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एक वेवलेंथ पर . . . 

 

ज़िंदगी जितनी ख़ूबसूरत है, उतनी ही रहस्यमयी भी। एक पल में से पूरी की पूरी गुज़रकर, देखते ही देखते उस अभेद्य दीवार के पार चली जाती है, जिसे भेदना हमारे वश में नहीं होता। अगला पल पकड़ से दूर-बहुत दूर होकर, हमारी रेतीली हथेली में यादों का गुच्छा पकड़ा जाता है और रीतते पलों के बीच उमगकर आँखें खोल देता है वह अनमोल—वह स्नेहिल अबोध पल, जिसमें संवेदना और विचार के स्तर पर, एक वेवलेंथ पर खड़े होकर पूरी ज़िंदगी जी लेने की बात की थी उन्होंने। यह भी कहा था, “मैं तो मानता हूँ कि हर लेखक को थोड़ा-सा ‘मख़बूतलहवास’ होना ही चाहिए। इसके बिना तो वह लेखक हो ही नहीं सकता।”

वे अक़्सर मौन की अंतहीन यात्रा पर निकल जाते और रंग-ध्वनि-प्रकाश के रहस्य को भेदने की सामग्री साथ लेकर लौटते और फिर शब्द की नोक पर ठोंक देते थे वे भाव, जिन्हें व्यक्त कर पाना हर एक के वश की बात न थी। विरल था बहुत कुछ, विरोधी गुणों का अद्भुत सम्मिश्रण! एक दिन यों ही कहा था उन्होंने, “मेरे लिए लिखना एक नशा न होता तो मैं उससे और वह मुझसे इस तरह चिपका न रहता। हाँ, देर से ही सही, उसे सँभालने की कला सीखने में लगा हूँ। उम्र ज़रूर आड़े आ रही है पर मनोबल टूटा नहीं है और मैं उत्साह में उसे लाँघ जाने में टूट जाता हूँ, जानते हुए भी कि यह ‘निंदर’ की शरारत है। जब शरीर साथ नहीं देता तो उसे खरी-खोटी सुनाने लगता हूँ।” 

पचासी वर्ष, दस महीने दस दिन में युगों को समोने वाले ध्वनि-साधक, मौन के अन्वेषक, रंगों की अद्भुत छटा के पीछे के अँधेरे का संधान करने वाले विचारक और संवेदनशील शब्द-शिल्पी नरेंद्र मोहन के भीतर गहन चेतना और भावबोध के साथ बसता, खिलंदरी करता वह ‘मख़बूतलहवास’ निंदर आत्मकथा से निकलकर मेरे साथ ऐसा हो लिया कि नरेंद्र मोहन जी भी पूछते, “आजकल निंदर मुझे दिखता नहीं। तेरे पास तो नहीं?” फिर कहते, “तूने उसकी आदत बिगाड़ दी है। अब मेरे पास तो टिकता ही नहीं!” 

और मैं ख़ूब-ख़ूब हँसती, कहती, “आप आजकल उसकी परवाह नहीं करते, बस काम-काम-काम, इसलिए मेरे पास आ गया है। जाने को तैयार नहीं। भेजूँगी भी नहीं।” फिर हम दोनों ठठाकर हँसते, भूल जाते कि हम आमने-सामने नहीं, फोन पर हैं। 

जिस पल से होकर वे गुज़रे, विदेह हुए, वह पल आज भी वहीं ठिठका खड़ा है। बेचैनी के आलम में एक नहीं, कई बार उन पलों को पुकारा था उन्होंने, जिसे बूँद-बूँद जिया था—सिर्फ़ निंदर बनकर ही नहीं, नरेंद्र मोहन बनकर भी। ‘स्व’ से ‘पर’ तक का विमर्श, जिसमें समाज, साहित्य, देश, काल, परिस्थिति, अतीत, वर्तमान और भविष्य की मीमांसा होती। 

कई बार उन पलों को रेखांकित करना कठिन होता है, जिन्होंने हँसाया-रुलाया, फिर पैठ गए अतल में। अब, जब-तब झाँकते रहते हैं बाहर और इस आवाजाही में उमग ही आते हैं अनमोल पल स्मृतियों के-स्मृतियाँ भी कितनी शोख़! कितनी चंचल! . . . और दीगर भी। बलज़ोरी करने वाली! जितना रोको, उतना ही सेंध लगाती हैं और सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते, यहाँ तक कि नितांत एकांत पलों में भी घुसपैठ कर, मन को तार-तार कर देती हैं; लाख चाहो, कोशिश करो मगर न जी न, उबरने नहीं देतीं तो नहीं देतीं। व्यक्त-अव्यक्त, मौखिक-लिखित, अकथ, सांकेतिक भावों के स्पर्श से नित नवीन क्षण बुनती परिस्थितियाँ कब कालचक्र का हिस्सा बनकर जीवंत आचार-व्यवहार, भाव-विचार को स्मृति के चोरबटुए में रख देती हैं, समझ ही नहीं आता! और जब तक समझ बनती है, स्मृतियों से भरा चोर बटुआ ख़ज़ाने में तब्दील हो चुका होता है। ये स्मृतियाँ प्रतिपल साथ-साथ विचरती हैं, क़दम-दर-क़दम। उबरने की राह नहीं मिलती, तभी गूँजती है चिर-परिचित आवाज़ . . . 

