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प्रायश्चित

 

खिड़की जाली से टकराती हल्की-हल्की रोशनी पर्दे से छन-छनकर कमरे के भीतर आ रही थी। उमस तो थी, मगर मौसम गर्म नहीं कहा जा सकता था। बारिश के आसार नज़र आ रहे थे, मगर बूँदों ने तो घंटों पहले आँख-मिचौली खेलना बंद कर दिया था। वह अपने कमरे में अकेला बैठा किसी उधेड़बुन में लगा रहा। जी जाने कैसा-कैसा हो रहा था। शिवानी की बातें उसे रह-रह कर कचोट रही थीं। 

‘आज सखी का जन्मदिन है और मैं इतना पराया हो गया कि एक फोन करने का साहस नहीं जुटा पा रहा हूँ। कहाँ, आख़िर कहाँ चूक हो गई मुझसे? . . . मैंने तो हमेशा उसे ख़ुशी देने की चाह रखी थी, फिर क्यों कुछ खिंची-खिंची-सी रहने लगी; परेशान और बुझी-बुझी? क्यों बार-बार कहने लगी कि मेरे शब्द ही नहीं, उसके प्रति मेरे भाव भी खोखले हो चले हैं जिसे सह पाना कठिन है। क्या मतलब था इसका? मुझे देखकर जो चहक कानों को सुनाई देती रही थी, वह रुँधे स्वर में क्यों परिणत हो गई। . . . कहाँ चूक हो गई मुझसे?’

बेचैनी बढ़ी तो उठकर टहलने लगा। ‘क्या सचमुच मैंने उसकी परवाह की थी? . . . उसकी जिसने मुझे दोबारा जीना सिखाया?’ उसने ख़ुद से प्रश्न किया तो सिवाय तूफ़ानी हवा के संग-संग उठती-गिरती, ख़ुद को लहूलुहान करती लहरों की चोट के सिवा कुछ सुनाई न दिया। 

‘मेरे भीतर समंदर का शोर बढ़ता जा रहा है, खारे पानी में प्यास बढ़ती जा रही है। अजीब-सी बेचैनी घेरे जा रही है मुझे। 63 साल की इस जंग लगी देह के भीतर मुरझाए मन में जो नया फूल खिला था, वह तो पँखुरी-पँखुरी टूट चुका, अब क्या शेष रहा जो इतनी पीड़ा हो रही है!’

सीने को हाथ से मलते हुए उसने एसी का रिमोट उठाया और एसी तेज़ कर, फिर बिस्तर के पायदाने पर बैठ गया। आँखें दीवार घड़ी पर टंग गईं। 

‘दोपहर के दो बजने वाले हैं। खाना भी बनाना है। 66 का हो गया हूँ, कब तक प्रेमा के नियम निभाते हुए चूल्हा-चौका सँभाल सकूँगा, पता नहीं! उसे आँख से कम दिखाई देता है, घुटने से लाचार है, मगर नियम-धर्म की इतनी पाबंद कि किसी का स्पर्श किया भी नहीं खाती है। पिछले सोलह वर्षों से गृहस्थी की गाड़ी इसी तरह धकियाती चल रही है। नौकरी थी तो सिर पर इतना दबाव होकर भी दबाव न लगता था, सहकर्मियों और मित्रों के बीच लगे ठहाकों में मन की थकान उतर जाती थी। मगर अब, सेवा-निवृत्ति के बाद! अब क्या कहूँ उससे? कैसे समझाऊँ कि घर में दिन-रात बँधकर जीना कितना मुश्किल है! वर्षों की रूटीन में जीने की आदत क्या अचानक बदली जा सकती है? आह!’ 

उसे सिर के भीतर कुछ रेंगता-सा महसूस हुआ। ‘अब नहीं!’ वह लुढ़क गया, वैसे ही पैर लटकाए। आँखें मुँद गईं। समंदर का शोर तेज़ और तेज़ होता रहा। धीरे-धीरे वह शोर चीख में बदलने लगा। 

“सखी!” वह बुदबुदाया। “कहाँ खो गई तुम? क्यों खो गई तुम? क्या मैं सचमुच बुरा हूँ? इतना बुरा कि . . .” आवाज़ हलक़ में अटककर रह गई। 

‘कोर गीली हो गई है। मैं रो रहा हूँ? मगर क्यों?’ 

‘तुम्हें सचमुच नहीं मालूम?’ उसे लगा आवाज़ उसी समंदर को चीरकर उसके कानों तक पहुँची है। 

♦    ♦    ♦

“आज खाना नहीं बनेगा क्या?” 

