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सरोकारों को उजागर करती कहानियाँ

कमल कुमार की लोकप्रिय कहानियाँ
प्रभात प्रकाशन 
प्रथम संस्करण, 2015
मूल्य : 150 रुपए 
पृष्ठ : 175

प्रभात प्रकाशन के द्वारा लोकप्रिय कहानियों की श्रृंखला में प्रकाशित वरिष्ठ साहित्यकार "कमल कुमार की लोकप्रिय कहानियाँ" पुस्तक मेरे हाथ आई… समीक्षा के लिए। इस पुस्तक की कुछ कहानियाँ बतौर पाठक पहले पढ़ चुकी थी, कमल कुमार की कहानियाँ अनकही पीड़ा को उसकी पूरी अस्मिता के साथ, पूरी शिद्दत के साथ उभारती हैं, जिसकी सच्चाई अंगद की तरह पैर टिकाए रखने खड़ी रहने में सक्षम है। इसलिए बतौर कहानीकार वे मुझे प्रिय भी हैं।

इस पुस्तक में कुल सत्रह कहानियाँ रखी गई हैं। पहली कहानी "अपना शहर" छोटे शहरों में व्यापी जीवंत मानवीयता और महानगरों में व्याप्त आडंबर एवं दंभ के कारण मौत का मातम मनाती आत्मीयता को कर्मचारी अक्षय पाढ़ी, अफ़सर राकेश और उसकी पत्नी के माध्यम से लेखिका ने रेखांकित किया है। केंद्र में है राकेश की पत्नी, जिसके लिए प्रत्येक स्थल पर सर्वनाम सूचक शब्द ही प्रयुक्त है; जो भौतिक सुख-साधनों की अपेक्षा मानवीय संवेदनाओं को जीती है। कुछ पंक्तियाँ :

  • "डिब्बा वापस लेते जाओ।" राकेश ने दूसरा विस्फोट किया था।
    पाढ़ी के हाथ में डिब्बा चिपक कर रह गया था। वह स्तब्ध खड़ा था। उसे बढ़ा हाथ वापस समेट लेने का भी होश नहीं था। ...... वह जाने को उद्यत की सी मुद्रा से एक पल पहले क्षण में फ्रीज़ हो गया था।

  •  वह बेखबर ठंडी और खामोश आँखों से अपनी कल्पना में महानगर की नंगी और बेरहम सड़कों पर उसे बुझे चेहरे और थके कदमों से जाता हुआ महसूस कर रही थी।

  • आज उसे लग रहा था, वह अभी भी तेज़ रफ्तार वाली गाड़ी में बैठी है और वह पटरी के साथ- साथ दौड़ रहा है। अपने शहर की सौगात लिए .... वह नहीं जानता, इस शहर के लोगों के दिल खाली और दिमाग ठस होते हैं।

"लोकतंत्र" देश की वर्तमान अव्यवस्था पर कुठाराघात करती कहानी है जहाँ लोकतंत्र का अर्थ संक्रमित होकर गुंडातंत्र हो चुका है। लेखिका ने भ्रष्ट राजनीति और पतनशील दिग्भ्रमित किशोरों के अनाचारों के साथ ही आम आदमी के त्रासद जीवन को रेखांकित करने की कोशिश की है।

 "महक" 84 के दंगे के दुष्परिणामों को भोगते आम आदमी की मार्मिक कहानी है। उजड़े परिवारों की व्यथा-कथा दो पात्रों के संवादों और संचारी भावों के माध्यम से प्रकट होती है। भय, आशंका, अविश्वास और उजड़े जाने की टूटन की पीड़ा संवेदना में आत्मीयता की महक पैदा करती है। भावों के कई आयामों से गुज़रती यह कहानी मानस को झकझोरती है और एक बार रुककर सोचने को मजबूर करती है कि ऐसे सांप्रदायिक दंगों से कब किसका भला हुआ? क्यों उन्माद निगल जाता है हँसता खेलता परिवार और छोड़ जाता है कसक जीवन भर के लिए! करुणा के प्रवाह के साथ ही पिंड से जुड़ी यादों की महक की ताज़गी कहानी को ख़ूबसूरत समापन की ओर ले चलती है जो अनकहे कहती है कि मानवीय संवेदना अब भी ज़िंदा है। संवाद-शैली रोचक और भावपूर्ण है। भाषा में पंजाब का पुट घटना को दृश्यमान करने में सक्षम है। वाक्य विन्यास सहज रूप में पाठक को मूर्त दर्शक बनाने में समर्थ है। कुछ भावपूर्ण पंक्तियाँ :

  • "ये रख लो आप, पिंड तो ......."