“विरेचन के लिए ज़रूरी है लिखना। लिखो-लिखो–लिखो! प्रसंग के रूप में लिखो, संस्मरण लिखो। आरती! तुम कविता के लिए बनी हो! कविता ही मुफ़ीद है तुम्हारे लिए। उसके बिना राह नहीं है। लिखो! . . . क्यों छोड़ दिया लिखना? जब तक लिखोगी नहीं, उबरोगी नहीं। हर याद, हर बात को काग़ज़ पर उतारो। रफ़ करती जाओ टुकड़े-टुकड़े में। एक बड़ी रचना बन जाएगी।” कहा था उन्होंने, दो वर्ष पूर्व जब पिता को खोकर, उनके जैसे जीवट को असहाय अवस्था में कष्ट भोगते और उनके अकथ जीवन-दर्शन को समझकर अवसादित मुद्रा में अपने ठाँव लौटी थी। वे फोन पर लगातार समझाते रहे थे। कभी अभिभावक तो कभी अंतरंग सखा बनकर। वे ध्वनियाँ एक बार फिर औषधि में परिणत हो रहीं। 

पीछे मुड़कर देखती हूँ तो ख़ुद को बरस-दर-बरस पीछे पाती हूँ . . . अगस्त 2018 के उन पलों में, जिन्होंने स्मृति का दरवाज़ा खटखटाया था। दरवाज़ा खोला सुमन दी ने और सामने कुरते-पैंट में, अपने कमरे में मुस्कुराते खड़े नज़र आए थे डॉ. नरेंद्र मोहन! पहली बार उनके आवास पर जाना हुआ था। संकोच की गिरफ़्त में थी, मगर उनकी अनुभवी आँखों ने समझ लिया और अपने सहज व्यवहार से आधे घंटे के भीतर संकोच की वह दीवार ढहा दी, फिर तो सुमन दी के हाथ की चाय के साथ समृद्ध संवाद का दौर घंटों चला। जीवन, मानसिक उद्वेलन, विभाजन के हालात और उनसे उपजी व्यथा की ज़मीन पर हुई उनकी अद्भुत रचनाओं पर खुला संवाद। उस समय, कहे उनके शब्द आज भी वायुमंडल में तैर रहे हैं:

“जब आप सच जानते हैं तो कहे बिना नहीं रह सकते। दूसरा यह कि सच कहने का आप में कितना साहस है! साहस ज़ोखिम उठाने का। अगर लेखक में यह साहस नहीं है, तब उसका लेखन भी कुछ नहीं है। एक तो है— सच्चा खरा नंगा सच लिखना। और लिखने के बाद आप चुप हैं। अब सच देख लिया तो कहोगे ही, मरे हुए हो क्या? शेयर तो करोगे। आज हम शेयर करते हुए भी डरते हैं। समझ में नहीं आता कि किन पर भरोसा करें? ऐसे में मैं कहता हूँ कि कुछ मख़बूतलहवास लोगों का बचा रहना ज़रूरी है जो खुलकर अपनी बात कह सकें। मंटो भी पागल थे। मख़बूतलहवास! वो बना रहना चाहिए। आदमी में इतना साहस ज़रूरी है। आदमी चुप क्यों है? . . . लालच या भय से? . . . भय, कम्फ़र्ट ज़ोन से निकलकर ख़तरे उठाने का? मगर ये रिस्क तो उठाना पड़ेगा। लेखक को तो उठाना ही पड़ेगा। कोई मतलब नहीं, फिर भी आदमी चुप रहता है। कितना कैलकुलेटिव! कितना हिसाबी-किताबी!” 

वर्तमान के बिगड़ते हालात की पीड़ा उनके संवेदनशील, मगर विचारक लेखक मन को नवसृजन के लिए उद्वेलित करने लगी थी। मैं पहले भी उनकी आत्मकथा का एक बड़ा हिस्सा पढ़ चुकी थी, कुछ एक नाटक और कविताएँ भी। इस मुलाक़ात ने सहज संवाद के माध्यम से सोच को एक दिशा दी। विस्मित थी कि इतना बड़ा व्यक्तित्व और कितना सहज! कितना नेकदिल, कितना सरल और नेह से सरोबार! इस मुलाक़ात के बाद फोन पर संवाद का सिलसिला शुरू हो गया। निंदर आत्मकथा से निकल कर मेरे साथ भाव लोक में विचरने लगा था। निंदर यानी दस वर्ष का वह साहसी और संवेदनशील बालक जिसने विभाजन की त्रासदी बहुत गहरे तक झेली, जो मास्टर युसूफ़, सखा आसिफ़ को कभी नहीं भूल पाया। बालसखी नन्हो को भी नहीं। निंदर के साहस ने ही मुझसे बाल कहानी ‘नई तरक़ीब’ लिखवा ली जो ‘हिंदी चेतना’ में बाल दिवस के अवसर पर प्रकाशित हुई। नरेंद्र मोहन सर को यह सरप्राइज़ गिफ़्ट दिया था और वे बेहद ख़ुश हुए। अपने बचपन को मूर्त रूप में पाकर भला कौन ख़ुश नहीं होगा! 