पत्नी की आवाज़ उसके कानों से टकराकर लौट गई। वह वैसे ही बिस्तर पर पड़ा रहा। 

”सुनते नहीं हैं जी!” पत्नी ज़रा नज़दीक आकर बोली, “आज व्रत रखने का विचार है? इतना बेला हो गया, पड़े-पड़े क्या सोच रहे हैं?” 

“मेरी तबियत ठीक नहीं लग रही है। तुम कुछ खा लो।” 

“क्या हो गया तबियत को? दो घंटा पहले तो भले-चंगे थे। फोन सुनकर कौन दुनिया में चल गए?” 

“क्या बकवास कर रही हो? क्या खाना बनाने के सिवा कोई काम नहीं मेरे पास?” 

“है ना! . . . के बहाने . . .” कानों ने सुनने से इनकार कर दिया। लगा, समंदर अब सीना चीरकर बाहर आ जाएगा और बहा ले जाएगा सब कुछ। वह चीखना चाहता था, मगर, आस-पड़ोस की सोचकर चुप्पी साध ली और ख़ून की घूँट पीकर रह गया। 

‘गँवार औरत! इससे तो कुछ कहना बेकार है! पिछले कुछ दिनों से देख रहा हूँ, मुझ पर निगाह रखी जा रही है। अब तो बच्चों के भी कान भरने शुरू कर दिए हैं। क्या मेरी अपनी कोई ज़िन्दगी नहीं! वर्षों बाद मुस्कुराहट लौटी थी, उससे मिलने के बाद अपनी सुध लेनी शुरू की थी। वर्षों बाद ख़ुद को एक बार फिर निहारा था और वर्षों बाद दोस्तों ने मेरी सूनी आँखों में लौटती चमक देख ली थी। समंदर का खारा जल आहिस्ते-आहिस्ते मीठे सोते में बदलता जा रहा था। अपने अंदर के इस बदलाव से मैं कितना चकित था . . . कितना ख़ुश! सखी ने मेरे रीते जीवन का पोर-पोर भर दिया था।’ 

उसने हथेली में कोर से छलकी बूँदें सँजो लीं। उसे याद आया जब इसी तरह सखी के सामने कोर गीले हुए थे तो अपनी उँगली की शिरा पर उसे सहेजते हुए वह बोल पड़ी थी, “देखो, यह नमी तुम्हारी सहजता की थाती है। इसे इधर-उधर मत छलकाना। इसका मूल्य कोई नहीं समझेगा। . . . और न ही हमारे सम्बन्ध की इस ख़ूबसूरती को . . . तुम्हारे घरवाले तो बिलकुल नहीं। इक्कीसवीं सदी में जीते हुए भी हम कितने पिछड़े हुए हैं न! . . . दिमाग़ से एकदम पैदल! जहाँ चंद रोज़ दो स्त्री-पुरुष साथ-साथ हँसते-ठठाते दिख गए कि कल्पना के बेलगाम घोड़े बहकने छोड़ देते हैं।” 

“सही कह रही हो।” 

“ऐसा न हो, तुम भर जाओ और मैं रिक्त हो जाऊँ।” 

उसकी हँसी में सेंध लगाती उदासी अनदेखा करते हुए हँस पड़ा था वह, “मैं इतना बे-मुरव्वत नहीं! ऐसा कभी नहीं होगा, निश्चिंत रहो।” 

‘ओह! कितने विश्वास से मैंने सखी को विश्वास दिलाया था, मगर जब-जब उसे मेरे साथ की ज़रूरत हुई, मैं, उसका सखा . . . ’ उसने आँखें बंद कर लीं। वह नहीं चाहता था दुनिया की घिनौनी सोच को सोचना, मगर वह अनकहे अदृश्य बरछी से घायल होता जा रहा था। ‘तो क्या कोई मेरी केयर करे, यह ग़लत है? मेरी केयर करनेवाले के सुख-दुःख में साझेदारी निभाऊँ, यह ग़लत है? क्या ग़लत है . . .? मैंने कभी घरेलू ज़िम्मेदारी से मुँह नहीं मोड़ा। मुँह मोड़ा तो उससे . . . हाँ! मैं झूठा हूँ, स्वार्थी हूँ।’

♦    ♦    ♦

“जीजाजी, क्या हुआ? ऐसे काहे पटाए हुए हैं? किसी से कौनों बात तो नै हो गया?” 

