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मुझमें है माँ 

(प्रेषक: अंजु हुड्डा
 
उम्र के चौवालीसवें पड़ाव पर 
मुझमें, दिखने लगी है माँ
उसकी सारी आदतें, 
सहज चिंताएँ और संवेदनाएँ 
मुझमें चस्पाँ होने लगी हैं 
 
माँ धीरे-धीरे 
विस्तार पाने लगी है मुझमें 
मेरे अंग-प्रत्यंगों, हाव-भावों/ 
अचेत होती चेतना में से 
झाँकती है माँ 
 
माँ जज़्ब हो चुकी है मुझमें 
पूरी तरह। 
सूखे आँसू /फीकी मुस्कान 
अगाध ममत्व और 
घर की ख़ुशहाली का दायित्व-बोध 
माँ की विदेह उपस्थिति है 
 
माँ मेरा कंठ हो गई है 
मुझसे निकलते हैं 
माँ के स्वर। 
मेरे भरे-भरे चेहरे पर 
धीरे-धीरे उगने लगा है 
माँ का झुर्रीदार पिचका चेहरा! 
 
काश! 
मुझे मिल जाए 
माँ की आत्मिक आभा भी!! 

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