहरकर सुनने और समझ बनाने में सहयोग देता रहा। उनसे संवाद करते हुए उनके भीतर बसे गाँव की जीवंत अनुभूति हुई। उनके शब्द देर तक अनुगूँज बनाए रहे . . . “गाँव मेरे भीतर बसा है। गाँव का अर्थ रास्ते, खेत और पगडंडी-मात्र नहीं होता, पूरी प्रकृति और प्रकृति से जुड़ी संस्कृति होती है। महानगर में छोटे-छोटे शहर बसे होते हैं। मैं शहर के भीतर बसे गाँव या कहो कि ग्रामीण परिवेश में रहता हूँ, जहाँ ज़मीन से जुड़े लोग हैं। श्रमजीवी हैं। इनके बीच रहना मुझे अच्छा लगता है। . . . प्रकृति के सान्निध्य और ग्रामीण सरलता ने मुझे हमेशा बाँधे रखा।” 

बाबूजी जिस स्नेह से अपने जीवन और लेखन-कर्म के बारे में बताते जा रहे थे कि समय के खिसकते जाने का ख़्याल ही न रहा। इस बीच माता जी आकर बैठीं। हमारी बातचीत जाने कहाँ-कहाँ, कितनी ही पगडंडियाँ घूमती रही—गाँव, शहर, महानगर, नदी, खेत, झोंपड़ी, मकान, कुनबे— सब हमारे बीच जीवंत होते रहे। हम बिना सचेत हुए जिन आत्मीय लम्हों को साक्षी बना रहे थे, माता जी को भी शायद अच्छा लगा, इसलिए वे भी बीच-बीच में संवाद में शामिल होती रहीं। बाबूजी की बातें करना अपनी समझ को व्यापकता देते हुए परिपक्व बनाने जैसी अनुभूतियों से भरता चला तो संवाद अपनी डगर बढ़ता ही चला। मैं सहज भाव से एक के बाद एक कर, जाने कितनी ही जिज्ञासाएँ बिछाती चली। जैसे कि चाय की घूँट भरती हुई मैं पूछ बैठी, “बाबूजी, आप इतने वर्षों से महानगर में हैं, मगर उसका प्रभाव आप पर ज़रा भी नहीं दिखता।” 

मेरी बात सुनकर बाबूजी मुस्कुराए; मुस्कुराते हुए ही बोले, “ये हम पर निर्भर करता है कि हम किसी परिवेश से क्या लेते हैं? गाँव मेरे अंदर बसा रहा—बसा रहता है, इसलिए गाँव की सरलता और नैसर्गिकता आज तक बनी हुई है। और इसलिए महानगर का आडंबर मुझे छू नहीं पाया। प्रत्येक स्थान की अपनी महत्ता है।” 

इसी प्रकार, रचनाकार के रचनाकर्म पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा, “जो रचनाकार अपने समय की महत्ता को नहीं पहचानता, उसके संक्रमण को नहीं पकड़ता और अपने आसपास को खुली दृष्टि से नहीं देखता, वह अपने समाज का सच लिख ही नहीं सकता। केवल गल्प चिरस्थायी नहीं हो सकता।” 
 
‘बाबूजी (मिश्र जी) की रचनाओं में भाव गांभीर्य है, शब्दाडंबर नहीं।’ उनकी रचनाओं के साथ थोड़ी दूर यात्रा करने पर ही यह समझ बन चुकी थी। यह भी कि उनकी रचनाएँ निश्चित तौर पर प्रत्येक वर्ग के पाठक के लिए पठनीय हैं। उन्होंने इस बात का सदैव ध्यान रखा कि आम पाठक भी एक बार पढ़कर कुछ पा सके, फिर जो जितना गहरा उतरेगा, उतने गहरे भाव पा ही लेगा। उनके लेखन में प्रेमचंद झलकते रहे, साथ ही गाँधी और मार्क्स भी। किन्तु, कोई भी वाद अपनी संकीर्ण परिधि में उन्हें बाँध न सका। वे अपनी पगडंडी आप बनाते और आगे बढ़ते रहे। उनकी रचनाओं में हमेशा हाशिए पर रखे मुद्दे, अनदेखे लोग, उनके संघर्ष और उनकी अनसुनी चीत्कार ने जगह पाई है। बातों-बातों में उन्होंने कहा भी, “रचना तो वही सार्थक और सच्ची होती है, जो हृदय को विकल करके अंतस् की गहराई से निकलती है। इसलिए यह अनायास प्रकट होती है। सायास की गई रचना दीर्घजीवी नहीं होती।” 

बातचीत के क्रम में जाने क्या सूझा, मैं पूछ बैठी, “बाबूजी, आपकी विकास-यात्रा में माताजी की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही होगी?” 