“नहीं, बस! थोड़ी देर चुप और अकेला रहना चाहता हूँ, इतनी मेहरबानी करोगे,” बग़ल वाले मुँहलगे पड़ोसी को जवाब देकर उसने फिर आँखें मूँद ली। ”जाते समय कमरे का दरवाज़ा भी भिड़ाते जाना,” आँखें बंद किए-किए ही उसने कहा। दरवाज़ा बाहर की तरफ़ से बंद हुआ कि भीतर, समंदर की लहरें आँखों से निर्बंध बह निकलीं। खारा ही खारा पानी – चारों तरफ़! 

रोशनियों ने खिड़की से ताका-झाँकी छोड़ दी थी। साँझ घिरने लगी। अँधेरा दबे पाँव कमरे में अपने पाँव पसारने लगा। वह एकटक छत निहारता रहा। छत देखते-देखते ओझल हो गई, उसे लगा वह खुले आसमान में उड़ने लगा है। ऊपर और ऊपर नीचे के शोरगुल से दूर, छिटकी चाँदनी के आग़ोश में! उसे अपनी ही आवाज़ सुनाई दी, ” लोबान में चिंगारी जैसे कोई रख जाए। यूँ ही याद तेरी शब भर सीने में सुलगती है . . . सखी! सखी!! कहाँ हो तुम?” 

“यहीं तो हूँ, तुम्हारे पास, बस तुम देख नहीं रहे!”

“मज़ाक छोड़ो।” 

“मज़ाक! वह तो तुमने मेरा बना दिया है। मैं न कहती थी कि बरगद के नीचे कभी कोई लतिका पनप नहीं सकती। ज़िन्दगी भर बरगद उस पर हावी रहेगा। तुमने भी मेरे साथ वही भूमिका निभाई। नहीं पूछूँगी क्यों? तुम सब एक जैसे होते हो। स्त्री-मन से खिलवाड़ करने वाले! मैं ही मिली थी तुम्हें!” आवाज़ गूँजी। 

“मुझे ग़लत मत समझो सखी! प्लीज़! मन में तमाम तरह की बातें उमड़ती-घुमड़ती रहती हैं, जिनकी कोई निश्चित शक्ल नहीं होती। उन्हें पकड़कर कोई रूपाकार बनाना चाहो तो बनता नहीं। एक कोलाज बनता है जिसमें सब गड्ड-मड्ड होता है।” 

“सही कहा तुमने, सब गड्ड-मड्ड! और सारे भावनात्मक सम्बन्ध राख!”

“ऐसा नहीं है। काश! तुम मुझे पहले मिली होती तो . . .”

“तो क्या? क्या हो जाता? जिससे तुमने पहली मुहब्बत की थी, उसका हाथ थामने की तो हिम्मत न कर सके, घरवालों के विरोध के भय से कहा तक नहीं। कभी सोचा, उस लड़की पर क्या बीती होगी? क्या वह कभी इस चोट को भूल पाई होगी कि उसने एक कायर से प्रेम किया था, जिसने उसे टाइम पास मूँगफली की तरह उपयोग किया। तुम क्या समझोगे स्त्री मन, मगर क्या उसे छोड़कर तुम कभी ख़ुश रहे? पत्नी मिली, बच्चे हुए, नौकरी की, नाम कमाया सब कुछ पा लिया तुमने, पर क्या रिक्तता पूरी ज़िन्दगी तुम्हें सालती नहीं रही? सच स्वीकारने की हिम्मत होनी चाहिए, जो तुममें न तब थी, न अब है,” आवाज़ रुँधने लगी। 

“तुम सच कह रही हो। मैं उसे कभी भूल नहीं पाया। उसे कभी मिला नहीं, मगर . . . ज़िन्दगी जितनी ख़ूबसूरत दिखती है, उतनी हो नहीं पाती। उस ख़ूबसूरती में उदासी का भी अपना रंग है। इसे एक तरह से निस्पृह भाव भी कह सकती हो। सब में शामिल सबसे विलग। इन सभी भावों से मिलकर ज़िन्दगी की एक पूरी तस्वीर उभरती है . . . हम कहाँ के दना थे! किस हुनर में यक-तन थे!” आह के साथ शेर फूट पड़ा। 

“हुनर! संवेदनाओं से खेलने का हुनर है ना तुममें! और क्या चाहिए?” तिलमिलाती आवाज़ निकली। 

“ऐसा न कहो सखी! मैं तुम्हारे एक-एक स्पंदन और धड़कन को अपने भीतर महसूस करता हूँ, मगर . . . मैं तुम्हारा दोषी हूँ। कोई वादा निभा न सका। साथ होकर भी साथ हो न सका। मुझे माफ़ कर दो। इतना यक़ीन रखो, तुम्हारे साथ ता-उम्र जीवन-सफ़र करना चाहता था . . . चाहता हूँ। यह मेरा, हाँ मेरा स्वार्थ है।” 

“सबके सामने कह सकोगे?” 

