हमारे देश की गरिमामयी अपराजिताएँ
आलेख | ऐतिहासिक डॉ. आरती स्मित1 Nov 2023 (अंक: 240, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
‘नारी तुम संजीवनी हो
और सुधारस जीवन की
सौम्या हो तुम भावमयी
कवि की कोमल कल्पना’
‘संजीवनी’ के रूप में मान्यता निश्चय ही नारी-गरिमा को उद्घाटित करता है। अनादिकाल से नारी-शक्ति को विविध रूपों में मान्यता मिलती रही है। सृष्टि-संचालन, व्यवस्था और ऊर्जा-स्रोत, शक्ति-स्वरूपा नारी का वर्चस्व जग-स्वीकृत है। जीवन का व्यावहारिक पक्ष प्रतिपल देवी के रूप में नारी से प्रतिफलित होता रहता है। ज्ञान, ऐश्वर्य और शक्ति की अधिष्ठात्री के रूप में माँ सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा पूज्य हैं तो अपनी अपने तपोबल से देवों को भी शिशु बनाकर मातृत्व पद को अमर बनाने के लिए देवी अनसूया। पर-पुत्र पर अतुल वात्सल्य न्योछावर करने वाली माता यशोदा तो प्रेम को आध्यात्मिक उत्कर्ष देनेवाली राधा। भक्ति को प्रकर्ष तक पहुँचाने वाली शबरी और मीरा हुईं तो युद्ध भूमि में जौहर दिखानेवाली रानी कैकेयी। विभिन्न कालखंड गवाह हैं कि सृष्टि-चक्र और सभ्यता के उत्कर्ष में नारी ही मूल-स्रोत रही है। यह समस्त धरा का सच है, जिसे समेट पाना किसी की भी लेखनी के लिए दुष्कर है।
पावन भारतभूमि अपनी गरिमामयी अपराजिताओं के ज्ञान, विवेक और शौर्य के बल पर सदैव पूज्या रही। भिन्न-भिन्न कालखंडों में उनकी स्थिति-परिवर्तन में परिवेश का सुदृढ़ हाथ रहा, किन्तु कोई भी काल और कोई भी परिवेश नारी अस्मिता को पूरी तरह दबा न सका। काल के गर्भ से अपराजिताएँ अवतरित होती ही रही हैं।
सिंधु घाटी सभ्यता का अवलोकन करने पर नर-नारी के सैंधव जीवन-शैली में विकास और स्त्रियों का कलाप्रेम भग्नावशेषों में परिलक्षित है। रायबर्न के कथनानुसार, “स्त्रियों ने ही प्रथम सभ्यता की नींव डाली है और उन्होंने ही जंगलों में मारे-मारे भटकते हुए पुरुष का हाथ पकड़कर अपने स्तर का जीवन प्रदान किया तथा घर बसाया।”
वैदिक काल में आचार-व्यवहार को नियत करने तथा जीवन-पद्धति को सुचारु बनाने के लिए वेद की रचना की गई तो इसकी श्रुति रचना में गार्गी, कन्नगी, लोपा, मुद्रा, विकटनितंबा आदि ऋषि कन्याओं ने अपने ज्ञान का सहयोग दिया। इनमें शास्त्रार्थ-प्रवीणा गार्गी का नाम कालजयी है। उपनिषदकाल में मैत्रेयी जैसी विदुषी तापसी ज्ञान के क्षेत्र में नारी का वर्चस्व सिद्ध करती है। ईसा से 500 पूर्व वैयाकरण पाणिनि ने स्त्रियों द्वारा वेद अध्ययन का उल्लेख किया है। स्तोत्रों की रचयित्री ‘ब्रहमवादिनी’ कहलाईं। पतंजलि ने ‘शाक्तिकी’ शब्द प्रयोग किया है, जिसका अर्थ है ‘भाला चलानेवाली स्त्री’। संभवत: यह प्रयोग हमारे देश की वीर मूलनिवासिनियों के लिए किया गया हो, या उस समय उच्चवर्णी स्त्रियाँ शस्त्र-विद्या सीखती हों। हालाँकि वर्ण-व्यवस्था के पश्चात अन्य जाति की आम स्त्रियों की शिक्षा