नन्हे सुकोमल पलों ने स्मृति की पोटली में उनके कहे शब्दों को ही नहीं, भावों-विचारों को भी गुपचुप सहेज लिया था। संवाद के लगभग एक सप्ताह बाद उन्हें संवाद का लिखित रूप दिखाने के लिए मेरा जाना हुआ। मैंने डॉ. हरीश नवल से भी नरेंद्र मोहन जी के आवास पर आने का आग्रह किया था। हमने थोड़ी-बहुत बातचीत की। नवल सर ने प्यारी-सी सेल्फ़ी ली और बैठक में सुमन दी के पास चले गए, मैं मौन बैठी रही। नरेंद्र सर मेरी तरफ़ मुख़ातिब हो, सिर झुकाकर पढ़ने और संशोधन करने में लग गए। मैं देख रही थी कि उन्हें इस तरह गरदन झुकाकर पढ़ने में दिक़्क़त हो रही है। थोड़ी देर बाद मैंने टोका, “सर, आप अपने स्टडी टेबल की तरफ़ मुड़कर आराम से करेक्शन कर लें।” 

“वैसे में तुम्हारी तरफ़ पीठ हो जाएगी न! यह सलीक़ा थोड़ी न है कि किसी की तरफ़ पीठ करके बैठ जाओ।” 
सर ने मुस्कुराकर जवाब दिया और देर तक वैसे ही पढ़ते-संशोधित करते रहे। अंतत: मैं ही सुमन दी के पास बैठने का बहाना करके उठ खड़ी हुई, तब कहीं जाकर उन्होंने अपनी कुरसी स्टडी टेबल की तरफ़ मोड़ी। यह छोटी-सी बात मेरे लिए सबक़ बन गई। हर हाल में औरों को सम्मान देने का भाव उनके भीतर कितना गहरा था, यह बाद की मुलाक़ातों में स्पष्ट होता गया। 

संशोधन के बाद जब सर ने संवाद की प्रति मुझे लौटाई तो संशोधन बहुत अधिक थे। ये संशोधन वर्तनी सम्बन्धी नहीं, संवाद सम्बन्धी थे। मुझे हैरानी हुई, तब नवल सर ने बताया कि “वे अपनी कही या लिखी बातों को इसी तरह संशोधित करते हैं। देखो, उन्होंने तुम्हारी जिज्ञासा या संवाद-शैली पर पेंसिल नहीं चलाई है।” उस घड़ी अनायास मेरे मुँह से निकला, ‘मिस्टर परफ़ेक्शन’। नरेंद्र सर अपने हर काम को इतनी तल्लीनता, सुघड़ता और कलात्मकता से करते कि रचना में नववधू-सा निखार आना स्वाभाविक ही था। उस दिन उनकी कार्यशैली की मुरीद हो गई। 

एक अखंड सत्य जाना-समझा कि आत्मीय सम्बन्ध भौतिक या मूर्त मुलाक़ातों के मोहताज नहीं होते। नरेंद्र मोहन जी से मुलाक़ात गिनूँ तो औपचारिक मुलाक़ात 5-6 और अनौपचारिक 3 या 4, मगर कितनी लंबी ज़िंदगी जी ली! कितना कुछ पा लिया! सोचकर हैरान हूँ। फोन पर हम ज़्यादा खुले थे, इसका श्रेय भी उन्हें ही जाता है। वे सामने वाले पात्र के अनुरूप इस क़दर ढल जाते कि आपको एहसास भी न हो। 2019 के आरंभिक महीनों में सर पत्रों को संग्रह का रूप दे रहे थे। उनके स्नेहिल प्रस्ताव पर पत्र लिखा। पत्र क्या था, निंदर से जुड़ी मेरी संवेदना ने पत्र का रूप ले लिया और वह पत्र सर के अंतस् को छू गया। उन्होंने फोन कर, मुक्त कंठ से प्रशंसा तो की ही, जो कहा, वह उनके भाव-व्यवहार में सदैव नैसर्गिक रूप में दिखता रहा— “तुम इस घर का हिस्सा बन चुकी हो। जैसी सुमन, वैसी तुम!” कुछ दिनों बाद फिर किसी प्रसंग में कहा था, “तुम इस घर-परिवार तो हिस्सा हो ही, मेरे जीवन का भी हिस्सा बन गई हो।” उन्होंने जो कहा, जितना कहा, उससे कहीं अधिक निबाहा। सुमन दी ने भी हर बार स्नेह का गागर उड़ेला, जिसे शब्दांकित करना कठिन है। 

निंदर को सर ने ही मूर्त किया, जब पिता को खोकर बदहवास-सी लौटी थी। उनकी असहाय अवस्था दृश्य बनकर नाचती और मैं टूटन की ओर बढ़ती जा रही थी। सभी अपनों ने आश्वासन दिए, मगर सर ने वरिष्ठ की भूमिका रखते हुए भी मेरे सामने खिलंदर निंदर को खड़ा कर दिया। फोन पर मुझसे रोज़ बातें करना, बाबा से जुड़ी बातें सुनना, उसे लिखने के लिए प्रेरित करना और साथ ही मुझे हँसाने के नए-नए तरीक़े अमल में लाना उनकी दिनचर्या बन गई थी। अंतरंग मित्र ही कर सकता है ऐसा। अपनी तमाम व्यस्तता के बावजूद किसी को अवसाद के गहरे कुएँ से निकालने का काम इतना सरल नहीं, वह भी तब जब मिलना न हो, सिर्फ़ फोन के सहारे . . . मगर उन्होंने कर दिखाया क्योंकि उनके बात-व्यवहार में कहीं भी, कुछ भी बनावटी न था, जो था सहज-स्वाभाविक। सर के भीतर के साहसी, संकल्पी मगर अबोध बालक निंदर से तब अधिक खुलकर मुलाक़ात हुई और होती रही। उनके सहज, आत्मीय स्नेह, उनकी प्रेरणा-उत्प्रेरणा का चमत्कार हुआ तो मेरे भीतर सूखी कविता की नदी फिर जलमग्न होने लगी और कविताएँ स्वतःस्फूर्त्त हो, एक के बाद एक प्रकट होने लगीं; वाट्सएप्प के माध्यम से उन तक पहुँचने लगीं। वे इतने पर भी कहाँ रुकने वाले थे, मेरी हर एक रचना पर अपनी प्रतिक्रिया देते, चाहे वह लेखन के रूप में हो या यदा-कदा खींची गईं आड़ी-तिरछी रेखाओं के रूप में। वे मेरे पहले पाठक, पहले सलाहकार बने तो बने ही रहे। 