“क्या?” 

“मेरी दोस्ती तुम्हें जीवन देती है।”

“क्या सम्बन्धों का ढिंढोरा पीटा जाना ज़रूरी है।”

“बेशक ढिंढोरा न पीटो, मगर उसे वह सम्मान तो दो जो मैंने दिया। वैसे भी दाग़दार सम्बन्ध छिपाए जाते हैं, पाक़ रिश्ते को डर कैसा?” 

आवाज़ गूँजती हुई उसके भीतरी परतों में धँसने-उतरने लगी। समंदर सूख चुका था। चेतना लौट चली थी। वह बिस्तर से उठा। बत्ती जलाई। कमरे का दरवाज़ा खोला और बाहर निकल आया। पत्नी सोफ़े पर बैठी किसी सोच में डूबी नज़र आई। वाश बेसिन में हाथ-मुँह धोया, रसोई जाकर चाय बनाई और पत्नी को चाय का प्याला पकड़ाते हुए, बैठक में लगे नए गद्देदार सोफ़े में धँस गया। चाय की एक-एक घूँट स्मृति के नए-नए द्वार खोलने लगी। वह उन्हें जी भरकर जी लेने को बेचैन हो उठा। 

“आता हूँ।”, कहते हुए तेज़ी से बाहर निकल गया। पार्क की ओर बढ़ते क़दम ठिठके, वह मुड़ा और ऑटो को आवाज़ देकर उस पर बैठ गया। 

 “कहाँ जाना है सर?” 

“सेक्टर 15 के पार्क के पास उतार दो।”

“मगर, अभी तो पार्क बंद होने को होगा!”

“कोई बात नहीं। अब तुम चलाने पर ध्यान दो।” उसकी संयत आवाज़ खीझ में बदलने लगी थी।

♦    ♦    ♦

“लो आ गया साहब!” ऑटोवाला बोला और मीटर चेक करने लगा। उसने 100 का नोट पकड़ा दिया और तेज़ क़दमों से सड़क किनारे फ़ुटपाथ पर चढ़ गया। चहल-पहल के बावजूद वह अकेला था। अकेला होकर भी वह यादों की भीड़ में से एक-एक याद को सामने रखकर महसूसना चाहता था, वह हर एक क्षण जो उसने सखी के साथ बिताए थे। मुख्य द्वार घुसते ही दायीं ओर लगी सीमेंट की कुरसी पर बैठकर उसने चैन की साँस ली, ‘अब कोई थोड़ी देर टोकेगा तो नहीं।’ सिर पीछे टिकाकर आँखें बंद ही की थी कि “अंकल जी मैं यहाँ बैठ सकती हूँ?” नाज़ुक-सी महीन आवाज़ उसे तीन वर्ष पूर्व ले गई, जहाँ इसी तरह सखी ने उससे बैठने की इजाज़त माँगी थी और थोड़ी देर की ख़ामोशी के बाद शुरू हुई बातचीत ने अपने आप दोनों के बीच की औपचारिकता की दीवार गिरा दी थी। उसे याद आया, पहल उसी ने की थी। 

“सर, मैं स्टुडेंट दिखती हूँ, हूँ नहीं!” कहकर खिलखिला पड़ी थी वह। “मगर आपकी सीनियोरिटी के हिसाब से स्टुडेंट जैसी ही होऊँगी,” वह फिर मुस्कुराई थी। 

शुरू में जाने-अनजाने मुलाक़ात होती रही, बाद में जान-बूझकर। वह उसकी बातों में जीवन-रस पाने लगा था। सेवानिवृत्ति के बाद शिथिल हो रही ग्रंथियों में सुगबुगाहट-सी शुरू हो चली थी। उसे अपनी शिराओं में नई ऊर्जा बहती महसूस होने लगी तो सब कुछ नया-नया, ख़ूबसूरत लगने लगा। एक दिन ऐसी ही ढलती, स्याह हो रही शाम को उसने इसी पार्क में हौले से उसका हाथ थामकर पूछा था, “मेरे जीवन में तुम उषा की तरह नई रौशनी लेकर आई हो। क्या मैं तुम्हें सखी कह सकता हूँ?” 

