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बापू और मैं–004: अमृतकाल

हल्की-सी आवाज़ कानों को छूकर निकल गई . . . “यमुना किनारे सिर झुकाकर बैठी-बैठी किसका मातम मना रही है . . . तिरंगे के अपमान का या उसके निर्माता की दुर्दशा का?” 

“दोनों का,” बोल अपने आप फूट पड़े, फिर ध्यान आया कि ये आवाज़ तो . . . सिर उठाया तो चार फर्लांग की दूरी पर लाठी टेकते बापू मुंशी जी के साथ ख़िरामाँ-ख़िरामाँ आगे बढ़ते हुए मेरे पास आते नज़र आए। मुरझाया मन खिल उठा। न बोल फूटे, न झटपट उठ खड़े होने का शऊर आया। आँखों को यक़ीन नहीं हो रहा था तो वे मिचमिचाती रहीं। बापू लाठी टेकते हुए पास आ खड़े हुए। वही पुरानी, मोटे खद्दर की धोती, आधी-आधी . . . दो हिस्सों में बाँटे जाने पर भी साबुत! 

“समग्रता को नमन!” 

“मुंशी जी को देखकर लच्छेदार हिंदी में स्वागत कर रही है क्या?” मुंशी प्रेमचंद की ओर देखते हुए बापू ने मेरी खिंचाई करनी चाही। 

“युगनायक को प्रणाम!” 

“अब बोलिए गाँधी जी!” मुंशी जी हँस पड़े। “इसने तो हम दोनों का स्वागत निराले अंदाज़ में किया है। मैं तुमसे कई दिनों से मिलने की सोच रहा था . . .” 

 मुंशी जी मुझसे मुख़ातिब हुए। 

“मुझसे?” मेरी आँखें फैल गईं। 

“क्यों, राष्ट्रपिता तुमसे मिलने आ सकते हैं, मैं नहीं?” 

“नहीं . . . वो . . . मैं . . .” 

“अब तुम तो हमारे पास आ नहीं सकती . . . तो . . .।” 

“और अभी आना भी नहीं . . .” बापू बीच में ही बातों का सिरा पकड़ते हुए बोल पड़े। “अभी तुझे कई काम पूरे करने हैं। पहले ज़िम्मेदारी पूरी कर! इस माटी का क़र्ज़ उतार, फिर हमारी जमात में शामिल होने आना। गाँधी और प्रेमचंद की जमात में शामिल होना, मतलब काँटों की खड़ाऊँ पहनकर चलना है . . . इस सदी में तो यह और भी कठिन है। दुनिया तुझे पागल कहेगी . . . पागल। समझी!” 

बात पूरी करते-करते बापू हँस पड़े। मगर, आज उनकी हँसी में शरारत नहीं, सन्नाटा बरजता महसूस हुआ। इतना सघन कि भीतर तक हिल गई। मुंशी जी भी उनकी तरफ़ हैरानी से देखने लगे। 

“क्या हुआ मुंशी? कभी-कभी तुम्हें भी मेरी बात समझ नहीं आती न? तुम्हारी यह भक्त तुम्हारे और मेरे ‘राष्ट्र’ के निहितार्थ को परोसने में लगी है। हमारे सपनों का भारत . . . हमारे स्वराज का मतलब जिस तरह आज निकाला जा रहा है और निकाले जाने लायक़ दिमाग़ बनाया जा रहा है, उसी से यह परेशान है।” 

“सही तो है गाँधी जी! नई पौध तो नई पौध . . . युवा वृक्ष झूठ के कोंपल उगाने और सहेजने का माध्यम बनाए जा रहे हैं। मिट्टी से जुड़ा कोई भी भावुक मन परेशान तो होगा ही।” 

“जैसे तुम थे . . . मगर, तुम्हारा समय और था। वे लोग ग़ैर थे और . . .” बापू एक क्षण को मौन हो गए। “तुमने किसी कहानी में लिखा था न . . . कि . . .” 

“जॉन की जगह गोविंद के सिंहासन पर बैठ जाने से स्थितियाँ नहीं बदलेंगी . . .” 

“हाँ! यही! . . . तुझे तो सब याद है!” 

“बापू! मुंशी जी ने जो आशंका लगभग एक सदी पहले प्रकट की थी, वह आशंका आज सच में बदल चुकी है। हम केवल साक्षी नहीं हैं, भोक्ता भी हैं . . .” 