अहा! कितने सुंदर पल! 30 जुलाई वर्ष 2019! अवसर सर के जन्मदिन का। सर ने किसी और को नहीं बुलाया था। सुमन दी और ऋत्विक के साथ बेहद अनमोल क्षण बिताए हमने। उन पलों को समेट लेने के लिए जो तस्वीरें लीं वे सचमुच मेरे ख़ज़ाने का हिस्सा हो गईं। मुझे याद है, विश्व के कोने-कोने से सर को लगातार फोन आते रहे थे और वे हर फोन को रिसीव कर रहे थे। मैं महसूस कर रही थी उनका विश्व-परिवार, जिन्हें उन्होंने अपने निश्छल नेह की डोर से बाँध रखा था। यह बानगी-मात्र है हर एक के प्रति उनके अतुल स्नेह की। मेरी वापसी के समय उन्होंने सद्य:प्रकाशित कविता संग्रह ‘जितना बचा है मेरा होना' भेंट दी और कहा, “इस पर कुछ लिखना।” 

“आपकी किताब पर लिखना आसान है?” 

“तुम जीती हो रचनाओं को, इसलिए कह रहा।” 

सच ही तो कहा था उन्होंने क्योंकि इस संग्रह ने कवर पेज और अपनी चौरासी कविताओं के गूढ़ अर्थों में ऐसा लपेटा कि एक नहीं, दो नहीं, तीन बार पढ़ गई, मगर लिखने बैठूँ तो क़लम साथ न दे। इस संग्रह की हर कविता ने जाने कितने तहों में, कितने ही अर्थ समेटे हैं। हर बार नया अर्थ खुल जाता। एक वर्ष लग गया लिखने में, फिर एक नहीं, दो तरीक़ों से लिखी गई, मगर अब भी नहीं कह सकती कि आलोचना ने हर कविता को पूरी तरह खुलने का स्पेस दिया है। उन पर लिखी जितनी आलोचनाएँ पढ़ीं, सब अधूरी लगीं और यही बात जब उन्हें बताती तो वे मुस्कुराते, कहते “यही तो रचना की सफलता है।”

आत्मकथा के दोनों खंड, डायरी के दोनों खंड, कविताएँ, नाटक– कितना कुछ पढ़ गई, जज़्ब कर लिया, मगर उन पर लिखने के समय शब्द हमेशा कम पड़े या सही शब्द मिले ही नहीं। ‘कमबख़्त निंदर’ ने मुझसे बाल कहानी लिखवा ली तो ‘जितना बचा है मेरा होना’ ने प्रतिक्रियास्वरूप कई कविताएँ। यह स्वतः हुआ। किसी रचनाकार की रचनात्मक सफलता इससे बड़ी क्या हो सकती है कि कोई पाठक (रचनाकार) उनकी कृति की समीक्षा, आलोचना के साथ ही कई कविताएँ प्रतिक्रियास्वरूप सौंपे। और यह सब एक कृति पर एक के द्वारा किया जाए। जब मैं कहती, “मुझसे बड़ा प्रशंसक कौन?” 

वे कहते, “कोई नहीं! तुम तो जीती हो, तभी इतने फ़ॉर्म में लिख पाती हो। अभी क्या–अभी तो तुम्हें बहुत लिखना है।” 

6 अक्टूबर 2019 के वो यादगार पल! एक-दो मुलाक़ात के बाद कभी नहीं लगा किसी बड़े साहित्यकार से मिलने जा रही हूँ। सर के सहज-सरल व्यवहार ने मेरे मन से इस झिझक को धीरे-धीरे मिटाने में सफलता पा ली थी। नई पीढ़ी से मित्रवत व्यवहार कर, झिझक की गाँठें खोल देना सर की अद्भुत विशेषता थी। उस दिन, सुमन दी कहीं काम से बाहर थीं तो मेरे मना करने के बावजूद उन्होंने मेरे लिए जिस स्नेह से अदरक वाली चाय बनाई और ऋत्विक से स्नैक्स निकालने को कहा। मैं भाव-विह्वल थी। ऋत्विक इतना प्यारा बेटा है कि हर बार उसके साथ भी कुछ मीठे पल गुज़र ही जाते। मीठे पलों को कैमरे में क़ैद करने मैं अक़्सर ऋत्विक की ही मदद लेती थी . . . सर की सरलता-सहजता में उनके औदार्य की विराटता छिपी थी। उस दिन उन्होंने मेरे पिता से संबद्ध ढेर सारी बातें कीं और फिर ढेर सारी कविताएँ सुनीं, सुनने के क्रम में प्रतिक्रियाएँ भी देते जा रहे थे और मन ही मन गुनते जा रहे थे कि मेरी अगली किताब में कौन-सी रचना जाने योग्य है। सृजन के संदर्भ में उनके कहे शब्द आज भी राह दिखाते हैं—“सृजन जो है, वह बड़ी रेंज पर किसी संवेदना को या किसी एहसास को बचा देने की किसी भी कला की बहुत बड़ी सफलता हैं और अलग-अलग रूपों में–कहीं पेंटिंग में, कहीं संगीत में, कहीं चित्रों में–मगर आपके पास अभिव्यक्ति की क्षमता होनी चाहिए। अभिव्यक्ति के शब्द होने चाहिए। सृजन के माध्यम से एक बड़ी रेंज मिल सकती है।”

