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मौन का संगीत थे दिनेश मिश्र

जीवन में कई पल ऐसे होते हैं, जिन्हें हम आजीवन सँजोए रखना चाहते हैं, ख़ासकर जब वे पल किसी विशिष्ट व्यक्तित्व की यादों से समृद्ध हों; जो सशरीर न होकर भी मन-मस्तिष्क का एक बड़ा हिस्सा अपने अधिकार में लेकर सदैव विराजते हैं और अपने साथ बिताए क्षणों को मेरी चेतना से जोड़े रखते हैं। ऐसे ही श्रद्धेय और सम्मानीय व्यक्तियों में से एक हैं दिनेश मिश्र . . . मेरे लिए दिनेश अंकल। शरीर से दुबले, मन से बली, चेतना के स्तर पर जाग्रत, समय के पाबंद, उसूलपसंद, सच्चा खरा इंसान, जिन्होंने किसी को ख़ुश करने के लिए कभी कुछ नहीं कहा; जो ज्ञानी थे मगर ज्ञान बघारने की बीमारी से दूर रहे; जो भीड़ में, कोलाहल में मौन के संगीत को सुनते-गुनते और जीते; जो सच्चाई-ईमानदारी को कर्मठता के साथ जोड़कर नया रूप देने में लीन रहते और जो अंग्रेज़ी की रोटी खाकर भी हिंदी के विकास के लिए प्रतिपल मनन करते रहते और जो जाकर भी नहीं गए। उनके विदा होने को मैं उनकी अंतिम विदाई नहीं कह सकती क्योंकि लंबे समय तक जब बाहरी थपेड़ों से मन परेशान होती और ख़ुद को संयत करने की ख़ातिर कुछ देर अपनी आँखें बंद करती तो उनकी उपस्थिति का भान होता। वे मुझसे वैसे ही बातें करते और सीमित शब्द ख़र्च कर, अतुल अर्थ दे देते, मेरे सामने की धुँध छँट जाती और मैं उठ खड़ी होती—असत्य और आडंबर पर जीत हासिल करने के लिए। 

11 वर्ष बीत गए। आज भी ठिठके पलों को टोहती हूँ तो अतीत की किताब के कुछ ख़ास पन्ने फड़फड़ाने लगते हैं। यादें क़ैद से मुक्त होकर खुली साँसें लेती हैं और सोए-अलसाए पल जाग जाते हैं। ऐसी ही यादों के गुच्छे से झड़ते पलों में से हाथ आए वे पल–वर्ष 2011 के। विवेक गौतम जी के आमंत्रण पर ‘इनसा’ के ‘मासिक कवि गोष्ठी’ के कार्यक्रम में पहली बार जाना हुआ। वहाँ ‘इनसा’ के अध्यक्ष प्रो. दिनेश मिश्र से हुई मुलाक़ात प्रभावित कर गई। वह कार्यक्रम जिस तरह समय पर शुरू और समय पर ख़त्म हुआ, और जिस तरह उनके द्वारा नए लोग प्रोत्साहित किए गए, कहीं न कहीं वे बातें मुझे गहरे तक छू गईं। समय के साथ चलने, समय की इज़्ज़त करने और दूसरों को सहयोग देने की जो सीख स्काउट गाइड में मिली थी और जो बाल मन के भावों से उतरकर रक्त में घुलमिल गई थी, जब वे चीज़ें मुझे दिनेश अंकल में ‘औरा’ की तरह दिखीं तो मैंने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया। पहली बार ‘सर’ संबोधित किया था, मगर शीघ्र ही वे सर से अंकल हो गए। स्थिर मन से, बहुत धीमे से वे अपनी बात कहते मगर अपनी बात रखने का उनका ढंग इतना प्रभावी होता कि झूठ या अनुशासनहीनता फैलाने वाला व्यक्ति स्वयं सहम जाता। मुझे याद है, दीवानचंद हॉल में आयोजित उस कार्यक्रम में मेरे जाने का ध्येय कविता पढ़ना कम, उनसे मिलना और बातें करना अधिक होता था, क्योंकि एक-दो मुलाक़ातों में ही अंकल से जिस आत्मीयता भरे भाव को मैंने पाया, वह मेरे लिए अनमोल हो गया। दिनेश अंकल अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर पद से सेवानिवृत्त हुए, फिर स्वयं को हिंदी भाषा-साहित्य सहित भारतीय भाषा-साहित्य के लिए समर्पित कर दिया। लंबे समय तक ज्ञानपीठ के अध्यक्ष रहे; ‘इनसा’ (इंडियन सोसाइटी ऑफ़ ऑथर्स) को फ़र्श से अर्श तक पहुँचाने में लगे रहे। उसके विकास के लिए नई-नई योजना बनाते और कार्यान्वित करने हेतु अपने ही जैसा कर्मठ साथी तलाशते जो निःस्वार्थ भाव से साथ दे। भीड़ तो थी, मगर उन्हें पूरी तरह समझने वाले लोगों की कमी थी। मुझे उनके संघर्ष से गाँधी के संघर्ष का अनुमान होता कि अपनी ही टोली में जब नासमझों का साथ हो तो क्या स्थिति बनती है! अंकल को कभी किसी की शिकायत करते नहीं पाया। सबकी सुनते, शांत भाव से विचारते, फिर जवाब देते। अच्छी किताबों के प्रेमी रहे। उम्र का उनके कार्य पर प्रभाव न था। २०१२ ई. में साहित्य अकादमी के पुस्तकालय में हमारी अक़्सर मुलाक़ात होती। वे वहाँ मुझे देखकर बड़े ख़ुश होते। मुझे याद है, एक बार मैंने पिछले कुछ महीनों से कार्यक्रम में न पहुँच पाने के कारण खेद प्रकट किया तो तुरंत बोले, “मुझे आपको यहाँ (पुस्तकालय में) देखकर अधिक ख़ुशी होती है। यह ऐसी जगह है जो हमें कई बुराइयों से बचा लेती है। . . . और हमारी समझ विकसित होती है सो अलग।” 