“और यही दु:खद है,” मुंशी जी के दिल से आह फूट पड़ी। 

“मैंने कब चाहा था कि ये ज़मीनी समस्याएँ एक सदी के बाद भी ज़िन्दा रहें। आज़ादी के 75 वर्ष! अमृतकाल! कैसा अमृतकाल! न-न! मैंने कभी नहीं चाहा था कि आज़ाद भारत अंग्रेज़ीदां मानसिकता का हो और मेरी रचनाएँ आज भी प्रासंगिक कहलाएँ। यह दुर्भाग्य है!” 

“तुम्हारी चाह! कैसी चाह?” बापू के स्वर में आवेश घुल गया। 

“क्या गोदान लिखने से पहले अपने आदर्श भारत की नींव हिलती तुमने नहीं देखी थी? क्या ‘गोदान’ नए भारत का भविष्य नहीं रच रहा था? भूख और ग़रीबी दो मुट्ठी स्वार्थ के लायक़ चालबाज़ी भी सिखा देती है और शहरी शोहदों की सोहबत में रंग-ढंग भी। होरी तब भी मरा, तब से अब तक मर ही रहा है और रूपा जैसी किशोरी परिस्थिति से समझौता कर ही रही है। गोबर हर घर से भाग रहा है, मगर कितने मेहता और मालती हुए जो इस आज़ाद भारत को सच्चे अर्थों में उसका गौरव ही नहीं, उसकी उदारता भी लौटा सकें?” 

मुंशी जी मौन रहे। बापू के स्वर कानों से टकराते-झकझोरते रहे . . . 

“और हाँ, एक बात और! तुम्हारा महानायक सूरदास अब कहीं नहीं! यहाँ भीख माँगना पिछले कई दशकों से ख़तरनाक पेशा बन चुका है। जॉन तो शह पा ही रहा, हमारी सहानुभूति का हक़दार वर्ग भी अब नई नई चालें चल रहा और सिर्फ़ अपनी सोच रहा है, इससे न तो उसके बड़े कुनबे का भला हो रहा है और न ही देश के सुविधाहीन लोगों तक सुविधाएँ पहुँच पा रही हैं। कई बार अधिक संरक्षण भी घातक होता है। कई जगह भस्मासुर की-सी स्थिति उत्पन्न हो चुकी है।” 

“ये आप कह रहे हैं आप तो आजीवन उनके उत्थान के लिए घर-परिवार और समाज से संघर्ष करते रहे। दक्षिण अफ़्रीका से ही आपने इसकी शुरूआत कर दी थी!” बापू की बात से हैरान मुंशी जी अब मौन तोड़ा। 

“सही कह रहे हो। मगर मैंने कभी किसी को निठल्ला बनने नहीं दिया। उन्हें झकझोरा, जगाया और अपनी शक्ति पहचानने को कहा। भीमराव ने भी यही चाहा, यही किया। उसने तो यह भी नहीं चाहा था कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी आरक्षण दिया जाता रहे। वह ख़ुद इसे अकर्मण्यता की पहली सीढ़ी मानता था। चेतना जगाना और बात है, थाली परोसना और बात! अपने अधिकारों की समझ तभी बनेगी जब सही मायने में शिक्षा ग्रहण की जाएगी।” 

“और सही मायने में शिक्षा तभी ग्रहण की जा सकती है जब सबको एक समान समझा जाए।” मुंशी जी ने बापू की बात का सिरा पकड़ा, “आज भी जो ग़रीब है, वही पिसा जा रहा है। जिसने पद पा लिया, उससे उसकी जाति-धर्म कोई नहीं पूछता। अफ़सोस इस बात का है कि पद पाने के बाद वे मुट्ठी भर लोग अपने बड़े कुनबे को छोड़ निजी कुनबे की उन्नति तक सिमट जाते हैं। शिक्षा का सही मतलब खोने लगा है गाँधी जी! आज से नहीं . . . कई दशकों से। हालात बहुत नहीं बदले हैं! प्रधानाचार्य पीट-पीटकर दलित बच्चे को मौत के मुँह में धकेल देता है और उसकी अमानवीयता को ढँकने की कोशिश की जा रही है। अगर वह बच्चा धनी परिवार का होता तो क्या ऐसा किया जाता? . . . वह भी इस युग में जब बच्चे को पीटना अपराध माना जा रहा है। घृणा और नफ़रत के ऐसे पुतले शिक्षण संस्थान में बच्चों को क्या संस्कार देंगे?” 