सर से किसी भी विषय पर—निजी, पारिवारिक, सामाजिक/राष्ट्रीय/अन्तर्राष्ट्रीय या साहित्यिक—सब पर खुलकर बात होती। उनसे हुआ सहज संवाद अक़्सर कोई गूढ़ सीख दे जाता जिस पर बाद के क्षणों में घंटों मनन होता। एक बार मैंने पूछा था, “दर्द की चीख़ और चीख़ों में दर्द को आपने जितनी सूक्ष्मता से आत्मसात् कर लिया है और जिसका स्पष्ट प्रभाव आपके लेखन पर दिखता है, क्या कभी उससे उबरने की कोशिश नहीं की?” 

उसी क्षण उनका ज़वाब था—“दर्द की अनुगूँजें हैं अब भी, क्योंकि दर्द की पीड़ा के संदर्भ व्यक्तिगत नहीं होते, वे सामाजिक भी होते हैं, राजनीतिक भी होते हैं। वे हमारे सामने घटित होते हैं। सामाजिक, राजनीतिक पीड़ा/ त्रासदी गाहे-ब-गाहे सामने आती हैं, विभिन्न परिस्थितियों में घेरती हैं। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता जाता है, नई परिस्थितियाँ/नई त्रासदियाँ घटित होती हैं। आज भी जब कहीं दंगा होता है, मुझे वो घटनाएँ याद आ जाती हैं। वो दंगों की एक कड़ियाँ हैं जो लगातार चलती आ रही हैं। हमारे देश में वो दंगों की दहशत हो और विस्थापन का दर्द हो। विस्थापन के भी अलग-अलग रूप हैं। ऐसा बार-बार होता रहा और व्यथित होता है मन। दर्द की पीड़ा और त्रासदी बहुत व्यापक रूप में बयान करती है और व्यक्तिगत पीड़ा के घेरों को तोड़ती हुई उसका एक व्यापक सामाजिक आकार बनता जाता है और वह वही है—कभी चीख़ के रूप में, कभी किसी और रूप में।” 

अपनी व्यस्तता के बावजूद आत्मीय संबंधों की, अभिभावक की तरह चिंता करना और प्रत्यक्ष में मैत्री भाव से मिलना उनका स्वभाव था। नेह की उनकी व्याप्ति मानव-मात्र तक ही सीमित नहीं थी, प्रकृति के कण-कण से प्रेम करते हुए वे इससे इतर अध्यात्म की सीढ़ी चढ़ने लगे थे। ‘जीवन और मरण आनंदमय हो जाता है जब प्रेम को उसके विराट रूप में देखा जाए’। ऐसे भाव उनके भीतर मौन की निःशब्दता से होते हुए, स्तब्धता की परिधि छूते हुए बाद के दिनों में काग़ज़ पर कविता का रूप लेने लगे थे। 

6 नवम्बर 2019 को फिर उनके आवास पर जाना हुआ। संभवत: उनके स्नेहिल आदेश का पालन करती हुई, उनकी पसंदीदा अपनी कविताएँ प्रिंट कराकर उसी दिन ले गई थी। उस दिन, तमाम बातचीत के बीच उनसे उनकी ज़ुबानी लंबी कविता ‘बहना बाई’ सुनना उस मुलाक़ात का सुंदर उपहार था। यों बीच-बीच में वे फोन पर भी अपनी कविताएँ सुनाते या भेजते, किन्तु सामने बैठकर, उनके स्वर में सुनने का आनंद ही कुछ और होता। बाद के दिनों में अपनी नई रचना के संदर्भ में बड़ी सरलता से पूछते, “कैसी लगी? . . . अच्छी नहीं लगी।” यह उनके हृदय की विशालता ही थी। फलदार वृक्ष के नमनशील होने की बानगी सर के व्यक्तित्व में सार्थकता पाती है। प्रतिभाओं को पाकर उसे उभारने का अनकहा प्रयास, मुझ जैसी दो पीढ़ी बाद के लेखक/लेखिकाओं को यह कहना:

“साहित्यकार कोई छोटा या बड़ा नहीं होता। वह उम्र से नहीं, लेखन से छोटा या बड़ा होता है। मैं तुम्हें भावनात्मक और वैचारिक स्तर पर एक वेवलेंथ पर पाता हूँ। तुमसे खुलकर बहस (विमर्श) की जा सकती है।” 