  • "ना बीबी रानी। ऐसा नहीं कैते हुण कदे न कैहना के पिंड विच मेरा कोई नईं। मैं हूँ न सिंघवा डा आपजी दा वीर।"

  • उसने पोटलियों को बाँह में लेकर कोहनी के बीच थाम लिया था। .... पोटलियों से उठती खेतों से तोड़े जाते ताजे सरसों के साग की और घर की चक्की पर पिसी मक्के के आटे की ताजी महक उसके नथुनों से होती हुई भीतर ही भीतर उसके पूरे वजूद में समाती जा रही थी।

"लहाश" ग़रीबी के कीचड़ में सने व्यक्ति के अव्यवस्थित जीवन और विक्षिप्त मन: स्थिति की कहानी है। घटनाओं के माध्यम से अतीत और वर्तमान का सम्मिश्रण वह सब कह जाने में सक्षम है जो पति-पत्नी के संबंधों की नींव भी है और रिश्ते की ढलान भी …. कसैलेपन की वजह भी। पुरुष मन और स्त्री तन का सामंजस्य स्त्री को मन से लाश बना देता है और फिर देह का अस्तित्व ही ख़त्म हो जाता है। अपने रोष, खीझ, अवसाद, थकान दूर करने के लिए जब पत्नी/ स्त्री देह को साधन की तरह उपयोग किया जाता है तो वहाँ स्त्री मन मर जाता है, (चाहे वह किसी वर्ग की हो) और देह लाश में तब्दील हो जाती है। संवाद प्रक्रिया कहानी को गति देती चलती है :

  • वह गुस्से से खदबदाया था---- "लहाश की तरह लेट जाती हो ठंडी और बेजान।"

  • उसने आँखें खोली थीं और बंद कर ली थीं। हाँ लहाश ही समझ लो। यही ठीक भी है। विद्या जब भी उसकी इच्छा का विरोध करना चाहती तो लाश की तरह लेटी रहती, बिना हिले-डुले, बिना किसी प्रतिक्रिया के। उसको भी आदत हो गई थी। वह कभी निपट लेता और कभी करवट लेकर सो जाया करता।

मृत लावारिस लाश की शिनाख्त पत्नी के रूप में कर आपा खोना और फिर लाश के साथ शारीरिक संबंध बनाने की उन्हीं प्रक्रियाओं की पुनरावृति एक ओर पुरुष की मानसिक वृति को दर्शाता है, दूसरी ओर पत्नी बनी स्त्री की असहाय स्थिति को, जो विरोध न कर पाने की स्थिति में जीवित लाश में तब्दील होती है।

लेखिका ने स्त्री की स्थिति को घर के अंदर और बाहर भी असहाय दर्शाया है। यह स्त्री निम्नतर वर्ग की घरेलू स्त्री है जो हर समय हर स्थान पर सिर्फ़ एक देह होती है और जिसकी शिनाख्त हर बार कोई पुरुष करता है। ये पंक्तियाँ समाज को आइना दिखाती हैं:

  • "पर विद्या तुम घर से निकली क्यों? क्यों निकली तुम घर से? पता नहीं तुम्हें, घर से निकलकर औरत लावारिस हो जाती है। जिंदा हो तो भी लावारिस होती है। समाज की मॉरचरी में चादर ढककर लाश सी लेटी रहती है, जबतक उसकी शिनाख्त न हो जाए। या उसकी बॉडी को कोई क्लेम न कर ले। फिर उसका दाह-संस्कार कर दिया जाता है।"