का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। रामायणकाल में आर्य स्त्रियों के लिए मर्यादाएँ रची जा चुकी थीं, चौखट तय हो चुकी थी, फिर भी युद्धभूमि में अपने पति राजा दशरथ की सारथी बनी रानी कैकेयी की सूझबूझ और वीरता को झुठलाया नहीं जा सकता। इतना ही नहीं, राम का वनवास-प्रसंग आर्य-संस्कृति के विकास हेतु रानी कैकेयी की दूरदृष्टि का परिणाम था। इसी प्रकार वन में, ऋषि आश्रम में प्रश्रय लेती सीता अपने आत्माभिमान की रक्षा करते हुए अपने पुत्रों को न केवल जन्म देती है, वरन् क्षत्रियोचित शिक्षा-दीक्षा और संस्कार से भी पूर्ण करती है। संसार भले ही केवल पत्नी के रूप में याद करें किन्तु एक सशक्त माता के रूप में देवी सीता नारी-समाज का प्रेरणा-स्रोत हैं। इसी काल में अनार्य जाति मंदोदरी और शूर्पनखा भी हुईं, जो अपनी संस्कृति में, स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व की गाथा सुनाती हैं। मिथ से इतर कई प्रसंग उनकी बुद्धिमता और चारित्रिक सबलता का प्रमाण देते हैं। यहाँ तक कि वानर संस्कृति में भी स्त्रियों का सबल अस्तित्व स्वीकृत है। ‘उत्तररामचरित’ में लव-कुश के साथ ‘आत्रेयी’ नामक स्त्री द्वारा शिक्षा ग्रहण करने का प्रसंग तत्कालीन समाज में सहशिक्षा की नींव घोषित करता है। महाभारत काल में, कुंती और द्रौपदी का सशक्त चरित्र कई ऐतिहासिक प्रसंगों से प्रमाणित है। इन स्त्रियों ने वर्जनाओं, अन्यायों के विरुद्ध क़दम उठाकर तत्कालीन स्त्री-समाज को स्व-अस्मिता के प्रति सचेत किया।
वेद, पुराण, उपनिषद तथा अन्य ऐतिहासिक साक्ष्य सिद्ध करते हैं कि आर्य सभ्यता के विकास के साथ ही साथ स्त्रियों के लिए संस्कार और मर्यादा के नाम पर वर्जनाओं की दीवार मज़बूत होती गई। हालाँकि तब भी नारी ऊर्जा कहीं न कहीं प्रकट होती रही। बौद्धकाल में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति दयनीय थी। जाति-बंधन, पारिवारिक बंधन, धार्मिक अनुष्ठानों में मुख्य भूमिका, सम्पत्ति पर अधिकार और शिक्षा—इन तीनों से वंचित कर दी गई स्त्री स्वयं को उपादान-मात्र समझने के कारण अंदर ही अंदर छटपटा रही थी। महात्मा बुद्ध द्वारा स्त्रियों को संघ में प्रवेश की अनुमति देना और महाप्रजापति गौतमी सहित 500 शाक्य स्त्रियों का प्रवज्या ग्रहण करना युगांतरकारी घटना थी। इस पुनीत कार्य हेतु बुद्ध को सहमत करने का श्रेय बुद्ध की मौसी महाप्रजापति गौतमी और बुद्ध के शिष्य आनंद को जाता है। प्रवज्या देकर संघ में प्रवेश के मार्ग ने जातिवाद पर करारी चोट की। यहाँ स्त्रियों की शिक्षा की पूर्ण व्यवस्था हुई। वे इहलौकिक और पारलौकिक शिक्षा और गुरु के पद के लिए समान रूप से अधिकारिणी हुईं। तत्कालीन समय में, भिक्षुणी बनी स्त्री-जीवन में महत्त्वपूर्ण क्रांति हुई। प्रवज्या-प्राप्त स्त्रियाँ थेरी कहलाईं और इनके द्वारा लिखित पद्यात्मक गाथा ‘थेरीगाथा’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। थेरी