ऐसा कहकर निश्चित तौर पर वे मुझ जैसे परवर्ती रचनाकारों का आत्मविश्वास तो बढ़ाते ही थे, उन्हें उनके भीतर छिपी प्रतिभा और योग्यता का भी भान कराते थे। मुझे याद है, कई शिक्षण संस्थानों की भीतरी राजनीति से मेरा मन व्यग्र था, तब फोन पर उन्होंने बुद्ध के शब्द सौंपे थे—‘अप्पदीपो भव’। और उनके कहे पर मनन करती हुई मैं उस मनःस्थिति से उबर गई थी। उनके कहे सहज वाक्य कई बार मेरे लिए सूक्ति वाक्य हो जाते और उन कथनों पर विचार करना स्वयं को विकास-मार्ग पर ले जाने जैसी अनुभूति देता। कविता की सूक्ष्मता को देखने-परखने, उसकी गहराई में उतरने की मेरी समझ विकसित हुई है तो सर की कविताओं से और कविताओं के संदर्भ में उनसे संवाद करके। 

उसी माह, सप्ताह भी न बीता होगा कि सर का फोन आया। “मैंने कविताएँ देख ली हैं, मार्क भी कर दिया है। आ जाओ तो उस पर विस्तार से बात हो।” मैं हैरान! सर उन दिनों अपने लेखन-कार्य में व्यस्त थे, बावजूद इसके इतनी जल्दी! बहरहाल, जब गई और उन्होंने मेरी स्क्रिप्ट सामने रख दी, बोले, “देखो पलटकर . . . ” वास्तव में अवाक् होने की बारी अब थी। सर ने हर एक कविता को कितनी तल्लीनता से पढ़ा, उस पर मनन किया, इसका प्रमाण पेंसिल से खींची गईं वे लकीरें, वे शब्द और वे वर्गीकृत उपशीर्षक दे रहे थे। इतना ही नहीं, किस उपशीर्षक के भीतर कौन-सी कविता जाएगी, किस उपशीर्षक या खंड के भीतर कम कविताएँ हैं, किसके भीतर अधिक, वे कविताएँ जो बेहतर हैं मगर इन खंडों में नहीं रखी जा सकतीं आदि-आदि बातें स्पष्टतया मुखरित थीं। फिर उन्होंने कई निर्देश देते हुए कहा, “बस अब फ़ाइनल करो, तुम्हारी किताब अगले वर्ष आ जानी चाहिए। तुम्हारे पास अब भी इतनी अच्छी कविताएँ हैं कि एक और किताब बन जाए, मगर पहले यह . . .।” 

उस क्षण, सर की उदात्तता को नाप पाना कठिन था मेरे लिए। कुछ क्षण वैसे ही उन पन्नों को पलटती रही, उन पर सर द्वारा खिंची लकीरें और शब्द निहारती रही, बस! शब्द न फूटे। सर ने फिर टोका, तब पूछ पाई, “कैसे किया इतना कुछ? इतनी जल्दी!” 

“अरे मैंने तो इसे एक दिन में ही निपटा दिया . . . और देखो, सारी कविताएँ ध्यान से पढ़ी हैं,” वे हँसे। 

“इसलिए तो हैरान हूँ।”

“तुम जानती हो न, जब काम करने बैठ जाता हूँ तो फिर—शाम से रात 1 बजे तक बैठा रहा और हो गया।” 

“और आपका दर्द?” 

“छोड़ न! काम हो गया न! काम नहीं रुकना चाहिए।” 

मैं निःशब्द थी। बाद में नवल सर ने बताया कि सुधा की कविताओं को किताब का रूप देने की ओर नरेंद्र मोहन जी ने ही ध्यान दिलाया था। नरेंद्र मोहन सर साहित्य के जिस ऊँचे मुक़ाम पर हैं, उससे भी कहीं अधिक ऊँचाई उनके व्यक्तित्व की है। व्यक्तित्व ही युगांतरकारी बनाता है, क्योंकि तब केवल उनका साहित्य नहीं, उन पर लिखा गया साहित्य उन्हें युगों तक जीवित रखता है, यों कहें कि अमरता का वरदान दे जाता है। गाँधी अक़्सर कहा करते थे, ‘मेरे लिखे पर नहीं मेरे कर्म पर विश्वास करो’। वे मानते थे, जो लिखा, वह उस समय का सच था। बदलते समय के साथ स्थितियाँ-परिस्थितियाँ ही नहीं, मन की गति भी बदलती है। इसलिए उन्होंने कहा भी, “मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।” सर के लिए भी ऐसी ही प्रतीति होती है। समय-चक्र के साथ किस तरह मन की गति बदली और विचारों ने नई दिशा ली, यह सर की पिछले दो वर्षों की प्रकाशित-अप्रकाशित नई रचनाओं में दिख जाता है। 

8 दिसंबर 2019 की वह ख़ूबसूरत दुपहरी! मेरे आमंत्रण को उन्होंने स्वीकार किया और हरीश नवल सर ने उन्हें साथ लिवा लाने का दायित्व लिया। मयूर विहार के एक रेस्तराँ में हमने—स्नेह सुधा नवल मैम, सत्यवती कॉलेज की प्राचार्या मंजुला दास मैम, हरीश नवल सर और नरेंद्र सर सहित मैं—हम सबने कई घंटे साथ गुज़ारे, खाना-पीना, कविता, सुधा मैम की पेंटिंग और यादगार तस्वीरें—कितने ख़ूबसूरत पल सँजोए हमने। सर के बैके को लेकर मेरी चिंता बनी हुई थी, मगर उन्होंने ज़रा भी एहसास नहीं होने दिया। दूसरों की ख़ुशी के लिए ख़ुद को कष्ट देकर भी ख़ुश रहना संत स्वभाव होता है, यही स्वभाव पाया उनमें—हमेशा-हमेशा। उनकी अच्छाइयाँ दबे पाँव मेरे भीतर उतरती हुईं, मुझे समृद्ध करती गईं। 