“सखी” शब्द सुनकर वह भावुक हो उठी थी, “सर! आपने मुझे मेरे दोस्त की याद दिला दी।”

“सॉरी!”

“नहीं, कहिए! मुझे अच्छा लगेगा। उसकी याद ताज़ा होती रहेगी।”

“तुम भी मुझे ‘सर’ नहीं सखा बुलाओ तो अच्छा लगेगा।” 

“कोशिश करूँगी। कोई सखा बन सकेगा, इसमें संदेह है, मगर आपने सखी माना है तो सखी को ही पाएँगे।” 

वह मुस्कुराई थी। उस मुस्कान में नमी थी, शायद अतीत का कोई अध्याय पन्ना पलटने लगा था। कमल की पंखुरी खुली, फिर खुलती चली गई। उसे ताज्जुब हुआ। शिवानी के साथ के वे क्षण गुपचुप उसे कई रंगों से भरने लगे और उन्हीं क्षणों में वह समझ पाया था कि इस मासूम खिलखिल हँसी में कितनी पीड़ा है! . . . और एक दिन अचानक बातों-बातों में उसने वादा दिया था, 

“सखी! तुम कभी ख़ुद को कमज़ोर या अकेला मत समझना,” और आश्वासन भरा हाथ उसके हाथ पर रख दिया था। 

♦    ♦    ♦

‘मैं उसका साथ दे पाया . . . शायद नहीं! उतना तो बिल्कुल नहीं! हाँ, उसके बाद ख़ुद से प्यार करने लगा। उसने मुझे नेह से सराबोर कर दिया। दोस्त, सलाहकार, शुभचिंतक—सब बन गई, मगर मैं कब कैसे उसकी पीड़ा का कारण बनता चला गया, समझ न पाया! साथ देने का वादा निभा न सका। ओह! लगातार मेरे दोहरे व्यवहार के कारण ही वह मानसिक संतुलन खोने लगी थी, इतनी-सी बात मैं समझ न पाया! और उस दिन भी मेरे इंतज़ार में टूटती रही होगी! मैंने ही तो वादा किया था। जन्मदिन बाहर मनाने को उसने कब कहा था! फिर . . . क्यों ऐसा किया मैंने? बार-बार उसकी छोटी-छोटी ख़ुशियों को पैसे से ख़रीदे तोहफ़े से ख़रीदना चाहा, कितना ग़लत था मैं! वह पलों को जीने वाली और मैं अपने लिए तो उन पलों को चुराता रहा, मगर उसके लिए उसके हिस्से के पल न सौंप सका!’ 

आँखें बंद किए ख़ुद से जवाब-तलब करता, ख़ुद को धिक्कारता वह यों ही पड़ा रहा। भीतर का अंधड़ बाहर सुनाई न देता था। वह किशोरी थोड़ी देर में उठकर दूसरी बेंच पर चली गई थी। अब उसका चेहरा उसके दोस्त के आग़ोश में छिपा था। उसने उधर देखने की बहुत कोशिश न करते हुए भी देख लिया कि दोनों आसपास भूलकर उस पल को जी रहे हैं। 

‘मैं भी तो जीने लगा था तुम्हें! सखी! मैं स्वार्थी हो गया था। सिर्फ़ अपनी सोची, तुम्हारी नहीं। तुम नाराज़ होकर भी मेरी फ़िक्र में लगी रही। मगर, तुम्हारा स्नेह हार गया; भरोसा दम तोड़ गया। तभी तो उस शाम, हाँ–हाँ उसी शाम, फोन पर तुम्हारा एक वाक्य गूँजा, “काश! मैं तुमसे नफ़रत कर पाती!” कहाँ पता था, यह तुम्हारा अंतिम वाक्य होगा! फिर खो जाओगी ज़िन्दगी से . . . तुम खो गई। मैंने तुम्हें अपनी ज़िन्दगी से खोने दिया! भूल मेरी थी, मैं ही सुधारूँगा। अब और देर नहीं!’ वह उठा और बग़ैर आसपास ध्यान दिए पार्क के द्वार की तरफ़ बढ़ गया। क़दम उड़े-से जाते। 

♦    ♦    ♦

“प्रेमा! मैं कल शिवानी से मिलने जाऊँगा। शिवानी याद है न तुम्हें?” कुरता उतारते हुए उसने पत्नी की तरफ़ भरपूर निगाह डाली। पत्नी की सवालिया नज़रें उस पर टिकी रहीं, मुँह से शब्द न फूटे। 

“तुम्हारी नज़रों में उभरते शक को देखकर मैं कमज़ोर पड़ गया था, डर गया था कि घर टूट जाएगा। अब तक नौकरी की, देश-दुनिया घूमता रहा तो तुमने कभी रोका-टोका नहीं, पूरी जवानी गुज़र गई। और अब किसी से मन मिला तो . . .।” 

“और हम क्या दूसरे के पास जाते रहे? अब शरीर बूढ़ा गया तो . . .” 