मेरी जिज्ञासा सुनकर वे मुस्कुराए और सहज भाव से स्वीकार किया, “अगर इन्होंने मुझे घरेलू झंझटों और व्यवस्थाओं से मुक्त नहीं रखा होता तो निश्चित तौर पर मेरा लेखन प्रभावित होता। मैं तो सैलरी लाकर इनके हाथ में रख देता था, सारी व्यवस्था ये ही सँभालती थीं।” 

मैंने महसूस किया, उस क्षण भी नेह की अविरल धारा दोनों को भिगोए जा रही थी। यह भी समझ आया कि बाबूजी ने माँ को केवल कर्त्तव्य नहीं, व्यवस्था के सारे अधिकार भी सौंपे। अर्द्धांगिनी शब्द को सार्थकता देने में उन्होंने कोई कोताही नहीं बरती। दोनों स्नेह की ऐसी प्रतिमूर्ति लगे जिनके भीतर प्रवाहित संगीतमय नेह-सागर बाद की चार पीढ़ियों के लिए भी निरंतर बह रहा था। 

“कैसे निभाते रहे सब— शिष्यों-प्रशिष्यों और उनके भी शिष्यों का सघन जुड़ाव?” 

मेरे अनायास पूछ बैठने पर वे हँस पड़े, फिर बोले, “मैंने नहीं उन्होंने मुझे बाँध रखा है। वे सब घर आते-जाते हैं।” फिर, माताजी की ओर देखते हुए बोले, “ये सबकी माँ हैं। अब, माँ के पास आकर किसे अच्छा नहीं लगता! हम सभी से मिलते हैं, चाहे वह किसी भी उम्र का हो। हमारे पास देने के लिए स्नेह है जो सभी के लिए है। अब तो तुम भी हमारी बेटी हो। जब चाहो, आ जाया करो।” 

बातों का सिलसिला चलता ही रहता, यदि मेरे विवेक ने मुझे टोका न होता कि बाबूजी काफ़ी देर से बैठे हुए हैं, उन्हें अब आराम करना चाहिए। 

माताजी, बाबूजी के चरण-स्पर्श करके मैं मुड़ी। वे दरवाज़े तक छोड़ने आए। बाहर, धूप की दमक आँखों को चुभ रही थी, मगर मुझे उस क्षण संग-संग चलती शीतल छाया का ही भान हुआ। बाबूजी से पिता-पुत्री का जो रिश्ता जुड़ा, कह सकती हूँ कि समय के हाथों वह प्रगाढ़ होता गया। इसके बाद अपरिचय की बात ही क्या, झिझक की दीवार भी भी न टिकी। उत्तम नगर वाले मकान में जब भी मिलना हुआ, माताजी का नेह व आशीर्वाद पाया; ख़ैर-ख़बर के साथ ही बाबूजी की कविताओं/ग़ज़लों के रसास्वादन का आनंद भी। 

समय की स्मृति में सँजोए पलों को देखूँ तो अप्रैल 2019 उभरकर सामने आता है, जब मेरी छोटी बहन सरीखी सखी प्रो. भारती गोरे का मेरे घर आगमन हुआ था और उसे मिलाने के लिए बाबूजी से समय लेकर गई थी। ढेर सारी बातें हुईं। बाबूजी ने हम दोनों को अपनी एक-एक पुस्तक भेंट दी। ‘आखिरी चिट्ठी’ कहानी संग्रह के पन्ने पर लिखा, “प्रिय बेटी डॉ. आरती स्मित को साशीष!” बाबूजी का यह उपहार मई 2019 के मेरे उन उदास दिनों का सहचर बना जब पिता की तकलीफ़ देखते हुए, उनके बचे रहने के लिए की जाने वाली प्रार्थना बेमानी लगने लगी थी और उनकी मृत्यु की निकटता इस सत्य को स्वीकारते हुए ख़ुद को उनकी सेवा में झोंक दिया था। पिता के साथ गुज़रे अंतिम तेरह दिन, उनके कष्टों को देखते हुए, उन्हें उनसे मुक्त न कर पाने की विवशता लिए मुझ पर भारी रहे। पिता जब भी थोड़ी देर नींद की गोद में जाते, इस पुस्तक की कहानी एक-एक कर मुझे अपने संग यात्रा पर ले जाती। 