एक और ख़ूबी मैंने अक़्सर नोटिस की, जब तक वे दर्द सह सकते, तब तक घर आने से कभी मना नहीं करते और उसी तरह प्रसन्न होकर स्वागत करते और पूरा समय देते; कोई दायित्व स्वीकार लेते तो फिर अपनी व्यस्तता या तकलीफ़ की ज़रा परवाह न करते और घंटों बैठकर काम पूरा करते रहते, भले ही बाद में तकलीफ़ बढ़ जाए। अगर बैठने की स्थिति में नहीं होते तो आने से रोक देते। उन्हें पसंद नहीं था कि कोई उन्हें लेटे हुए या उनके चेहरे पर दर्द की लकीरें देखें। 

वर्ष 2020-21 ने जीवन-रस सोख ही लिया। कई कारणों से मुलाक़ात की सूरत न बनी, इनमें से एक बड़ा कारण कोरोना की पहली लहर और लॉकडाउन रहा। फोन और मैसेज ने हमें जोड़े रखा। इस बीच उनकी पुस्तक पर अनूदित कई पुस्तकें आईं। उन्होंने कई अधूरी किताबें पूरी कीं, कुछ नया भी रचते रहे और पुराने के पुनर्मुद्रण की ओर भी सजग रहे। उनकी लगन, कर्मठता सचमुच हैरान करती। उनके समग्र साहित्य के खंडों में इज़ाफ़ा हुआ। चार खंड और प्रेस पहुँच गए जो 2021 के आरंभ में उनके सामने थे। उनका नया कविता संग्रह भी आ गया। कोरोना की दूसरी लहर देश-दुनिया पर हावी हो रही थी। 2020 में पहले शाहीन बाग़, फिर किसान आंदोलन, दिनोंदिन बिगड़ती देश की स्थिति ने उनके भीतर उपजी पीड़ा को सृजन की नई उर्वर ज़मीन दी और वे रचते चले गए। इस बीच विचार की एक दूसरी दिशा भी पुष्पित-पल्लवित हुई, जिसने जीवन-दर्शन, तत्व-दर्शन एवं ईश्वर-संबंधी रचना की नींव रखी। 30 जुलाई, 2020 को वह वीडियो बन पाई, जिसकी तैयारी अपना स्वर देकर 29 जुलाई को थोड़ी जल्दबाज़ी में की थी। इसलिए अपने स्वर के आरोह-अवरोह से संतुष्ट नहीं थी। सर भी देख नहीं पाए थे। जब उन्होंने देखा तो मेरी कमियों को ख़ूबी में बदलते हुए कहा, “चकित-विस्मित हूँ। इतना अच्छा भी हो सकता है इस कविता (बाहु फ़ोर्ट से तवी) का पाठ!” इसी तरह, दूसरी कविता (दिल्ली में लाहौर) की वीडियो देखकर कहा, “कविता के भीतरी स्तरों को छूने वाला संवेदनशील कविता पाठ।” उनके शब्द मेरे लिए अनमोल उपहार से कम नहीं थे। लॉकडाउन के दौरान उन्होंने काम की गति बढ़ा ली थी तो दर्द भी अधिक परेशान करने लगा था। जब मैं फोन पर नाराज़ होती (नाराज़ होने का हक़ सिर्फ़ मेरा था, उनका नहीं) तो आहिस्ते से समझाते, “निंदर तो तेरे साथ जीना चाहता है, लेकिन देह तो नरेंद्र मोहन की है। 20 साल तो नहीं, दस साल . . .। जाने क्यों उन्हें लगने लगा था कि ‘दस वर्ष साथ’ का वादा भी निभा न पाएँगे, मगर मेरी नाराज़गी और पीड़ित होने से डरते थे, फिर भी फोन पर परोक्षतः समझाने की कोशिश करते रहते कि “जो पल हैं, बहुत हैं।” 

न समझा पाने की स्थिति में कहते, “अभी से क्यों चुप्पी साध ली। अभी तो हूँ ही न!।” 

“आप आजकल ऐसी बातें क्यों करते हैं?” 

“देख! आरती! अपने हिस्से का जी लिया। अब तो जो साँसें हैं वह सरप्लस है। गिफ़्ट समझ ले। चाहता हूँ, चलता-फिरता चला जाऊँ। अब . . .” 

उनका अधूरा वाक्य, उसके बाद की चुप्पी मुझे किस हद तक परेशान करती थी, उन्हें समझाना कठिन था। कैसे समझाती? लॉक डाउन ने लोगों का परस्पर मिलना-जुलना ही बंद नहीं किया, लॉक डाउन समाप्त होने पर भी किसी के घर बिना अपरिहार्य कारणों के जाना बंद ही था। सर की सेहत को ध्यान में रखकर भी उनके पास जाना न हुआ। पूरा वर्ष आँख-मिचौली खेलता हुआ बीत गया। 