“ठीक कहते हो तुम! नीची जात का ग़रीब ही पद-दलित है और इनके उत्थान के लिए ही साथियों सहित मैंने और तुमने कार्य किए। भीमराव तो भुक्तभोगी ही था। मगर एक बड़ा सच यह भी है, जब एक बोतल देसी शराब के लिए कोई मोहरा बनने तैयार हो तो कोई क्या करे या मानवाधिकार का दुरुपयोग कर, कोई उसका लाभ डिग्री और धन पाने के लिए करे तो क्या उसे शिक्षित या चैतन्य कहोगे? तुम्हारा महानायक सूरदास तो कहीं नहीं, मगर बाक़ी पात्र अपने उन्हीं गुण-दोषों के साथ मौज़ूद हैं . . . क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता?” 

मुंशी जी की दृष्टि बापू के चेहरे पर टिकी तो टिकी ही रही। गहन अवसाद उनके चेहरे पर धूप-छाया करता रहा। कई मिनटों तक कुछ बोल न सके। मेरी नज़र कभी बापू तो कभी मुंशी जी पर जा टिकती। 

“बापू! आज इधर कैसे?” मैंने बात की दिशा बदलनी चाही। 

“देखने आया हूँ अमृतकाल का महा उत्सव। . . . और तुझे भी . . .। कंक्रीट के भीतर बिछे तारों के जाल कब कहाँ तांडव मचा दें, कोई नहीं जानता! सब विश्व प्रेम की बात करते हैं और तबाही का प्रशिक्षण देते हैं। ऐसा प्रशिक्षण जिसमें हर देश की युवा ऊर्जा नष्ट होती है, युवा कलाइयाँ सूनी होती हैं और दूधमुँहा बच्चा अपने पिता को तस्वीरों में देखते हुए बड़ा होता है। आम जन कहीं के हों, धीरे-धीरे दूध-शक्कर की तरह घुल ही जाते हैं, मगर उनमें से कुछ के भीतर ज़हर तो कुछ के भीतर रसायन इस तरह भरे जाते हैं कि . . .” 

“बापू! अभी तो आपको कई चीज़ें बदली दिखी होंगी। प्रेम और भाईचारे का नारा लगाते वे लोग भी दिखे होंगे जो पीठ पीछे अपने लोगों की कमियाँ गिनाने से नहीं चूकते; जिन्हें तिरंगे का सही अर्थ नहीं पता और न ही उसके रेशे-रेशे में बसी स्वदेशीपन की ख़ुशबू से वे वाकिफ़ हैं। आक़ा को विश्व रिकॉर्ड बनाना था, पॉलिस्टर और प्लास्टिक के झंडों का ज़ोरदार व्यापार हुआ . . . करोड़ों में . . . न गाँधी के विचार थे, न खादी। ‘तिरंगा’ की जो दुर्गति देखी है, अब तक सिहर रही हूँ। ताली, थाली और अब ये तिरंगा का आडंबरी अभियान! फोन पर आम आदमी को तिरंगा के साथ सेल्फ़ी के लिए प्रमोट किया जाता रहा। यों भी सेल्फ़ी की बीमारी बड़ी तेज़ी से फैल रही है। आडंबर और प्रदर्शन के रेलमपेल में जो नहीं दिख रही, वह है आम आदमी की टूटती कमर,” मुझसे रहा न गया तो बीच में बोल पड़ी। 

“आप दोनों मानते हैं न कि देश का मतलब आम आदमी है और वह त्रस्त है। फिर भी, पिछले एक दशक से भी कम समय में पिछले अड़सठ वर्षों में लिए गए क़र्ज़ से तीन गुना बढ़े क़र्ज़, तीन गुनी बढ़ी बेरोज़गारी, कई गुना बढ़ी महँगाई, अच्छे शिक्षण संस्थानों और अस्पतालों की कमी के बावजूद आम समाज के एक बड़े हिस्से ने आत्महत्या नहीं की है, क्या यही कम संतोष की बात है!” 

“सही कहती हो। मैं देख रहा हूँ, निरीहों की गरदन दबी हुई है, कोई कराह सके, यह भी हालत नहीं। चीखना-दहाड़ना तो दूर की बात है। . . . और . . . और मेरी क़लम चुप है।” 

“मुंशी जी! सोने के सिंहासनों और पुतलों के पाँव तले दबा है आम आदमी का कंठ, दिल और गुर्दा। आप क्या-क्या देख पाए हैं और क्या–क्या देखेंगे? देख पाएँगे क्या सब कुछ . . .?” 