ग्रामीण महिलाओं के जीवन के बहुआयामी मुद्दों पर सहज-सरल भाषाशैली में लिखी गईं कहानियाँ सतही तौर पर पढ़े जाने के बाद भी संवेदनशील पाठक को अपने प्रभाव में लेने में सक्षम हैं। कहानी पढ़ी जाने के बाद पात्र जीवंत यात्रा आरंभ कर देते। स्त्रियों के देह-मन की शुचिता, उनकी मनोदशा, भावना, संवेदना, पारिवारिक/सामाजिक स्थिति-परिस्थितियाँ, जीवन में घुसपैठ करतीं विडंबनाएँ, पुरुष समाज के फैलाए जाल, उन जालों में फँसीं, उलझीं, मुक्ति को छटपटातीं और कई बार अवसाद में पुरुष द्वारा दिखाए पंकीले मार्ग पर क़दम रखतीं स्त्रियों की व्यथा-कथा सोचने पर विवश करती कि एक कहानीकार के रूप में गाँव और ग्रामीण स्त्रियों की दुरवस्था पर बाबूजी की दृष्टि कितनी गहरी, कितनी पैनी रही है! ऐसा नहीं है कि उन्होंने पुरुष पात्र को नायकत्व प्रदान नहीं किया है, मगर जिस आत्मीयता के साथ, कथावाचक की स्मृति को वर्तमान से जोड़ते हुए ग्रामीण स्त्रियों की दशा का वर्णन हुआ है, वह सोच के नए द्वार खोलता है। यही कारण रहा कि इन कहानियों ने लंबे समय तक साथ न छोड़ा। इन कहानियों में दोबारा धँसती हुई आगे बढ़ने की कोशिश की तो बाबूजी इक्कीसवीं सदी के प्रेमचंद नज़र आए। यों तो उनकी कई पुस्तकें पढ़ी हैं। हर एक ने बाँधा है। ‘सड़क’ कविता और कहानी–दोनों मुझे प्रिय हैं। अन्य कई कविताएँ और ग़ज़लें भी। वास्तव में, बाबूजी के प्रति समझ बनाने में उनकी कृतियाँ सहायक रही हैं। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व में जैसी और जितनी समानता है, वह बेहद कम रचनाकारों में दिखी। वाणी-व्यवहार और लेखन-कर्म की यही एकरूपता उन्हें विशेष बनाती है। 

बाबूजी हृदय से कवि हैं, ऐसे संवेदनशील कवि, एक ऐसे रचनाकार जिनकी दृष्टि अँधेरे कोने की गिरफ़्त में पड़े आदमी पर पड़ती है और वे उसकी वाणी बनकर समाज के सम्मुख प्रकट होते हैं। विधा जो भी हो, उनकी संवेदना सदैव शोषितों के प्रति रही है। कविता की कई शैलियों– छोटी कविता, लंबी कविता, गीत आदि के साथ-साथ ग़ज़ल में भी उन्होंने समय और समाज को साथ लेकर चलते हुए अपनी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ की। उनकी ग़ज़लों, गीतों ने कई कंठों ने गाया है। इसके साथ ही, गद्य की वे तमाम विधाएँ–उपन्यास, कहानी, निबंध, यात्रा वृत्तांत, आत्मकथा आदि उनके साहित्यिक अवदानों को चिह्नित करती हैं। हर एक कृति अपने भीतर बहुत कुछ समेटे है। 