गाथाएँ तत्कालीन समाज में स्त्री की स्थिति की समझ का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है। थेरीगाथा 73 भिक्षुणियों की 522 गाथाओं का संग्रह है। ये सभी भिक्षुणियाँ बुद्ध की समकालीन थीं और उनकी ही शिष्याएँ थीं। आत्माभिव्यंजनापूर्ण गीतकाव्य शैली के आधार पर भिक्षुणियों ने अपने जीवन के अनुभव व्यक्त किए हैं। डॉ. रॉयस डेविड के अनुसार, “थेरीगाथा की बहुत सी गाथाएँ न केवल उनके बाह्य रूप की दृष्टि से अत्यंत मनोरम हैं बल्कि वे उस ऊँची आध्यात्मिक पहुँच के लिए भी गवाही देती हैं जिसका आदर्श बौद्ध जीवन से संबद्ध था। जिन स्त्रियों ने भिक्षुणी की दीक्षा ली, उनमें से अधिकांश ऊँची आध्यात्मिक पहुँच और नैतिक जीवन के लिए प्रसिद्ध हुईं। धर्म की बारीक़ियों को समझा सकने वाली कुछ भिक्षुणियाँ न केवल पुरुषों की शिक्षिका बनीं, बल्कि उन्होंने उस चिरंतन शान्ति को भी प्राप्त कर लिया था, जो आध्यात्मिक उड़ान और नैतिक साधना के फलस्वरूप प्राप्त की जा सकती है।” बुद्ध ने ऐसे समय में स्त्रियों के लिए मुक्ति का मार्ग खोला, जब स्त्रियाँ रचना, प्रगति और अध्यात्म-मार्ग की बाधक मानी जाती थीं। थेरी शुक्ला द्वारा राजगृह निवासियों को धम्म उपदेश देना; थेरी नन्दउत्तरा द्वारा निर्ग्रंथ साधुओं के साथ तर्क-वितर्क करना; इसी तरह सोणा पटाचारा, किसा गौतमी आदि भिक्षुणियों द्वारा विशेष कार्यक्षेत्र में प्रतिनिधित्व करने का साक्ष्य मिलता है। यह एक क्रांतिकारी सफलता थी कि स्त्रियाँ आध्यात्मिक मुक्ति की खोज में बिना किसी भेदभाव के शामिल थीं। थेरी पुण्णिका, थेरी सुमंगल माता, मुत्ता थेरी, सुभा थेरी, पटाचरा थेरी संघा थेरी आदि की गाथाएँ मानव इतिहास की सशक्त अभिव्यक्तियाँ हैं।
जैनकाल में भी स्त्रियों की स्थिति बेहतर नहीं रही। तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने चतुर्विध संघ की स्थापना की और सभी अनुयायियों—स्त्री-पुरुषों को समान अधिकार दिए।
स्मृति काल भी स्त्री के शृंगारिक स्वरूप को ही उभारता है। इस काल में किसी तेजस्विनी का उल्लेख नहीं मिल पाया है, जो होगी भी तो गुमनाम रही होगी। ऐतिहासिक मध्यकाल के अंतर्गत साहित्यिक आदि, व मध्य काल समाविष्ट हैं। आदि काल से लेकर आधुनिकाल तक आक्रमणकारियों के हमले, लूटपाट और शासन करने की प्रवृत्ति ने सबसे अधिक स्त्री-जीवन को विशृंखलित किया। किन्तु दमन और शोषण-चक्र उनकी दीप्ति को दमित न कर सका।
मध्यकाल सामंतकाल का पर्याय है, जब कुलीन स्त्रियाँ रनिवास और सामंतों के भवनों की शोभा और निम्नवर्गीय या जीत और लूटपाट का उपादान बनी स्त्रियाँ दासी या रंगमहल का हिस्सा बनाई जाती रहीं, किन्तु यह काल इस बात का भी साक्षी है राज्य, देश या स्व-अस्मिता की स्वतंत्रता ऐसे परिवेश में मीरा बाई, चाँद बीबी, रानी कर्मावती, रानी दुर्गावती प्रभृत नायिकाएँ अवतरित हुईं। मीराबाई ने जहाँ राजमहल के बाहर पग बढ़ाकर