अध्योध्या का इतिहास, जहाँ 496 साल बाद घर लौट रहे हैं राम
आलेख | ऐतिहासिक आत्माराम यादव ‘पीव’1 Feb 2024 (अंक: 246, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
उत्तरकोशला की राजधानी अयोध्या जिसे अवध और साकेत भी कहते हैं तथा जो तीर्थ-रूपी विष्णु का मस्तक कही गयी है और इस अयोध्या की गणना इस धरा के सात तीर्थों में प्रथम होती है, यथा:
“अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवन्तिका।
पुरी द्वारावती चैव सप्तेता मोक्षदायिकाः॥”
अयोध्या का सौन्दर्य ब्रह्मलोक के सौन्दर्य व छटा पर विजय पताका फहरा रहा था जिसका उल्लेख मिलता है:
“अयोध्यानगरी रम्या सर्व्वलक्षणसंयुता।
जितब्रह्मपुरी साक्षाद्वैकुण्ठ इव विश्रुता।”
वह नगरी जिसके समक्ष ब्रह्मलोक की मनोहरता फीकी पड़ती थी, उस नगरी के अधिपति राम को उनकी जन्मभूमि “रामकोट मंदिर” से शैतान लुटेरे मुस्लिम आक्रांता शासक बाबर ने हज़ारों साधु-संन्यासियों व रामभक्त नागरिकों का ख़ून बहाकर, सन् 1528 में विध्वंस कर क़ब्ज़ा किया, और अपने पुरुषप्रेमी बाबरी के नाम से मस्जिद बनवाकर, जिस बर्बरता का परिचय दिया, आज उस ख़ूनी बर्बर और अन्यायी बादशाह की पहचान हटने के साथ, भव्य भगवान रामलला के मंदिर बनने के साथ, 496 साल बाद रामलला अवधपुरी के अपने पुराने जन्मभूमि स्थल के नये भव्य विशाल भवन में 22 जनवरी 2024 को विराजित हो रहे हैं। अवधपुरी में रामलला के विराजित होने के महोत्सव को भव्यतम स्वरूप दिए जाने में समूचा देश अपने पलक पाँवड़े बिछाए तैयार है, जिसकी गूँज दुनिया भर के देशों में है। विश्व के अनेक देशों में करोड़ों श्रद्धालुओं द्वारा इस पावन अवसर को यादगार बनाए जाने की तैयारी है। 496 सालों की अँधियारी रातों का अँधेरा ऐसा ग़ायब हुआ कि इस राजवंश के निवास स्थान तथा सूर्यवंश से उत्पन्न रामलला के जन्मस्थान, मंदिर अपने आप में एक भव्य तीर्थ बन गया जिसकी प्रशंसा एवं भक्ति में हर व्यक्ति अयोध्या की रज को अपने मस्तक पर लगाए जाने हेतु अयोध्या की ओर भाग रहा है।
अयोध्या का ऐतिहासिक पहलू-वाल्मीकि रामायण में कोशल का वर्णन मिलता है:
“कोसलो नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान्।
निविष्टः सरयूतीरे प्रभूतधनधान्यवान्॥”
अर्थात् सरयू के किनारे धनधान्यवान देश कोशल है “निविष्ट” शब्द का अभिप्राय यह कोशल सरयू के दोनों किनारों पर बसा है। उत्तरकोशला की राजधानी अयोध्या तीर्थों में पहली पुरी है। विष्णु के मस्तक से सुशोभित अयोध्या के विषय में उल्लेख मिलता है:
“विष्णोः पादमवन्तिकां गुणवतीं मध्ये च कांचीपुरीन।
नाभिं द्वारवतीन्तथा च हृदये मायापुरी पुण्यदाम्॥”