पुनः लौटकर पीछे जाऊँ तो उन उदास दिनों में और पिता के जाने के बाद भी एक-एककर फोन की घंटी बजी थी तो दोनों मित्रों की ही, जिन्होंने मुझे बेटी बनाया ही नहीं, सैंकड़ों मील दूर रहते हुए भी मेरे आँसू की आहट पा लिए थे। पहला फोन बाबूजी का था। बाबूजी ने धैर्य बँधाया। उनके शब्द मरहम का काम करते रहे। मैंने पूछा, “आपको किसने बताया?” वे बोले, “किसी ने नहीं। तुम्हारी बहुत याद आई तो सोचा तुम्हारा हाल पूछ लूँ।” मुझे ख़ुशी हुई। यह उनसे मेरे जुड़ाव का प्रमाण था। 

लॉक डाउन ने जीवन पर ताला ही लगा दिया। फोन पर गाहे-बगाहे बात होती रही। पटरी से उतर गई ज़िन्दगी को ट्रैक पर लाने में बाबूजी के स्नेह का बड़ा स्थान रहा है। घर जाकर एकाध बार मिलना हो पाया। फिर वह सुनहरा पल आया जब के। के। बिड़ला फ़ॉउंडेशन ने उन्हें सरस्वती सम्मान अर्पित करने का आयोजन किया जिसमें मैं भी आमंत्रित थी। दो-ढाई वर्ष बाद उनसे मिलना आह्लाद से भर गया। वे भी बेहद ख़ुश हुए। वही प्रेम, वही शुभचिंता, “नया क्या लिखा, क्या लिखना जारी है, आगे की योजना . . .” आदि-आदि पर वही आत्मीय संवाद। 

कार्यक्रम के बाद उन्होंने पास ही बैठने का इशारा किया। लोग उनसे मिलने, बात करने को हाथ बाँधे खड़े थे। वे सबसे प्यार से मिले। फ़ुरसत पाकर हमने तस्वीरें कैमरे में क़ैद करवाईं। मेरे कहने पर कि ‘आपसे चाहकर भी मिल नहीं पाती’, वे कंधे को थपकाते, समझाते हुए कहने लगे, “इतनी दूर आना-जाना आसान नहीं है। फोन किसलिए है, उस पर हाल समाचार ले लिया करो। परेशान मत हो। आने-जाने से कुछ नहीं होता है। सम्बन्ध तो दिल से जुड़ता है। और तुम तो मेरी प्यारी बिटिया हो।” 

बाबूजी का लाड़ अन्तस् भिगो गया। उन्हें याद हो, न हो। उनकी कही प्रायः हर बात स्मृति में सहेजी हुई है। उन्होंने इस बात को कभी तरजीह नहीं दी कि मैं फोन करूँ, तभी बात होगी। मेरी स्थिति-परिस्थितियाँ, ज़िम्मेदारियाँ, संघर्ष-सब जानते-समझते हुए, मेरी क़लम को अपना विश्वास सौंपते हुए खुले मन से कहते हैं, “तुम अच्छा लिख रही हो, लिखो। अपना काम करती जाओ।” 

बाबूजी मेरी क़लम की सच्चाई, ईमानदारी और दृढ़ता पर जो विश्वास प्रकट करते हैं, निर्भीकतापूर्वक आगे बढ़ने का जो हौसला देते हैं, उससे बढ़कर भला क्या पुरस्कार/सम्मान होगा! पहली मुलाक़ात से ही नहीं लगा, हमारे बीच कुछ बनावटी या औपचारिक है। उनसे फोन पर बात करना भी मिलने जैसा ही आह्लाद और शीतलता देता है। आत्मिक ऊर्जा का स्फुरण सहज महसूस होता है। उन्हें (प्रत्यक्ष या ऑनलाइन) सुनना स्वयं को समृद्ध करने जैसा है। 