“आप नाराज़ नहीं?” 

“किसलिए? . . . कार्यक्रम में सब आते हैं। यहाँ हर कोई नहीं आता। वही आता है जो ख़ुद को डेवलप करना चाहता है। और आप लिखने से पहले बहुत पढ़ती हैं। मैं तो कहता हूँ, एक लिखने से पहले-पहले सौ पढ़ो, फिर देखो लेखन!” 

अंकल का अंतिम वाक्य मेरे लिए सूक्तिवाक्य हो गया, जिसका मैंने हमेशा ध्यान रखा। शोधपरक लेखन की आदत तो पुरानी थी ही, अंकल की बातों से दिशा मिल गई। यों ही एक दिन जब उनसे कहा, “यहाँ आकर मुझे अपनी लघुता का ज्ञान होता है। कितना कुछ बचा है पढ़ने को, मैं तो इस एक पुस्तकालय की ही पूरी (हिंदी) किताब नहीं देख (पढ़) पाई अभी, और कितना ख़ज़ाना इससे बाहर भी है।” 

“मगर मैं तो विकास देख रहा हूँ। किताबों की संगति हमेशा भला ही करती है। . . . सारी कोई नहीं पढ़ता, मगर जो ख़ास हैं, क्लासिक हैं, उनको तो पढ़ ही डालिए।” 

२०११ को दिल्ली आ जाने के बाद भी अलग-अलग कार्यक्रमों में सहभागिता हेतु आकाशवाणी आना-जाना लगा ही रहता था। एक दिन अचानक दिनेश अंकल मिले और मुस्कुराकर कहा, “अब तो अकादमी के अलावा आप जब इधर आएँगी, मुलाक़ात हो जाएगी।” फिर महानिदेशालय के ग्राउंड तल पर उन्होंने अपना चेंबर दिखाया। मैं तो ख़ुशी से चहक उठी। आज सोचती हूँ, ऐसा क्या था जो अंकल से मिलने पर मुझे अप्रतिम ख़ुशी देता था—एक ही जवाब मिलता है, उनकी सकारात्मक सोच, शुभचिंता और मैं सही दिशा में बढ़ रही हूँ, इसकी अनुभूति, जो उनके कहे बिना मुझ तक पहुँच जाती थी। फिर तो जब भी रिकॉर्डिंग के बाद लौटती, अंकल से आशीर्वाद लेने और उनका हाल-चाल जानने चेंबर में पहुँच जाती और हर बार वे उसी स्नेह, उसी आत्मीयता से मिलते। जब उनका चेंबर बंद मिलता तो उनके स्वास्थ्य को लेकर चिंता स्वाभाविक थी। 