“ऐसा क्यों कह रही है?” 

“बापू! जो दिख रहा है, सच उतना ही नहीं। कोरा और कड़वा सच आम जन झेल रहा है, उसपर किसी का ध्यान न जाए, इसके लिए जाने कितने आडंबर रचे जा रहे हैं! मूलभूत समस्याएँ दिनों-दिन सुरसा बनती जा रही हैं मगर उसपर आम जन भी स्थिर होकर सोचने लायक़ दिमाग़ नहीं बचा पा रहा है।” 

“समझा नहीं!” बापू के चेहरे पर प्रश्न की मुद्रा थी।

“बापू! यह भी एक कड़वा सच है कि मीडिया ने दिलो-दिमाग़ को अनबुझ तरीक़े से अपंग बना दिया है। कॉरपोरेट सेक्टर के साथ ही दूसरे कई विभागों के लोग ख़ुद ही मशीन बने हुए हैं, बाक़ी समस्याओं को सोचने की उन्हें फ़ुरसत कहाँ है! फ़ुरसत के क्षण मॉल, हॉल, बाज़ार, शेयर मार्केट की खोज-ख़बर, पार्टियों और मुफ़्त चैनलों द्वारा परोसे जा रहे समाचारों को आँख मूँदकर, कानों से घोंटने के अलावा वे कर ही क्या सकते हैं! जो बाहरी कामों से मुक्त हैं उनकी एक बड़ी जमात की मानसिक और बौद्धिक अपंगता के लिए बहुत कुछ है इन चैनलों के पास। . . . और कठिनाई यह है कि यह रोग उनके बुद्धि-विचार को न सिर्फ़ धीरे-धीरे कुंद करता जाता है बल्कि आवेश से भरता भी जाता है। नतीजा! परिवार और समाज के सहज संबंधों में मीडिया से निकले ज़हर घुलने लगे हैं। यह सच और ऐसे कई सच बिना पैठे नहीं दिख सकेंगे।” 

“हे राम! अच्छा हुआ तुमने अपने पास बुला लिया। कलेजा छलनी हुआ जाता है।” 

“गाँधी जी! आपका राम है कहाँ? अगर होता तो महल के बंद दरवाज़ों में सो न रहा होता और पुजारियों के हाथों सेवा न करवा रहा होता! झट दौड़ा आता! अमीरों के देवता कब ग़रीबों की पुकार सुनते हैं!” 

“तुमने तो कालाराम मंदिर प्रवेश सत्याग्रह आंदोलन की याद दिला दी। भीमराव ने अपने साथियों के साथ इसका नेतृत्व किया था। सच्चा सत्याग्रह! सफल सत्याग्रह! कितनों ने जानें क़ुर्बान कीं, मगर किसी ने हिंसा का मार्ग नहीं अपनाया। मुझे भीमराव के सफल नेतृत्व पर गर्व है। . . . और तुमपर भी! कर्मभूमि में तुमने इस आंदोलन को साकार चित्रित कर दिया। और कुछ ऐसे ही आवेश में तुम्हारा वह पात्र भी था। क्या भला सा नाम था उसका . . .” 

“बापू, ‘शांति कुमार’। मुझे तो उस पात्र में स्वयं मुंशी जी अवतरित दिखते हैं।” 

“ठीक कहती हो। अन्याय को देखकर आवेश न आए और उसके प्रतिकार के लिए मन व्याकुल न हो तो क़लमकार होने का अर्थ ही क्या! . . . और मुंशी तो सिर से पैर तक समाज के वंचित हिस्से के लिए संवेदना से भरा है। उसके दर्द को गहराई से महसूस करता है।” 