“क्या बुढ़ापा तुम पर ही आया है? मुझ पर नहीं?” उसके सवाल पर पत्नी की चुप्पी गहराने लगी। 

“क्या रिटायर होने का मतलब है, तुम्हारे सिवा किसी से खुलकर न हँसूँ-न बोलूँ? किसी के सुख–दुःख में समय पर जा न सकूँ? जिसने मुझे इतनी ख़ुशियाँ दीं, उसकी ख़ुशियों का ख़्याल न रखूँ? शिवानी तो घर आकर तुमसे मिली है। फिर क्या बात हुई जो तुम्हारी नज़रों में शक उभरने लगा?” 

“आप उसके पास जाने के बाद घर भूल जाते थे।” 

“क्या भूला? क्या रसोई के काम निपटाकर नहीं जाता था?” 

“सब कुछ खाना है क्या?” 

“तो? तुमसे बात-व्यवहार ख़राब किया?” 

“आप अपने में ख़ुश, अपने में मगन रहने लगे थे।” 

“मगन तो मैं पहले भी रहता था। फ़र्क़ इतना था कि भीतर से ख़ुशी महसूसना भूल गया था . . . एक बार फिर भूल गया हूँ। तुम नहीं समझोगी . . . न तब तुम्हें समझा न सका, न अब समझा सकूँगा। काश! तुम्हें समझाने का गुर मुझे आता तो घुट तो न रहा होता!” 

“तो हम कब रोके आपको, जाइए!” 

“हाँ, जाऊँगा! देर हो चुकी है। बहुत देर! मैं फिर भी जाऊँगा, माफ़ी माँगने जाऊँगा। सुन रही हो न तुम! . . . मैं इस अपराधबोध के साथ अब और साँसें नहीं ले सकूँगा।” 

वह हाँफने लगा। कुछ पल उन दोनों के बीच ठिठके रहे। सन्नाटा गूँजता रहा। अचानक वह बोली, “जब जाइएगा, तब जाइएगा, फोन तो कर लीजिए।” 

पत्नी की आवाज़ कानों को प्यारी लगी। उसने पत्नी की तरफ़ देखा। उसके चेहरे पर न आवेश था न उलाहने का भाव। हाथ जेब से मोबाइल निकालकर नंबर मिलाने को तत्पर हुए। फोन ऑन हुआ मगर दूसरी तरफ़ गहरी ख़ामोशी पसरी रही। 

“मैं जानता हूँ, तुम हो। सखी! मत रूठो! इस बार, अंतिम बार माफ़ कर दो! . . . जा के ये राज़ खुला आज ज़ुदा होने पर/ तुझसे इतनी थी मुहब्बत, मुझे मालूम न था . . . जन्मदिन की बहुत-बहुत बधाई सखी . . .।” 

गला रुँध गया। नम आँखें प्रेमा पर टिकी रहीं और कान सिसकती लहरों की आवाजाही सहेजते रहे . . .

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टिप्पणियाँ

Dr Padmavathi 2024/04/15 11:00 AM

क्या विवाहिता नारी बुढ़ापे में पति के सामने इस तरह के तथाकथित पवित्र रिश्ते / दोस्ती को बना /निभा सकती है ?? क्या पति ,पुरुष, समाज उसे इसी सहृदयता के साथ अनुमति देगा? दे सकता है? क्या समझने का जिम्मा केवल नारी के खाते में ही आया है? कई सवाल हैं अनसुलझे। पर एक सुंदर परिपक्व शिल्प ! बहुत बधाई ।

सरोजिनी पाण्डेय 2024/04/05 12:47 AM

बहुत सुन्दर। मुझे तो नायक से अधिक प्रेमिल हृदय प्रेमा का लगा, यदि वह अपना अधिकार चाहती है तो भरपूर उदार भी है, नायक सचमुच भाग्यशाली है।

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