"कमलिनी" स्त्री मन के द्वंद्व की कहानी है। ढलती साँझ और घिरती रात में अनपढ़ अजनबी पुरुषों के अनजाने पौरुष (पशुता) से भयकंपित स्त्री मन में विचारों के आलोड़न- विलोड़न का सजीव चित्र इन पंक्तियों में प्रकट है:

  • उसे किससे डर था, उतरती आती रात के अँधेरे से? अँधेरे में घुलते हुए रात के सन्नाटे से। इस ढाक के जंगल से, जिसकी पगडंडियों पर जन्म से लेकर बस्ती छोड़ने तक सैकड़ों बार वह आई-गई है। नहीं, फिर? वह इन अनपढ़ जैसे कस्बे के चार आदमियों से डर रही है। पर क्यों? क्योंकि आदमी औरत के लिए कभी भी बिना सींग और पूँछ के दोपाए से हिंसक चौपाए में बदल जाता है।

इस अंतिम पंक्ति के बिना कथ्य अधिक सबल होता, कमल जी ने इसका ख़ुलासा कर पाठकों को सोचने के लिए स्पेस नहीं छोड़ा। कहानी का अंत इस सकारात्मक विचार के साथ होता है कि आज भी मानवता सहज रूप में जीवित है।

"काफिर" कहानी आदमी के अंदर पनपी इंसानियत और हैवानियत रेखांकित करती है। अतीत और वर्तमान की आवाजाही में घटना को माध्यम बनाकर कहानी यही सुनाती है कि ऐसे लोग किसी देश या कौम-विशेष के नहीं होते, ये हर जगह होते हैं अलग अलग नाम और पहचान लिए… अलग-अलग शक्ल के मालिक।

"नालायक" इस पुस्तक की बेहतर कहानियों में से एक है। बिना किसी पेंच के सीधे-सादे रास्ते पर चलती कहानी मध्यवर्गीय परिवार के वर्तमान से रू-ब-रू कराने में सक्षम है।

"जंगल" निश्चय ही एक बोल्ड स्त्री की कहानी है, किंतु यही कहानी परिवार से टूटी ऐसी स्त्री के चेहरे पर उम्र से पहले संघर्ष की लकीरें उभारती हैं। बोल्डनेस का अर्थ यह दर्शाना पिता तुल्य पुरुष, वह भी शिक्षक के साथ प्रेम के नाम पर उनकी वासना को स्वेच्छया पूरी कर और फिर बिन ब्याही माँ बनने का निर्णय लेकर समाज को धत्ता बताना जोश और बेफिक्री में की गई ग़लती मानी जा सकती है। अफ़सोस कि पुरुष-प्रधान समाज में ऐसी बोल्डनेस का खामियाजा सिर्फ़ और सिर्फ़ स्त्री भोगती है और भोगती है उसकी संतान जो जायज़ होकर भी नाजायज़ कहलाती है। सुप्रीम कोर्ट के तमाम फैसलों के बावजूद ऐसी जोशीली स्त्रियाँ अपने हिस्से में जानबूझकर सिर्फ़ काँटे चुनती हैं।

शीर्षक की सार्थकता को ध्यान में रखते हुए कहानी को इन पंक्तियों के साथ ही समाप्त हो जाना चाहिए था :

  • वह सुबक रही थी। सुमन निश्चल और निश्चेष्ट खड़ी थी। शिल्पी और उसके बीच घना अंधेरा उग आया था। गहरी चुप्पी और साँय साँय की आवाज़ों के बीच शिल्पी की सिसकियाँ सुनाई दे रही थीं।

बाद की पंक्तियाँ सोचे समझे मन-मस्तिष्क का निर्णय लगती हैं जिसमें सुमन को सशक्त और अंतत: बेटी शिल्पी का रोल मॉडल बना दिया जाता है।