सामंतवादी नीतियों को चुनौती दी, और अपने आराध्य की भक्ति में मग्न होकर मंदिर में नृत्य किया, वह राज पुरोहितों द्वारा थोपे गए विधानों के विरुद्ध एक सशक्त आवाज़ भी थी। भक्ति और अध्यात्म के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा धार्मिक आडंबर और ईश्वर के नाम पर रचा जानेवाला प्रपंच था, मीराबाई ने भक्त और भगवान के बीच से पुरोहिती आडंबर को हटाने का श्रेष्ठ कार्य किया। उनकी रचनाएँ केवल भक्तिपरक नहीं हैं, वरन् स्त्री मन की सूक्ष्म अभिव्यक्ति का साकार रूप है। मीरा का स्त्रीवादी विमर्श वर्तमान स्त्री विमर्श से कहीं आगे है।
मेवाड़ की रानी कर्मावती द्वारा प्रजा की सुरक्षा के लिए बादशाह हुमायूँ को सुरक्षा के प्रतीक स्वरूप राखी भेजना राज्य के प्रति उनके बुद्धि-कौशल का प्रमाण है। गोंडवाना और बाद में मालवांचल की शासिका रानी दुर्गावती की दिलेरी, प्रजा-प्रेम और स्वाभिमान की रक्षा के लिए अकबर की सेना से लड़ते-लड़ते शहीद हो जाना उनके अदम्य साहस और दृढ़ता का परिचायक है। आदिलशाह की पत्नी चाँद बीबी आजीवन बीजापुर और अहमदनगर की संरक्षक बनी रहीं। युद्ध-कौशल के साथ-साथ अरबी, फ़ारसी, तुर्की, मराठी और कन्नड़ भाषा की ज्ञाता थीं; सितार उनका प्रिय वाद्य था और फूलों के चित्र बनाना उनका शौक़, मगर अकबर से ज़बर्दस्त लोहा लेने के लिए वे आज भी याद की जाती हैं। पन्ना धायी, माता जीजाबाई, रानी भवानी, पद्मिनी, ताराबाई, हाड़ी रानी व अन्यान्य न जाने कितनी वीरांगनाएँ हैं, जिन्होंने अपनी और देश की आन-बान और शान के लिए स्वयं को और अपनी संतान को आहुत कर दिया।
उत्तरमध्य काल में, 18वीं सदी में अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ पहाड़िया जनजाति को संगठित कर अंग्रेज़ों के नाक में दम कर देने वाली महेशपुर की महारानी सर्वेश्वरी देवी आज भी ससम्मान याद की जाती हैं। पहाड़िया सरदार तिलकामांझी को फाँसी दिए जाने और रानी को नज़रबंद किए जाने की घटना ने विद्रोह को और भड़का दिया था। नज़रबंद होने पर भी वे क्रान्ति की प्रेरणा-स्रोत बनी रहीं। 19वीं सदी में कित्तूर की रानी चेनम्मा ‘हड़प नीति’ के विरुद्ध अंग्रेज़ों से सशस्त्र मुक़ाबला करने वाली पहली वीरांगना हुईं। रानी चेनम्मा की स्मृति में 24 अक्तूबर को दक्षिण में महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसी सदी ने देवी चौधरानी, रानी शिरोमणि, रानी लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई, बेगम हज़रत महल, रानी तपस्विनी, रानी तुलसीपुर, रानी रामगढ़, नृत्यांगना अज़ीजन जीनतमहल, नाना की पालिता पुत्री मैना, जिसे अंग्रेज़ों ने ज़िंदा जला दिया था, फिरोज़शाह की बीबी जमानी बेगम व अन्यान्य वीरांगनाओं ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह का झंडा बुलंद किया। वे जीवन के अंतिम पल तक संघर्षरत रहीं, शहीद हुईं, देश से बाहर निर्वासित जीवन जीने का निर्णय लिया पर अंग्रेज़ों के समक्ष घुटने नहीं टेके। उन्नीसवीं सदी राष्ट्रीय आंदोलनों का ही नहीं, सामाजिक एवं शिक्षिक आंदोलनों का क़िस्सा सुनाती है। रमाबाई रानाडे, सावित्री फूले, सरला बोस और श्रीमती पी.