माँ जानती है सबकुछ
काव्य साहित्य | कविता डॉ. आरती स्मित15 May 2022 (अंक: 205, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
(प्रेषक: अंजु हुड्डा)
माँ जानती है सबकुछ!
मेरे हँसने-रोने
उदास होने
खिलखिलाने और
मौन के गर्भ में समा जाने का राज़!
माँ जानती है सबकुछ!
उसे मालूम है
पतझड़ और बसंत का फ़र्क़
वह जानती है
गुलाबी और स्याह रंगों का अंतर
समझती है
मेरे खिलने और मुरझाने का सबब!
माँ मुझे 'कली' कहती है
ख़ुद को 'काँटा'
कभी 'कोहिनूर' कहती है
और चौकन्नी रहती है
ईमानदार प्रहरी-सी!
माँ देखती है मेरी आँखें
बुनती है उसमें कुछ सपने
भरती है संकल्प चिर-परिचित
और धीरे से खोल देती है डोर
ऊहापोह की!
माँ मंत्र देती है कानों में
स्वावलंबन और आत्मन्वेषण का
झटक देती है चूड़ियाँ और पाज़ेब
कर देती है मुक्त मेरे हाथ-पैर—
दृष्टि और विचार भी!
माँ देती है उपहार!
वह सौंप देती है मुझे
मेरे हिस्से के सपने, संकल्प
रंग-भाव, बुद्धि-विवेक
क़लम-ब्रश, सुर व ताल
और एक जोड़ा पंख
अनुशासन का!
आज, मैं स्वतंत्र हूँ
उड़ान भरने के लिए!
समझ पा रही हूँ
उनके मंत्रों के अर्थ
उपहारों के महत्त्व!
हाँ! माँ ही तो है
जो जानती है सबकुछ!
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