"धारावी" जातिवाद, छुआछूत की कुव्यवस्था को उजागर करती मार्मिक कहानी है। समाज के ठेकेदारों द्वारा "लिव इन रिलेशन" में रह रही निम्न जाति की स्त्री की हत्या की जाती है, जबकि पुरुष विरोध की स्थिति में भी सुरक्षित रहता है। "लिव इन रिलेशन" में रहती हुई भी धारावी का भावनात्मक और पारंपरिक आचार-व्यवहार और समर्पण एक पत्नी की तरह होता है, किंतु एक चुटकी सिंदूर की लालसा लिए वह समाज की बलि चढ़ जाती है। कई बिंब बनते हैं, कई टीसें उठती हैं, अलग-अलग जगहों पर … अलग-अलग रूपों में। और अंतत: दे जाती है एक संकल्प - समाज की लिथड़ी व्यवस्था के प्रति विरोध का। यहीं कहानी की आत्मा बसी है।

"अपराजेय" आत्मशक्ति के बल पर पल-पल जीवन जी लेने की कहानी है। अंग भंग होते हैं, जीवन नहीं। जीवन अपनी नियत यात्रा पर पूर्ववत चलता रहता है। लेखिका कमल कुमार ने नायक अमरनाथ को माध्यम बनाकर सकारात्मकता का संदेश दिया है :

  • उनकी जीवन की आसक्ति सृजन के विविध माध्यमों से उजागर हो रही थी। उनका जीवन अनास्था के विरुद्ध आस्था के पुनर्लाभ की कहानी था। उनका यह सृजन मृत्यु के खिलाफ़ पौरुष-कर्म था। वे उपस्थित थे वहाँ पूरी जीवंतता के साथ।

अन्य कहानियों की अपेक्षा भाषा तत्सम शब्दों में गूँथी और थोड़ी क्लिष्ट है।

"मदर मैरी" तलाक़शुदा या बिनब्याही माँ के साथ पासपोर्ट ऑफिस में हो रही कार्यालयी उपेक्षा और रुखाईपूर्ण व्यवहार का चिट्ठा खोलती है। समाज स्वयं को सभ्रांत कहता है किंतु आज भी जन्म देने वाली माँ से अधिक महत्व शिशु के पिता को देता है और पुरुष प्रधान होने के दंभ को तुष्ट करता है।

"कुकुज नेस्ट" एक ओर किन्नरों की व्यथा कथा है, दूसरी ओर उनकी सरगना में बढ़ते आपराधिक प्रवृत्तियों की, मानो वे चुन-चुनकर सभ्य समाज के स्त्री-पुरुष से बदला लेना चाहते हों। लेखिका ने इस कहानी में उनके सामाजिक अस्तित्व को रोशनी में लाने की पूरी कोशिश की है जो सराहनीय है। रग में एक फिसलती, बहती तड़प है…अपने देश में किन्नरों के प्रति सरकार और समाज के उपेक्षापूर्ण रवैया के प्रति और आक्रोश भी। नायिका की जीवन-शैली के रूप में समाधान भी। "कुकुज नेस्ट" कमल जी की श्रेष्ठ कहानियों में से एक कही जा सकती है। कथ्य, भाषा, शिल्प…प्रत्येक दृष्टि से यह कहानी उत्कृष्ट है। कलात्मकता के साथ भावात्मकता का भरपूर सामंजस्य है। भय, रोष, आवेश, उपेक्षा, चिंता, खीझ, आक्रोश और निश्चिंतता --सबकुछ यहाँ मौजूद है। किन्नरों के प्रति सरकार की उपेक्षा का बेहतर उदाहरण हैं ये पंक्तियाँ:

  • "क्यों नहीं बैठ सकते ? सरकार हमें राशनकार्ड देती है क्या? पर हम अन्न तो खाते हैं न! वोट देने देती है क्या? पर हम इसी देश में रहते हैं न! इसी देश के नागरिक हुए न! सरकार पहले हमें पहले दूसरों की तरह जाने-समझे तो हम भी दूसरों की तरह टिकट ले लेंगे।"