के. रे ने एक बार फिर स्त्री-जीवन में शिक्षा, आत्मनिर्भरता के बीज बोए। रूढ़िवादी समाज में रहते हुए लड़कियों के लिए विद्यालय, विधवाओं को ससम्मान जीवन देने केलिए नर्सिंग ट्रेनिंग सेंटर, सेवा सदन, पुस्तकालय की स्थापना का कार्य कितना चुनौतीपूर्ण रहा होगा! तमाम वर्जनाओं के बावजूद मध्यकालीन परदानशीं की लेखनी कहीं पद तो कहीं शेर तो कहीं गद्यकाव्य को जन्म देती रहीं। इनमें जेबुन्निसा, इसके अतिरिक्त निर्गुण पंथ की अनुगामिनी कितनी ही संत स्त्रियों, जैसे सहजों बाई, गंगाबाई, जनाबाई, हब्बा ख़ातून, लल्लेश्वरी आदि ने अपने परब्रह्म पर कविताएँ रचीं।
अतीत की नारियोचित गरिमा की ऊर्जा ने बीसवीं सदी की चिंगारी को प्रदीप्त किया। एक ओर राष्ट्र की आज़ादी के लिए खुलकर मैदान में आने और घर की चौखट और घूँघट के बाहर हज़ारों आम स्त्रियों को लाने और अहिंसा की लड़ाई लड़ने का कार्य करने वाली नेत्रियों में कस्तूरबा गाँधी, सरोजिनी नायडू, कमला नेहरू, विजयालक्ष्मी, यशोधर्मा दासप्पा, राजकुमारी अमृत कौर, भीखाजी कामा हुईं जिन्होंने विदेश में भी अपने राष्ट्र का गौरव बढ़ायाऔर वैश्विक स्तर पर नारी के अधिकारों की माँग प्रस्तावित की, इसे लक्ष्यकर बापू ने कहा था, “भारतीय नारियों का यह साहसिक कार्य स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा।” तो दूसरी ओर कुमारी प्रीतिलता, वीणा दास, सुनीति चौधरी, उज्ज्वला मजूमदार, नागारानी गिड़ालू, शान्ति घोष जैसी जाँबाज़ क्रांतिकारी हुईं, जिन्होंने अंग्रेज़ों की नींद हराम कर दी। दुर्गा भाभी, शिवरानी देवी, सुशीला दीदी और मंदाल साह, सुभद्रा सिंह चौहान जैसी नेत्रियों ने किसी न किसी रूप में दम तोड़ते समाज को ऑक्सीजन देने का काम किया।
बीसवीं सदी देश के राजनीतिक, सामाजिक और शैक्षिक उत्थान के लिए जुझारू लेखिकाओं, महिला पत्रकारों और संपादकों के अमूल्य योगदान की भी गवाह है। इनमें कवीन्द्र रवीन्द्र की बड़ी बहन स्वर्ण कुमारी देवी, वासंती देवी, लीला राय, कल्याणी देवी, उर्मिला देवी, सुभद्रा जोशी, महादेवी वर्मा इनमें प्रमुख हस्ताक्षर हैं। आज़ादी के पश्चात देश पर जब आपातकाल थोपा गया, सेंसरशिप लागू हुई, अभिव्यक्ति प्रतिबंधित हुई तब आपातकाल का विरोध करनेवालों में महादेवी अग्रणी थीं। तत्कालीन भारत के सामाजिक व शैक्षिक उत्थान में ब्लाव्त्स्की, एनी बेसेंट, मार्ग्रेट नोबल (भगिनी निवेदिता) व मार्ग्रेट कजिंस के नैतिक योगदान और समर्पण को भुलाया नहीं जा सकता। विदेशी होते हुए भी इन्होंने भारतीय जीवन अंगीकार किया और आजीवन सेवारत रहीं।