“मुंशी जी! महँगाई, भुखमरी, बेरोज़गारी, अच्छी शिक्षा, पर्याप्त अस्पताल, हर शहर में अच्छी मज़बूत सड़क . . . इन बातों को क्षण भर के लिए भूल जाइए। अब आपको कुछ और दिखाऊँ। क्या आप देख पा रहे हैं, पिछले कुछ वर्षों से कुछ सिरफिरों ने बापू को खलनायक सिद्ध करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। अब तो उनकी तस्वीरें भी उन जगहों से हटाकर यह जताने की कोशिश की है कि बापू और अंबेडकर परस्पर विरोधी विचारधारा के थे और भगत सिंह उनकी ही चुप्पी के कारण फाँसी चढ़े। इसलिए बापू की तस्वीर न लगाकर शेष दोनों की लगाई गई हैं। लोगों के दिमाग़ में बापू के ख़िलाफ़ ज़हर भरता जा रहा है। भरने वालों में कुछ तथाकथित शिक्षित भी हैं और विद्वान् भी। . . . हैरान हूँ . . . परेशान भी।” 

“समझ सकता हूँ,” मुंशी जी की आवाज़ में निराशा उभरी। बेचैनी की परत उनके चेहरे पर गहराने लगी। बापू मौन रहे। वे वहाँ होकर भी मानो कोसों दूर हों। चेहरा सपाट! कोई भाव नहीं! 

“देख रहा हूँ, इतिहास में आमूल-चूल बदलाव के लिए क़र्ज़ लेकर ख़र्च की गई धनराशि, रुपये की गिरती दर, पूँजीवादी व्यवस्था के लिए आम जन का दोहन . . . न सिर्फ़ वर्तमान बल्कि भविष्य भी दाँव पर लग गया है,” अचानक बापू का गंभीर स्वर उभरा। 

“नफ़रती आँधी ने भी कई एक की आँखों को अपनी चपेट में ले लिया है। वे निष्पक्ष देख ही नहीं सकते।” 

“ठीक कह रहे हो मुंशी!” 

“लेकिन इसके अवसादित होने से क्या होगा?” 

मुंशी का सीधा इशारा मेरी तरफ़ था। बापू ने नज़र मेरे चेहरे पर टिका दी। 

“मुंशी जी! चिंतित हूँ, मगर अवसाद में नहीं। अकेली नहीं हूँ। बापू की लाठी की ठक-ठक और आपकी क़लम मेरी चेतना को मुरझाने नहीं देगी। बुद्ध आपा खोने नहीं देंगे और स्वामी विवेकानंद साहस चुकने नहीं देंगे। कुल मिलाकर समृद्ध हूँ।” 

“तो सत्य की राह बढ़ी चलो,” बापू के अस्फुट स्वर फूटे। 

“देखो, देखो क्षितिज की ओर!” मुंशी जी ने इशारा किया और अपनी रौ में बोलते रहे, “देखो, गोधूलि का म्लान चेहरा! क्या यह स्थायी है? नहीं! कौन कहेगा यह थोड़ी देर पहले मनभावन सुनहरी बेला थी। गोधूलि भी सच जानती है . . . यह अवसाद की चरम बेला अस्थायी है, टल ही जाएगी और उसका यह रूप फिर बदलेगा।” 

मुंशी जी की दृष्टि आस-पास खड़े, नहाए-धुले पेड़ों पर टिक गई। बापू की आँखों से प्रेम बरसता नज़र आया। आसपास की हरियाली भले ही बेतरतीब जंगल भर थी, मगर बापू खो-से गए। सावन की फुहारों ने आज वैसे भी उमस कम कर दी तो मैं घूमती-घूमती इस ओर आ निकली थी और धुले-धुले पत्तों की हरीतिमा से बँधी यहीं बैठ गई थी। सिर उठाकर देखा तो कलियों ने अपने ऊपर अब भी बूँदों को सँभाल रखा था और उनसे बतिया रही थीं। धीमी-धीमी हवा कभी-कभार उन्हें छेड़ देती तो बूँदें थरथराने लगतीं और उनको सँभालने की कोशिश में कलियाँ जुट जातीं। 

“अहा! कितना सुहावना मौसम है!” 

“जी!” 