संभवत: २०१२-१३ में अंकल ने ही आकाशवाणी और मंचों पर पढ़ी गईं कविताओं को डायरी से मुक्त कर, उसे निश्चित रूपरेखा देने की बात कही और मैंने डायरी से बेतरतीब पन्नों पर उतारकर उनके सामने रख दिया कि अब आप देख लें किस कविता में क्या सुधार करना है। अंकल पहले आत्मीय थे, जिन्होंने कभी अपने स्नेह का प्रदर्शन नहीं किया। कम, बहुत कम बोलते थे, संतुलित और सम्मानजनक शब्दों का प्रयोग करते हुए सलाह देते और मुझे अपने मामले में स्वयं अंतिम निर्णय लेने का प्रोत्साहन भी। लगभग पंद्रह दिनों के बाद अंकल ने मुझे वह फ़ाइल लौटाई जिसमें मेरी हस्तलिखित कविताएँ थीं। फ़ाइल देते हुए मुस्कुराए, फिर कहा, “मुझे कई कविताएँ बहुत अच्छी लगीं। सारी तो एक पुस्तक में देनी भी नहीं है, उसको छाँट लीजिए, फिर फ़ेयर करके, न हो तो किसी और की भी सलाह ले लीजिए। मैं ठहरा अंग्रेज़ी का प्रोफ़ेसर, इसलिए सिर्फ़ मेरी सलाह काफ़ी नहीं है।” 

घर आकर जब कविताएँ देखीं तो हैरान रह गई। वे स्वयं को अंग्रेज़ी के जानकार मानते हुए हिंदी कविता पर अपनी सलाह को अंतिम सलाह माने जाने से झिझक रहे थे, जबकि हर कविता की हर पंक्ति पर उन्होंने कितना विचार किया था, यह पेंसिल से बग़ल में लिखे शब्दों से स्पष्ट था, साथ ही, एक पाठक के नाते अपनी प्रतिक्रिया भी देते गए थे। उन्होंने कभी उपदेशात्मक वाक्य नहीं कहा, कभी सिखाने की कोशिश करते नज़र नहीं आए, कार्यक्रम में आए उभर रहे कवियों को पहले सुनने और अधिक सुनने की कोशिश करते और उनका हौसला अफ़ज़ाई करते ही दिखे, फिर भी उनके मौन का एक अपना लय था, एक अपना सुर जिसे सुन-समझ पाना हर एक के वश की बात नहीं थी। 

अंकल के स्वाभिमानी स्वभाव में मुझे अक़्सर अपने पिता की छवि दिखाई देती थी। अंकल ने धन नहीं जोड़ा, जब तक रहे, जीवट रहे, स्वाभिमान बनाए रखा, लोगों को जोड़ते रहे, नए को बढ़ावा देते रहे, न कभी अपना बड़प्पन हाँका, न किसी को उसके पद के कारण अधिक तवज्जोह दी। सब बराबर थे, सब सम्मानीय थे। उनका जाना ‘इनसा’ की भी नींव हिला गया। अंकल के जाने के बाद कार्यक्रम की वह रौनक़ खोई-सी जान पड़ी तो मेरा जाना धीरे-धीरे छूटता चला गया। उनके साथ बहुत पहले से जुड़े मित्र भी मिलते हैं, किन्तु हमारे अनुभव अलग हैं। अंकल के गुण आज भी याद करती हूँ तो उजास नज़र आता है, सात्विकता की झलक मिलती है और मानसिक द्वंद्व समाप्त होने लगता है। वे अक़्सर कहा करते थे, “मूर्ख लोग मकान बनाते हैं, समझदार लोग (किराएदार) उसमें रहते हैं। उन्होंने इस संसार को भी किराए के मकान की तरह देखा और इसलिए अथक कर्म करते हुए भी विषयवस्तु के प्रति निर्लिप्त रहे। उन्होंने किराए का मकान (यह शरीर) ही तो बदला जो अपना नहीं था, भला किराए के मकान से मोह कैसा! वे थे, वे हैं और सदैव उन पलों में विराजमान रहेंगे जिन्हें स्मृतियों ने बड़े नाज़ से सहेजा है, सँजोया है। 
 

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