देश-विदेश की इन नेत्रियों के आत्मबल, सहयोग और समर्पण के कारण ही हमारा देश एक साथ स्वतंत्रता और सामाजिक चेतना की सजगता तथा अपने मौलिक अधिकारों के लिए कटिबद्ध हो सका। राजनीतिक-सममाजिक व सांस्कृतिक स्तर पर कई सकारात्मक बदलाव आए। जैसे महिलाओं के लिए मताधिकार की माँग, 1926 ई. में पहली बार स्त्रियों द्वारा चुनाव में हिस्सा लेना, महिलाओं का विधान परिषद में प्रवेश, ‘अखिल भारतीय महिला सम्मेलन’ नामक एक राजनीतिक संगठन की स्थापना, बाल विवाह अधिनियम का पास होना महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार—एक नए मोड़ का सूचक था। इसके पूर्व 1829 में सती प्रथा की क़ानूनन समाप्ति, 1856 में विधवा विवाह को मान्यता दिलाई जा चुकी थी और ये दोनों क़ानून स्त्री को सामाजिक अन्याय से मुक्ति दिलाने हेतु महत्त्वपूर्ण थे। बीसवीं सदी के आरंभ में, भारतेन्दु काल में ही हूकमादेवी, सत्यवती, सौभाग्यवती, उमा नेहरू ने अपनी रचनाओं को सामाजिक कुरीतियों के प्रति सजग करने का माध्यम बनाया। छायावाद या प्रेमचंदकाल में शिवरानी देवी, सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा आदि ने क्रांतिकारी सामाजिकता के विस्तार का परिचय दिया है। महादेवी वर्मा कृत ‘शृंखला की कड़ियाँ’ पुस्तक का समर्पण अपनी अंतर्वस्तु की अभिव्यंजना से स्त्री गरिमा को आभामयी बनाता है: ‘जन्म से अभिशप्त, जीवन से संतप्त, किन्तु अक्षय वात्सल्य वरदानमयी नारी को।’
निस्संदेह, हमारा देश भारत अबलाओं का नहीं, सबलाओं का—विदुषियों, वीरांगनाओं, राजनेत्रियों, कलाकारों, और और वीर माताओं एवं पत्नियों का देश है। साहित्य, कला और संस्कृति देश की इन अपराजिताओं से स्फुरित है। तमाम युगीन आघातों के बावजूद संविधान और क़ानून निर्माण में योगदान देती भारतीय नारी साहित्य, कला, संगीत, नृत्य आदि विधाओं को समृद्ध करती हुई विज्ञान, अनुसंधान, शिक्षण संस्थान, तैराकी, हवाई उड़ान, खेल, सुरक्षा, चिकित्सा, रेल, बस, अन्तरिक्ष यात्रा से लेकर हिमालय की ऊँची चोटी तक को लाँघ लिया है। जीवन के प्रत्येक संभावित क्षेत्र में वह अपने सपनों को पंख लगाकर, पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर, लक्ष्य पर दृष्टि टिकाए आगे बढ़ रही है।
प्रत्येक युग में परिवर्तन के साथ उसके जीवन-मूल्य बदलते हैं, मगर शाश्वत मूल्य कभी नहीं बदलते। अब भारत में भी यह धारणा पुनः बलवती हो रही है कि स्त्री और पुरुष दो समान और स्वतंत्र महत्त्वपूर्ण सत्ताएँ हैं। स्वामी विवेकानंद ने स्त्रियों के प्रति उद्गार व्यक्त किए थे: “स्त्रियों की अवस्था में सुधार न होने तक विश्व के कल्याण का कोई मार्ग नहीं। किसी भी पक्षी का एक पंख के सहारे उड़ना नितांत असंभव है।”