“आओ, ज़रा किनारे-किनारे घूमते हुए चलें, बात भी होती रहेगी।” 

“जी, अच्छा।” 

हम तीनों मौन ओढ़े बढ़ चले। हवा का संगीत कानों को प्रिय लग रहा था। गिलहरी की घंटी-सी चटक ध्वनि वातावरण में मधुरता घोल रही थी। कितनी ही देर हम सब मौन रहे . . . अब यह मौन सन्नाटे की बरजन से अलग था सालवन के संगीत-सा। घूमते-घूमते ज़रा दूर निकल आए तो बापू की नज़र अचानक एक बोर्ड पर लिखे वाक्य पर पड़ी। उसे मन ही मन पढ़ते हुए वे मुस्कुराने लगे। 

“जिस हिंदुस्तानी हिंदी से राष्ट्र को एकसूत्र में बाँधने की बात मैं कहता रहा, जिसका प्रयोग कर इतने बड़े-बड़े आंदोलन चलाए और बाद में जिसके लिए मुझे मेरे अपनों ने ही असहमति के साथ दायित्व-मुक्त किया, देखो उसी हिंदुस्तानी हिंदी ने नवाबराय को प्रेमचंद बनाया और न सिर्फ़ प्रेमचंद बनाया, एक सदी से कथा सम्राट बनाए बैठी है और मुझे खलनायक। हाहाहा . . .” 

बापू का मौन तो टूटा, मगर इस विस्फोट के साथ कि हम दोनों हैरान रह गए। बापू ने बोलना जारी रखा, “और देखो, आज भी राष्ट्र उसी हिंदुस्तानी हिंदी के बल पर एकजुट है। यह एकता आम लोगों की बोली में विचरती है और दिलों में घर करती है। अपनी ही संस्था से मैं त्यागपत्र देकर निकला था। भविष्य दिख रहा था–मज़हब और भाषा के नाम पर होने वाली टकराहट की तीखी आवाज़ मेरे कानों ने सुन लिए थे। आज समय ख़ुद को दोहरा रहा है। वही आँधी फिर चली है।” 

“चली नहीं है बापू! . . . पहले भी चलाई गई थी, फिर चलाई जा रही है। और आज स्थिति यह है कि बोलियाँ हिंदी से कमतर समझी जाने के कारण ख़ुद को भाषा के रूप में स्थापित करने की जद्दोजेहद में हैं। क्या भविष्य होगा हिंदी का? भाषा की राजनीति ने हिंदी को कमज़ोर ही किया है, मज़बूत नहीं। जिन बोलियों ने हिंदी को बाँहों में झुलाया, उसे समृद्धि दी, उन्हें ही अवहेलित किया गया और कुछ एक को माथे का चंदन बनाया गया। विस्फोट तो होना ही था, हुआ। होता ही जा रहा है। आप दोनों तो अब सब देख सकते हैं। देख ही लेंगे वह भी . . . जो भविष्य के गर्भ में है। मगर कुछ कर पाएँगे क्या?” 

“भाषा और प्रांत के नाम पर राजनीति की भट्ठी में लकड़ी तो उसी समय सुलग चुकी थी, रही-सही कसर वर्ण और जातिभेद ने पूरी कर दी। वे तमाम लोग . . . संत, महात्मा, सत्याग्रही, क्रांतिकारी, लेखक, शिक्षक, किसान-मज़दूर, छात्र, युवा, युवती . . . जिन्होंने जीवन का बलिदान दिया . . . और मैं ख़ुद भी तो आपके आह्वान पर आपसे बिना मिले आपके उसूलों का संगी हो गया। जो धर्म गिरे स्वास्थ्य के कारण मैं न पूरे कर सका, शिवरानी ने कर दिया। मगर आज की स्थिति! क्या कहूँ, समझ नहीं पा रहा।” 

“तुम्हारे कहने को कुछ बचा भी हो तो कहोगे किससे? पिछले सौ वर्षों से तुम्हें ज़िन्दा रखने का ढोंग रचते ये लोग अगर तुम्हारे लिखे को समझते तो क्या आज तक समाज में वे बुराइयाँ जीवित होतीं? मेरी बात तो जाने ही दो। हँसी आती है और दया भी। कभी सुभाष को मेरा विरोधी बनाकर खड़ा करते हैं और फिर उसका पुतला बनाकर कुछ वोट जोड़ते हैं तो कभी भीमराव को मेरा प्रतिद्वंद्वी बनाकर अँधेरे में खड़े युवाओं को बरगलाते हैं। सच क्या है, उनसे पूछना, फ़िलहाल इससे भी पूछ सकते हो . . . किसी मुद्दे पर वैचारिक मतभेद को प्रतिरोध का रंग देना और आम जनता की भावना का उपयोग वोट की राजनीति के लिए करना आज पक्ष-प्रतिपक्ष का ध्येय बन गया है।” 