सूचना मिली कि बाबूजी अस्वस्थ हैं और शशांक भाई साहब के पास द्वारिका शिफ़्ट हो गए हैं। फिर माताजी के अस्वस्थ होने की सूचना मिली। 15 अगस्त 2023 में जब बाबूजी सौवें वर्ष में प्रवेश करने जा रहे थे, मैंने अपनी पुस्तक ‘युगनायक प्रेमचंद: रचनात्मकता के विविध आयाम’ उन्हें समर्पित की थी, और इस ख़ास मौक़े पर ही उन्हें भेंट देना चाहती थी, जो हो न सका। बाद के दिनों में द्वारिका जाकर पुस्तक भेंट दी। उस दिन भी बाबूजी गद्‌गद्‌ भाव से मिले। पुस्तक देखी, आशीष दिया। समालाप वाली पुस्तक, ‘जीवन और सृजन’ जिनमें पहला संवाद बाबूजी के साथ ही है, भी भेंट दी। शशांक भाई साहब ने तस्वीरें लेकर उन पलों की यादगार थाती मुझे सौंप दी। उसके बाद कितनी ही बातें हुईं, कितनी ही ग़ज़लें सुनकर आनंदित होती रही। माताजी उन दिनों अधिक अस्वस्थ थीं तो उनसे मिलना न हो पाया। कुछ ग़ज़लें रिकॉर्ड कीं जो बाद के दिनों में वीडियो के रूप में यू ट्यूब पर सुरक्षित कर दी गईं। उस दिन बाबूजी को कविता संग्रह ‘मायने होने के’दिखाई। बाबूजी ने पलटकर देखा, बोले, “मैं पढ़ तो नहीं पाता, लेकिन इसे छोड़ जाओ।” सुनकर मन को अच्छा लगा। डेढ़ घंटे बीत गए। बाबूजी के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए मैं चलने का मन बनाने लगी। मुँह से निकला, “कितना अच्छा होता, मेरा घर यही पास में होता तो मैं जब-तब आ जाती।” 

वे मुस्कुराए। फिर हृदय की ओर इशारा करते हुए बोले, “कुछ लोग आते हैं, चले जाते हैं। कुछ लोग धँस जाते हैं, फिर कभी नहीं जाते। कुछ लोग पास होकर भी साथ नहीं होते और जो साथ होते हैं, वहाँ समय या दूरी का असर नहीं पड़ता।” फिर आशीर्वाद देते हुए हर बार की तरह बोले, “और तुम तो मेरी प्यारी बिटिया हो। तुम्हारी जगह यहाँ है।” 

कुछ एक आत्मीय जन हैं जिनसे मिलना, अपने आपको भरने जैसा होता है। बाबूजी से मिलकर लौटना भी ऐसा ही रहा– हर बार की तरह। 

दिसंबर 2023 में माता जी का साथ छूट गया। मेरी सोच दिशा नहीं पा रही थी कि इतने लंबे साथ के बाद बाबूजी माताजी का वियोग कैसे सह रहे होंगे! स्मृति सभा में कार्यक्रम के बाद बाबूजी को ढूँढ़ती हुई आगे बढ़ी। वे कुर्सी पर शांत बैठे थे। भीतर तरंगित भाव बाहर प्रकट नहीं हो रहे थे। उन्होंने उस समय मन को साध लिया था, जबकि उन्हें प्रणाम कर, उनकी गोद में सिर रखते ही मेरी आँखें नम हो आईं। स्मिता दी रह-रहकर बिलख रही थीं। बाबूजी ने सिर पर हाथ फेरा। मेरे बोल न फूटे। मिलने वाले घिरने लगे तो मैं उठकर चुपचाप पीछे खिसक आई। थोड़ी देर बाद जब बाबूजी भीड़ से परे दिखे तो फिर उनके पास गई, निकलने से पहले उनसे आशीर्वाद लिया। उन्हें बताया कि उनके मित्र के डॉ। रमानाथ त्रिपाठी (बाबा) के पास जा रही हूँ। उनका संदेश लिया और निकल पड़ी। बाद के दिनों में बाबूजी ने फोन पर बताया कि माताजी लगभग एक वर्ष से बेहद कष्ट में थीं, ऐसे में उनके जीवन की प्रार्थना करना उनके कष्ट को बढ़ाना ही होता। शशांक भाई साहब सहित पूरे परिवार ने जिस तरह सेवा की और आज भी कर रहे हैं, स्तुत्य है। मैंने बाबूजी से बात करते हुए अक्सर महसूस किया है, वात्सल्य की समृद्ध धारा मेरी ओर बही चली आती है, जिसमें शुद्ध हृदय से निकले अशेष शुभाशीष शामिल होते हैं। 