  •  वह अपनी सीट पर सिमटी बैठी थी। उसकी नज़र उस खोए हुए लड़के पर टिकी थी। उसके कानों में उसकी दर्दनाक चीख़ों की आवाज़ें गूँजने लगी थीं। ये लोग बेसहारा, असहाय छोटे लड़कों का अपहरण करके या उन्हें बहला-फुसलाकर ले जाते हैं। उनका लिंग काटकर उन्हें अपने गिरोह में शामिल कर लेते हैं।

"घर-बेघर" संबंधों के स्पंदन और प्रवासी भारतीय के विस्थापन की संवेदनशील कहानी है। वर्षों विदेश-प्रवास के पश्चात् स्वदेश में घर को पुराने रूप में …बचपन की स्मृति-चिह्नों के रूप में तलाशना और अवसादित होना संवेदना को जन्म देता है। अतीत के निशान वर्तमान में हू-ब-हू पाने की लालसा और न पाने की विकलता कहानी को मर्मस्पर्शी बनाती है। जीवंत घर का निर्जीव मकान में तब्दील होने और उसे शिद्दत से महसूसने की गहन पीड़ा पाठक को एक बार उस दर्द के थपेड़े से गुज़ारने में सक्षम है। कुछ पंक्तियाँ, जिन्होंने मुझे आकर्षित किया:

  • "आत्मविस्मृति से भयंकर भी क्या कोई त्रासद और दयनीय स्थिति हो सकती है? मनुष्य कितना भी विपन्न हो पर महत्व तो उसकी भावनाओं और आकांक्षाओं का ही होता है।" वह फिर से क्राइसिस और सेल्फ में था। 

लेखिका कमल कुमार ने यहाँ "क्राइसिस" शब्द प्रयोग कर प्रवासी भारतीयों को तमाम स्थितियों पर विचारने के लिए मुक्त छोड़ दिया है। समय की गर्द में घर का मकान में तब्दील होने की प्रक्रिया और उस ईंट-गारे के मकान में संवेदनशील घर के अवशेष को पाने की ललक के विनष्ट होने और अंतरंगता की जगह अजनबीयत के एहसास किस तरह घुटन पैदा करते हैं, लेखिका ने इसे बख़ूबी उभारा है। कुछ पंक्तियाँ:

  • वह घर तो माता-पिता की आकाक्षाओं, उनकी प्रार्थनाओं और प्रेरणाओं का घर था। वह घर धूल, धूप, मिट्टी, पानी, हवा-बारिश, हरियाली का, जीवन से निकटता का घर था। समय ने सारी इबारत ही पोंछ दी थी। वह मैग्नेटिक फ़ील्ड ही उजाड़ गया था। वह प्रभामंडल बुझ गया था जो उसे बार -बार यहाँ खींचता था, जिससे वह ऊर्जास्वित होता था और शक्ति पाता था।

"अनुत्तरित" कहानी शारीरिक-मानसिक रूप से विकलांग बच्चे और उसके परिवार के प्रति समाज के विकलांग दृष्टिकोण और रवैये पर कुठाराघात तो करती ही है, साथ ही कहानी के दूसरे मुख्य पात्र कर्नल बतरा के परिवार की जीवन-शैली और व्यापक सोच को माध्यम बनाकर कमल जी ने आशा की लौ को प्रदीप्त रहने की शक्ति दी है। एक बेहतर सोच का परिणाम है "अनुत्तरित" कहानी।

"पुल" भारतीय मज़दूर परिवार में पिता के द्वारा ही यौन-शोषण की शिकार बच्ची की व्यथा-कथा की मनोवैज्ञानिक ढंग से विश्लेषणात्मक प्रस्तुति है। वह बच्ची आगे जाकर बेहतर जीवन जीती हुई भी अपने बचपन के उस शाप से ग्रसित मन को ढाढ़स बॅँधाने में असमर्थ नज़र आती है। पति की सदयता में भी उसे पिता के नुकीले पंजे दिखाई देते हैं। भय और संत्रास से ग्रस्त चेतन मन भी अवचेतन की गति से गुज़रता-थरथराता है। लेखिका ने समस्या की जड़ पर सूक्ष्म दृष्टि डाली और उसपर उँगली रख दी। देसी शराब और देह-भोग मज़दूर वर्ग के पुरुषों की प्रकृति में शुमार है और भोगा जाना औरत जात में जन्मी हर उम्र की औरत की किस्मत!