“बापू समस्या यहीं तक नहीं। राजनीति में शिक्षा का प्रवेश हो तो राजनीति में कुछ सकारात्मक बदलाव आएगा, ऐसा लगा था, मगर ज्यों-ज्यों क़रीब गई, शिक्षितों की कूटनीतियों से अचंभित होती रही। शिक्षा का मंदिर पूरी तरह राजनीतिक अखाड़ा बना हुआ है, जहाँ दलों में बँटे कई विद्वान् प्रेम और भाईचारा, धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्द को निरर्थक साबित करते हुए विशेष शिक्षा दे रहे हैं। जब इक्कीसवीं सदी में एक ग़रीब दलित के नाबुध बच्चे के मंदिर प्रवेश करने पर उसके माता–पिता को उनकी औक़ात से कहीं ज़्यादा जुर्माना सहित, मंदिर परिसर धुलने की सज़ा दी जा सकती है तो कहाँ टिकता है वैचारिक विकास का सच! क्या इसी दिन के लिए आपने उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक में दलितों के उत्थान के लिए दिन-रात एक कर दिया था? क्या इसी दिन के लिए बाबा साहेब ने महाराष्ट्र में मंदिर प्रवेश सत्याग्रह आंदोलन चलाया था? क्या लाभ हुआ उन शहादतों का? जो ग़रीब है वही वर्णवाद की चक्की में पिस रहा है। यह कड़वा सच जाने कब बदलेगा!” 

“तुम्हारी निराशा समझता हूँ। पिछले वर्ष और हाल की घटना ने तुम्हें टीस से भर दिया है, यह भी समझता हूँ मगर . . .” 

“मगर क्या? . . . हम सब रोबोट बन जाएँ या आँखों पर घोड़पट्टी पहने पशु . . . या . . .” 

“रुक . . . रुक! याद कर स्वामी विवेकानंद ने क्या कहा था, तू उन्हें अपना आदर्श मानती है न!” 

“जी! कहा था . . . ‘तरंगों को बह जाने दो . . .’” 

“तो बह जाने दे आवेश के तरंगों को। शांत हो जा! शांत मन अंतर्ध्वनि सुनता है। मैंने हमेशा उसे सुनी, उसकी सुनी, निर्देश को समझा और अमल करता गया। तुझे भी यही मंत्र देकर जा रहा हूँ। यह काल अमृतकाल में बदल सकता है। सच की राह चलती जा, सौ छूटेंगे, हज़ार टूटेंगे, मगर कोई एक साथ होगा और यों ही एक से एक मिलकर ग्यारह और एक सौ इक्कीस . . . बनता जाएगा कारवाँ! और जब थकने लगो इस बूढ़े की इस टेढ़ी लाठी को याद कर लेना। जब ये नहीं झुकी न टूटी और न ही मुझे झुकने दिया, फिर तू कैसे झुक सकती है, टूट सकती है! याद रखना! रखेगी न? और जब क़लम डगमगाए तो मुंशी को याद कर लेना। . . . क्यों, ठीक कहा न!” बापू बात का रुख़ मुंशी जी की तरफ़ मोड़ते हुए पूछ बैठे। 

“बिल्कुल ठीक!” मुंशी जी ने हामी भरी। 

“चल, अब चलता हूँ। तू भी घर जा,” आशीर्वाद की धप पीठ पर देते हुए बापू बोले। फिर ज़रा रुककर बोले, “तू अमन का पैग़ाम लेकर साथियों के साथ ‘दोस्ती यात्रा’ पर गई थी!” 

“हाँ बापू!” 

“उस यात्रा में क्या तूने मुझे कभी दूर पाया? . . . नहीं न! तो फिर? . . . जानता हूँ, असत्य और आडंबर तुझे पीड़ा से भर देते हैं और जब पीड़ा असह्य होती है तब . . .। मगर, अब बुद्ध की तरह सोना सीख, स्वामी विवेकानंद की तरह चिंतन करना . . . और मेरी तरह सुस्ताना।” 

 उनकी आँखें नम हो आईं। मैं बापू का पिघलना देखती रही और बापू कहते रहे . . . 

“यह क़लम का सिपाही तुझसे मिलने आया है, इसका मतलब समझती है न? इसका मान रखना!” 

“हाँ बापू!” गरदन सहित हाथ उनके चरणों की तरफ़ झुक गए। बापू ने प्यार से सिर पर हाथ फेरा और मुड़ गए। मैं एकटक देखती रही . . . वे चार क़दम संग-संग बढ़ते हुए . . .

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