22 मार्च 2021 की सुबह! सर को कॉलेज से ही फोन किया, अनुमति ली और क्लास ख़त्म कर, चल पड़ी। लगभग 15 महीने बाद एक बार फिर वे उसी तरह इंतज़ार करते मिले, उसी तरह फिर ठहाके लगे; फिर सुमन दी के हाथ का सुस्वादु भोजन साथ में किया। उस दिन भी सर ने ही मेरी प्लेट सजाई और पहली बार मैंने उन अनमोल पलों को कैमरे में क़ैद कर लिया। उनके स्वर में कविता की गूँज को मोबाइल में सँजोया। कितनी ही बातें सहज प्रवाह में प्रवाहित होती रहीं! मंटो से लेकर पलों को पकड़ने तक और वहाँ से चलकर प्रेम के विस्तार और उसकी विराटता की अनुभूति में लीन होकर जीवन-मरण से समान रूप से प्रेम होने और वरण करने की बातें भी। पिछले वर्ष प्रकाशित कहानी संग्रह ‘सीट न. 49’ और सर के निर्देश पर उसी माह आया कविता संग्रह ‘मायने होने के’ साथ लेती गई थी। उनका कहा मेरे लिए ब्रह्म-वाक्य ही होता। यह भी उनके वात्सल्य और उससे भी अधिक साख्य भाव का ही प्रतिफल था कि उन्होंने अपनी कविता तो सुनाई ही, मेरी एक कविता को भी स्वर देकर उसे अमरत्व प्रदान कर दिया। अपनी शेल्फ़ पर जाकर कुछ किताबें निकालने को कहा, उनमें से अंग्रेज़ी में अनूदित पुस्तकें देते हुए बोले, “श्रुति (मेरी बेटी) को कहना पढ़ने।” (मेरे बच्चों से प्रत्यक्षतः मिलने का सुयोग नहीं बन पाया था, मगर श्रुति और अवि के लिए उनका आशीष हमेशा बरसता रहता) मुझे ‘अभंग गाथा’ दी। ‘मंटो ज़िंदा है’ सहित नाटकों का समग्र खंड आने वाला था और कविता संग्रह भी। “आने दे किताबें, तुझे भेज दूँगा। तेरे पास मेरी किताबें होनी ही चाहिए।” जाने को तत्पर हुई तो विदाई देते हुए हर बार की तरह बोले, “आज हमने क्वालिटी टाइम बिताया। तुम्हारा आना बहुत अच्छा लगा।” क्षण भर को लगा, मेरे भाव को सर ने शब्द दे दिया। शाम हो चली थी। मगर, सुमन दी ने चाय के लिए रोक लिया और इस तरह नियति ने मुझे कुछ और पल दे दिए। क्योंकि सर से दोबारा जो बातें शुरू हुईं, वह जीवन-दर्शन पर थीं। चपल निंदर कहीं नहीं था। सामने धीर-गंभीर चिंतक थे जिन्होंने कहा—“मृत्यु भी तो जीवन है। उससे भय कैसा? जब मृत्यु को नया जीवन मान लो और उससे भी प्रेम करने लगो तो फिर जाना जाने जैसा नहीं होता। और जीवन तो एक पल में जिया जाता है। . . . नहीं? . . . एक पल में आप पूरी ज़िन्दगी जी लेते हैं। बस, उस पल को, उस क्षण को पकड़ने की बात है। उस क्षण को पकड़ लो, फिर देखो! . . . नाटक में भी तो ऐसा ही होता है! है न! . . . और प्रेम कभी मरता नहीं है। वह शाश्वत होता है। . . . तुम भी तो ऐसा ही मानती हो।” मैं हैरानी से उनका चेहरा देखती हुई सहमति में सिर हिलाती रही, बोल न फूटे। आध्यात्मिक मार्ग, शाश्वत प्रेम, मृत्यु को नया जीवन मानने के मेरे विचार को सुनकर जो नरेंद्र सर मुझे हमेशा कहते थे, “क्या चोला बदलने की बात कहती रहती है! अभी से ऐसी बातें न कर! तुझे तो अभी बहुत कुछ देखना-करना है।” वे आज वही सब कह रहे थे, आत्मलीन से! मेरे सामने होकर भी दूर कहीं मौन को सुनते हुए! भाव से भरी विदा हुई। कहाँ पता था, आँख-कान पुनः प्रत्यक्षतः देख-सुन नहीं पाएँगे। फोन पर गाहे-ब-गाहे संवाद ज़ारी रहा। 26 अप्रैल को उनका अंतिम फोन आया, वस्तुस्थिति की जानकारी दी और 28 अप्रैल को मोबाइल पर लिखित दुआएँ मिलीं। वे दुआएँ, वे प्रार्थनाएँ प्राणवायु सदृश जीवनदायिनी हैं। उनकी ध्वनित-अध्वनित ध्वनियों की अनुगूँज वायुमंडल में व्याप रहीं, “एक बड़ी वेवलेंथ बने—सही शब्दों की और उस वेवलेंथ में हम (लेखक/पाठक) साथ-साथ चलें। आपका शब्द जब हज़ारों-लाखों लोगों तक पहुँचता है, उस शब्द में इतनी ताक़त होनी चाहिए कि वह सचमुच एक संवेदनात्मक वैचारिक वेवलेंथ हो जाए जो एक सुलभ संचार बन जाए। मेरे दिल से निकले और आपके दिल तक पहुँच जाए। एक लाइव कनेक्शन। दो लोगों को जोड़ने वाला लाइव तार।” 

देख रही हूँ सारी कायनात मौन के कुएँ से निकले उनके शब्दों से संवेदनात्मक वैचारिक सम्बन्ध बना रही। उन शब्दों में अंतर्निहित ध्वनियाँ देश-काल से परे व्याप रही हैं . . .। 

वर्ष: 2021

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