बीसवीं सदी से लेकर आज तक जीवन के हर क्षेत्र में नवजागरण का शंख फूंकनेवाली नेत्रियों की लंबी फ़ेहरिस्त है। इनमें पहली बार अपनी पहुँच बनाने में सफल नेत्रियों में कार्नेलिया सोराब (अधिवक्ता) राजकुमारी अमृत कौर (केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री), लीला सेठ (मुख्य न्यायाधीश, उच्च न्यायालय), सुचेता कृपलानी (मुख्यमंत्री), लक्ष्मी ऐन. मेनन (विदेश मंत्री), विजयालक्ष्मी पंडित (राजदूत), व.स. रामादेवी (राज्यसभा की सेक्रेटरी जनरल), नायडू (वाइसराय), इन्दिरा गाँधी (प्रधान मंत्री), प्रतिभा देवी सिंह पाटील (राष्ट्रपति), मीरा कुमार (लोकसभा अध्यक्ष), सौदामिनी देशमुख (जेट कमांडर), बछेंद्री पाल (माउंट एवरेस्ट पर्वतारोही), अन्न मल्होत्रा (आईएसऑफिसर), एम. फातिमा बीवी (न्यायाधीश, उच्चतम न्यायालय, भारत), कल्पना चावला (अन्तरिक्ष यात्री), अमृता प्रीतम (साहित्य अकादमी पुरस्कार) आरती साहा (तैराकी में इंग्लिश चैनल पार) सानिया मिर्ज़ा (टेनिस-डबल में प्रथम), सानिया नेहवाल (विश्व ओलंपिक में स्वर्ण पदक), मेरीकॉम (एशियन गेम्स में स्वर्ण पदक), प्रिय जींगन (इंडियन आर्मी) अवसरला कन्याकुमारी (पद्मश्री सम्मान) सी.वी. मुथम्मा (एम्बेस्डर), भाग्यश्री थिप्से (शतरंज में ‘वुमेन इन्टरनेशनल मास्टर’ का खिताब) थिरुष कामिनी (क्रिकेट वर्ल्ड कप में पहला शतक) और भी कई ऐसे बौद्धिक और साहसिक क्षेत्र, जहाँ स्त्री के होने कल्पना करना कठिन है, आज देश की नायिकाएँ प्रतिबद्धता के साथ खड़ी हैं और सफल हैं। मालवथ पूर्णा का तेरह वर्ष की किशोर वय में माउंट एवरेस्ट पर खड़े होकर सहज भाव से कहना ‘वर्ल्ड इस वेरी स्माल’ इस यथार्थ की ओर इंगित करता है कि दृढ़ इच्छाशक्ति, संकल्प और लगन के समक्ष कोई बाधा टिक नहीं सकती।
भारत-भूमि की अनगिन अपराजिताएँ, जो गुमनामी के कोहरे में हैं, उसका कारण केवल सामाजिक उपेक्षा नहीं, उनकी निजी संतुष्टि भी है। वे परिवार, समाज, राष्ट्र और समस्त धरा के हितार्थ मौन होकर कर्म कर रही हैं, चाहे वह चिपको आंदोलन हो या अकेली महिला द्वारा हज़ारों पेड़ लगाने की बात, कुआँ या बावड़ी बनाने की बात, अमानवीय तत्वों से संघर्ष करने के लिए ‘गुलाब गैंग’ की निर्मिति हो या कुछ और। तिहाड़ जेल में आई पी एस किरण बेदी के साथ मिलकर तिहाड़ आश्रम बनाने और स्वतंत्र रूप में भी मंडी, कांडा और कैथू जेल की कालकोठरियों में जीवन की रोशनी भूले क़ैदियों की सोई संवेदना को कुरेद-कुरेद कर जगाने, उन्हें अपनी ओर से सुविधाएँ उपलब्ध करा कर उनके मनोभावों को रचना का रूप दिलाने और उसका सम्पादन कर पुस्तक-रूप प्रदान करने वाली अजेय नारी सरोज वशिष्ठ ने इन जेलों के अंदर कुल बाइस पुस्तकालय खुलवाए, जेल के अंदर साहित्यिक, सांस्कृतिक आयोजन करवाए जिनमें जेल के अंदर और बाहर के व्यक्तियों को एक मंच मंच पर ला खड़ा किया; उम्र के अंतिम क्षण तक सैकड़ों क़ैदियों की माँ बनी सरोज वशिष्ठ बाहरी दुनिया को यह समझाने में प्रयासरत रहीं ‘अंधेरे में धकेले गए ये सभी लोग खूँखार नहीं होते, कई बेबस परिवार और समाज की राजनीति के शिकार होते हैं।’ सामाजिक हित के लिए ख़ुद को मोमबत्ती सी जलाती-गलाती इन जैसी नेत्रियाँ आज सचेतन समाज के द्वंद्वों के बीच अपनी मुक्तगामी चेतना को आधार बनाकर बढ़ रही है। वह बेटी भी है, माँ भी; पत्नी भी है, बहन भी; इनसे परे न सिर्फ़ एक कामिनी प्रेमिका, वरन् एक जागरूक सचेतन बौद्धिक और संवेदनशील मित्र भी। वह स्त्री है, मगर व्यक्ति भी। वह घर का पर्याय है तो समाज के विकास का विकल्प भी। कृष्ण सोबती, चित्रा मुद्गल, राजी सेठ, ममता कालिया, सुनीता जैन, निर्मला जैन, मन्नू भंडारी, कमल कुमार, अर्चना वर्मा, सुधा अरोड़ा, ऋता शुक्ल अनामिका, गीतांजलिश्री, मनीषा कुलश्रेष्ठ, स्वाति मेलकानी अलका सिन्हा व अन्यान्य रचनाकारों ने सामाजिक चेतना को जागृति के स्वर दिए हैं। डी. लॉरेंस ने कहा, “औरत न मनोरंजन का साधन है न पुरुष की वासना का शिकार। वह व्यक्ति की चाह की वस्तु नहीं, बल्कि वह तो पुरुष का दूसरा ध्रुव है। उसका अस्तित्व पुरुष का अनिवार्य पूरक है।”
मैत्रेयी पुष्पा कहती हैं: “अपनी ज़िन्दगी के बारे में अपने फ़ैसले का हक़ पाकर ही एक स्त्री विवेकी और स्वाधीन जीव हो सकती है।”
किन्तु पिछले कुछ दशकों से वैश्वीकरण के नाम पर विदेशी बाज़ार के साथ-साथ उपभोक्ता संस्कृति के आगमन ने शाश्वत मूल्यों को धुँधला करना शुरू कर दिया और दुखद स्थिति यह है कि स्त्री वर्ग का एक बड़ा हिस्सा आज इसकी चपेट में है। वे स्वाधीनता और स्वच्छंदता का मूलार्थ भूलकर नया पर्याय खोजने और रचने में मसरूफ़ हैं। अपनी मौलिकता और नैसर्गिक गुणों की अवहेलना करके हम नक़लची ही हो सकते हैं, कुछ हासिल नहीं कर सकते। स्वच्छंदता के अतिवाद की रचना स्त्री की नैसर्गिक संरचना को ही नष्ट कर देगा।
स्वभावत: कोमल संकल्पतः दृढ़ हमारे देश की तमाम अपराजिताएँ ‘मील का पत्थर’ बनकर यह दिशा देती हैं कि यदि लक्ष्य और उसके प्रति दृष्टिकोण स्पष्ट हों तो प्रतिकूल परिस्थितियाँ परिमार्जन का काम करती हैं और आपको ‘ध्रुव’ बनने से कोई नहीं रोक सकता। इस संदर्भ में टी.एस. इलियट के कथन सारगर्भित प्रतीत होते हैं:
“हम क्या हैं यह हम तभी जान सकते हैं जब हम यह जान लें कि हमें क्या होना चाहिए, लेकिन हमें क्या होना चाहिए, यह तभी जाना जा सकता है जब हमें यह ज्ञात हो कि हम क्या हैं?”
इन अपराजिताओं को समर्पित पंक्तियाँ:
‘तुम नदी हो!
हरएक बूँद में जीवन
शीतलता, आर्द्रता, उर्वरता
और समर्पण।
उद्भव से अवसान तक
आजीवन
संघर्ष करती
पाषाण का सीना चीर
ढुलकती उतराती नदी।’
संदर्भ:
-
आज़ाद औरत कितनी आज़ाद: संपा. शैलेंद्र सागर एवं रजनी गुप्त
-
औरत: कल आज और कल; आशारानी व्होरा
-
भारत की नारियाँ
-
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- पिता पर डॉ. आरती स्मित की कविताएँ
- पिता होना
- बन गई चमकीला तारा
- माँ का औरत होना
- माँ की अलमारी
- माँ की याद
- माँ जानती है सबकुछ
- माँ
- मुझमें है माँ
- याद आ रही माँ
- ये कैसा बचपन
- लौट आओ बापू!
- वह (डॉ. आरती स्मित)
- वह और मैं
- सर्वश्रेष्ठ रचना
- ख़ामोशी की चहारदीवारी
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