जुलाई 2024 में साहित्य अकादमी की ओर से बाबूजी के व्यक्तित्व-कृतित्व पर समृद्ध कार्यक्रम आयोजित हुआ। दुर्योगवश, मैं जा न पाई। अगले दिन बाबूजी को फोन करके कारण बताना चाहा। इन बातों से ऊपर उठ चुके बाबूजी ने हर बार की तरह मुक्तहस्त प्यार लुटाया। उनके स्वर से बरसता उजास आसपास दिव्य आभामंडल रच गया। ऐसी अनुभूतियों को सटीक शब्द दे पाने में में प्रायः अक्षम रही हूँ। 

समय ने तो हम सभी को बड़ा उपहार दे दिया – 15 अगस्त 2024 के रूप में। आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में दर्ज़ होने योग्य महत्त्वपूर्ण तारीख़ 15 अगस्त 2024—शताब्दी साहित्यकार बाबूजी रामदरश मिश्र का जन्मदिवस जब बाबूजी ने सौ वर्ष पूर्ण किए। जहाँ तक मेरी स्मृति साथ देती है, भारतेंदु काल से लेकर अब तक, शताब्दी साहित्यकार कोई न हुआ। उनके सौ वर्ष पूर्ण होने की यह तिथि कई कारणों से महत्त्वपूर्ण हो गई। इसे महत्त्वपूर्ण बनाने में उनकी संतानों एवं अन्य समर्पित प्रशंसकों का बड़ा हाथ रहा। पिछले एक वर्ष से योजना बनाने से लेकर क्रियान्वयन तक की उनकी अथक यात्रा तब सफल हो गई जब बाबूजी के कर-कमलों से सारे कार्य सम्पन्न हुए। कई कार्यों में से जो बड़ा और महत्त्वपूर्ण कार्य आरम्भ हुआ – वह था उनकी कृतियों को भावी पीढ़ी के लिए सुरक्षित एवं सुलभ कराने हेतु उनके नाम से वेबसाइट का निर्माण। यह विश्व इतिहास में दर्ज़ एक सदी की महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक, राजनैतिक-सामाजिक घटनाओं के साथ बाबूजी के जीवन एवं साहित्य-कर्म को प्रस्तुत करने वाली अपने आप में बेहद समृद्ध वेबसाइट होगी, इसकी बानगी हमने देखी। बाबूजी के हाथों वेबसाइट का उद्घाटन हुआ। दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य— बाबूजी के नाम से ट्रस्ट का पंजीकरण करवाने के पश्चात् इस ख़ास दिन, ख़ास अवसर पर उनके कर-कमलों से युवा साहित्यकार को पुरस्कार प्रदान किया गया। तीसरा महत्त्वपूर्ण कार्य – बाबूजी की रचनाओं से संबद्ध तथा उन पर केंद्रित कई पुस्तकों एवं पत्रिकाओं का विमोचन हुआ। इसके पूर्व एवं पश्चात् भी कई विशेष आयोजन हुए। पूरब एवं पश्चिम का सुंदर समाहार! जैसे: कार्यक्रम का शुभारंभ बाबूजी को बड़ी बेटी द्वारा तिलक लगाकर, बटुकगण द्वारा मंत्रोच्चारण कर, पोती द्वारा सरस्वती वंदना करके हुआ तो समापन बाबूजी द्वारा केक काटकर हुआ। ग्रंथरूपी इस केक के एक पन्ने पर बाबूजी की पूरी ग़ज़ल लिखी थी, दूसरी तरफ़ बधाई संदेश। हम सब इस महोत्सव के साक्षी बने, यह हमारा सौभाग्य रहा। वहाँ उपस्थित सभी जन बाबूजी को बधाई देने एवं उनसे आशीर्वाद लेने क्रमश: आमंत्रित किए जाते रहे। शशांक भाई साहब ने स्वयं इसका ध्यान रखा कि कोई छूट न जाएँ। 

संग-संग चलते समय की गुनगुनी धूप में बनती हल्की परछाईं बीते सुंदर सार्थक पलों को जीवंत बनाए है। भीतर प्रार्थना गूँजती है, “हिंदी साहित्य-भूमि पर इस छतनार वृक्ष की छाँव लंबे समय तक बनी रहे। मेरे रचना-कर्म ऐसे बने रहें कि बाबूजी को सदैव इस बिटिया पर गर्व हो, वे यों ही सिर पर आशीर्वाद भरे हाथ फेरते हुए कहते रहें . . . तुम तो मेरी प्यारी बिटिया हो . . .। 
 
 

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