"पिंडदान" निम्नमध्यवर्गीय परिवार की उस बेबसी की कठोर कहानी है जो यथार्थ के पथरीले धरातल पर रची गई। बुजुर्ग पिता के कैंसर के इलाज़ में प्रयासरत बेटा तीन वर्षों हॉस्पिटल की कुर्सी पर सोते-बैठते, पिता के शौच और पेशाब को साफ करते ..कुल मिलाकर सुपुत्र होने का दायित्व वहन करते-करते न सक्रिय व्यक्ति रह पाया, न पति और न ही अच्छा पिता। परिवार का बिखराव बेबसी भरी आँखों से देखने वाला वह स्वयं वह न रह गया, जो वह था। वह ज़िंदा लाश में बदलने लगा था। कहानी की परिणति बड़ी ही मार्मिक किंतु हर चरण में यथार्थ का उद्घाटन एक नई घटना के साथ करती चलती है। और अनजाने ही कई सवालों को जन्म दिए जाती है। भोजन के लिए मिले दाल-भात से दो पिंड बनाकर पिता की जीवित लाश के बगल में रखना और अति शीघ्रतापूर्वक उस घेरे से बाहर निकलना ताकि रास्ते में शेष दो पिंड दान कर वह पुत्र का अंतिम कर्तव्य पूरा कर सके और उसके पिता की आत्मा को भटकना न पड़े । कहानी धर्म के कर्मकांडों में जकड़े मन की ऊहापोह भरी स्थिति का भी सुंदर चित्र खींचती है। शीर्षक की सार्थकता सिद्ध है।

अंतत: यह कहना उचित होगा कि इस पुस्तक में संचयित प्रत्येक कहानी अपने पूरे वर्चस्व के साथ उपस्थित है… अपनी अलग-अलग पहचान लिए हुए। जीवन के बहुविध अनुभवों का विशाल समुच्चय। कुछ कहानियों में प्रूफ़रीडिंग संबंधी दोष रह गए हैं, शेष कथ्य और शिल्प, भाषा और वाक्य-विन्यास परिमार्जित और परिष्कृत हैं। "अपराजेय" की भाषा सुधीजनों की भाषा है, आम पाठकों को थोड़ी उलझन हो सकती है। कुछ कहानियाँ वर्तमान में अतीत की चादर ओढ़ती-बिछाती चलती हैं और इसी से कथा व घटनाक्रम को गति मिलती है। इनकी भाषा-शैली, कथ्य और शिल्प-संरचना में भी अन्य कहानियों से भिन्नता है। शेष कहानियाँ समय के पहिये के साथ घूमती हुई आगे की यात्रा तय करती हैं। हालाँकि संचयनकर्ताओं ने लेखिका द्वारा लिखित भूमिका पर ध्यान नहीं दिया, किंतु वे आश्वस्त रहें क्योंकि यह पुस्तक युवा पीढ़ी सहित सभी सुधी पाठकों एवं लेखकों द्वारा स्वागत किए जाने योग्य है। इससे जहाँ नए लेखकों में जीवन-दृष्टि का विकास होगा और उनके विचारों को आयाम मिलेगा वहीं कलापक्ष की समृद्धि भी। हर मोड़ पर, हर मोर्चे पर सोचों को झकझोरती, भावनाओं को आलोड़ित करती और बुद्धि को अवचेतन से बाहर आने की प्रेरणा देती ये कहानियाँ विद्वज्जनों को एक बार फिर हर समस्या पर विचार करने, उनपर बहस करने का आमंत्रण देती हैं। बहस होनी ही चाहिए तभी सामाजिक परिप्रेक्ष्य में निदान तलाशा जाएगा। आमीन!

आरती स्मित 
डी-136, तृतीय तल, गली न. 5, 
गणेशनगर पांडव नगर कॉम्प्लेक्स 
दिल्ली --110092
dr.artismit@gmail.com

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