मेरी दोस्त
बाल साहित्य | बाल साहित्य कहानी डॉ. आरती स्मित15 May 2023 (अंक: 229, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
सक्षम आज कक्षा में कुछ परेशान-सा रहा।
सुबह रमा मैडम ने ‘चोरी की आदत’ पढ़ाते हुए कहा था, “घर में भी बिना पूछे कोई चीज़ लेकर बाहर जाना भी एक तरह की चोरी है, यही आदत बाद में हमें ग़लत रास्ते पर ले जाती है।”
रमा मैडम की बात सुनकर वह उदास हो गया।
“क्या हुआ, सक्षम? क्यों इतने उदास हो?” आधी छुट्टी में रवि ने पूछा।
“क्या मैडम ने कुछ कहा?” शशि से न रहा गया, तो वह भी पूछ बैठा।
“नहीं, कुछ नहीं।”
“फिर खेलने चल ना!” रवि ज़िद करने लगा।
“ मेरा मन नहीं, तुमलोग जाओ,” सक्षम ने टालना चाहा।
“ठीक है, हम भी नहीं जाते! अच्छा बताओ, कल केंटीन पार्टी करें?” अवि ने पूछा।
“नहीं, मैं अब कभी पार्टी नहीं करूँगा। तुम लोग जाओ यहाँ से,” वह चीखा।
घंटी बजी। सभी अपनी-अपनी सीट पर चले गए। सक्षम मेज़ पर सिर टिकाए पड़ा रहा। शिखा मैडम ने सक्षम को मेज़ पर सिर टिकाए देखा तो उसके पास जाकर पूछने लगीं, “तबियत तो ठीक है ना?”
“पता नहीं, मैडम इसे क्या हुआ है?” शशि ने कहा।
“सक्षम!” मैडम ने प्यार से पुकारा।
“मैं गंदा बच्चा हूँ,” वह सिर झुकाए रहा।
“किसने कहा?” मैडम हैरानी से उसे देखने लगीं।
“मैं माँ से बिना पूछे ही उनके बैग से रुपये निकालकर स्कूल लाता रहा और केंटीन पार्टी करता रहा। मुझे मालूम नहीं था कि यह चोरी . . .!”
वह सुबकने लगा।
“हम्म!” कुछ सोचती हुई शिखा मैडम बोलीं, “तुमने जानबूझकर ऐसा नहीं किया ना! माँ को सच-सच बता दोगे तो वह नाराज़ नहीं होगी।”
“सच?”
“हम्म!”
घर पहुँचते ही सक्षम दौड़कर माँ के पास गया। माँ उसके लिए पूरियाँ बना रही थी।
“आ गए बेटा! हाथ-मुँह धुल लो, मैं खाना निकालती हूँ।”
“माँऽऽ,” सक्षम आगे बोल न सका।
“क्या हुआ सक्षम?”
सक्षम ने एक साँस में सबकुछ कह डाला और सिर झुकाकर खड़ा हो गया। माँ प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरती हुई बोली, “तो क्या हुआ? तुमने बिना पूछे मेरे ही बैग से पैसे लिए ना! मेरे पैसे तुम्हारे ही तो हैं।”
“लेकिन! तुमसे कभी पूछा नहीं, न बताया . . . मैंने चोरी की ना!”
“हट पगले,” कहकर माँ खाना निकालने लगी।
“माँ, सॉरी . . . सॉरी!”
सक्षम रो पड़ा। वह रोता रहा, सॉरी-सॉरी कहता रहा और माँ उसे कलेजे से लगाए सहलाती रही, चुपचाप! मन का गुबार निकल गया। वह शांत हो गया। उसे लगा, कमरा दूधिया रंग से भर उठा है और माँ नई-नई-सी दिख रही है—दोस्त की तरह, जिससे वह कुछ भी साझा कर सकता है। उसे अपने अंदर भी कुछ बदलता-सा लगा। हल्की रोशनी मन में झिलमिलाने लगी। उसका रोना थम चुका था, मगर फिर भी वह देर तक माँ से चिपका रहा। माँ उसे सहलाती-दुलारती रही तो उसकी उदासी कम होती गई।
माँ ने खाना परोसा और अपने हाथ से खिलाने लगी। आज बहुत दिनों बाद माँ के हाथ से खाना उसे बहुत अच्छा लगा।
रात में खाने की मेज़ पर जब उसने भोजन के बरतन से ढक्कन उठाया तो चेहरे पर ख़ुशी तैर गई। माँ ने सब कुछ उसकी पसंद का बनाया था—पूड़ी, चिली पनीर, मंचूरियन . . . और खीर भी।
“माँ, तुमने डाँटा भी नहीं और खाना भी मेरी ही पसंद का बनाया है।”
“तुमने सच कहने का साहस किया। इसका इनाम तो मिलना चाहिए ना!”
सक्षम के मुँह में पहला निवाला डालती हुई माँ बोली।
‘क्या सबकी माँ इतनी ही अच्छी होती है? . . . अब मैं माँ से कभी कुछ नहीं छिपाऊँगा।’ उसने माँ की तरफ़ देखकर सोचा और उठकर माँ को चूम लिया।
(कहानी संग्रह ‘गूगल भैया एवं अन्य कहानियाँ’ में संकलित)
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