तीर्थराज प्रयाग, मुक्तिदायिनी विश्वनाथपुरी काशी इसी कोशला में है। इसी कोशला में अयोध्या के राजा भगीरथ कठिन परिश्रम से गंगा को पृथ्वी पर लाए थे तथा 24 तीर्थंकरों में से 22 इक्ष्वाकुवंशी थे जिनमें पहले तीर्थंकर आदिनाम ऋषभदेव सहित चार अन्य तीर्थंकरों का जन्म इसी अवध में हुआ था। शाक्य मुनि की जन्मभूमि कपिलवस्तु और निर्वाणभूमि कसियो कोशला में थे और इसकी राजधानी अयोध्या में, उन्होंने अपने धर्म की शिक्षा दी और सिद्धान्त बनाए जो जगप्रसिद्ध हुए जिसे बौद्धमत वाले आकांक्षा करने के साथ निर्माण नाम देते हैं।
वाल्मीकि रामायण में अयोध्या की तुलना उस समय मृत्युलोक की अमरावती से बढ़कर करते हुए कही गई है कि भूमण्डल की सबसे पहली लोकप्रसिद्ध राजधानी स्वयं आदिराज महाराज मनु ने बसाई थी जो विस्तार में अड़तालीस कोस लम्बी और बारह कोस चौड़ी थी देखें:
“अयोध्या नाम तत्रास्ति नगरी लोकविभूता।
मनुना मानवेन्द्रण पुरैव निर्मिता स्वयंम्।
आयता दश च द्वे च योजनानि महापुरी।
श्रीमति त्रीणि विस्तर्णा नानासंस्थनशोभिता।”
इस वर्णन में नगर मात्र का उल्लेख मिलता है जिसमें राजमहल व दुर्ग पृथक रहे हैं। “अयोध्या” नाम की सार्थकता में कहा गया है ‘जिसे शत्रु जीत न सके, वही अयोध्या है’। अयोध्या नगरी के वर्णन में वाल्मीकि “दुर्गगम्भीर-परिखा” विशेषण देते है वहीं स्वामी रामानुजाचार्य ने व्याख्या की है कि—जल दुर्गेण गम्भीरा अगाधा परिखा यम्याम्। जिससे समझा जा सकता था कि अयोध्या जलदुर्ग से पूर्णतया सुरक्षित थी।
तब रामराज्य में अयोध्या नगरी के मार्गों का सुन्दर ओर स्पष्ट वर्णन में उल्लेख मिलता है कि नगर के चारों ओर सैर करने के मार्ग महापथ कहलाते थे एवं राजप्रसाद महल के मध्य भाग के चार द्वार थे जो सभी ओर से शोभित राजमार्ग कहाते थे। अवधपुरी को सुवासित किए जाने हेतु प्रतिदिन राजपथ, महापथ ही नहीं अपितु नगर के महल्लों में सुगंधित पुष्पों की वर्षा की जाती थी देखें—मुक्तपुष्पावकीणन जलस्किन नित्यशः।
जब भी अवधपुरी में कोई विशेष उत्सव होता तब सर्वत्र चंदन के जल का छिड़काव होता और कमल तथा उत्पल सब जगह शोभित किए जाते थे। मार्ग और सड़कों पर रात्रि के समय दीपक का प्रकाश राजकीय प्रबन्ध से किया जाता था, राम राज्याभिषेक की पहली रात्रि को भी सभी मार्गों में दीपक-वृक्ष लगाकर अवधपुरी को दिनमान जैसा रोशन किया गया था। यथा—प्रकाशीकरणार्थश्च निशागमनशंक्ख्या। दीपवृक्षांस्तथा चक्रुरनुरथ्यासु सर्व्वशः। ऐसे उत्सव के समय मार्ग के दोनों और पुष्पमाला, ध्वजा और पताका लगायी गयी। राजमार्ग के दोनों और सुन्दर सजी सजाई नाना प्रकार की दुकानें शोभायमान थीं। इसके सिवाय कहीं उच्च अट्टालिका सुसमृद्ध चारू दृश्यमान बाग़ थे, कहीं वाणिज्यागार और कहीं भूधर-शिखर सम देव निकेतन पुरी की शोभा बढ़ा रहे थे जिसका वर्णन स्वयं ब्रह्मा भी नहीं कर सकते थे।
आज 496 सालों बाद अवधपुरी में मर्यादा परुषोत्तम श्रीराम अपने बालरूप में जन्मस्थान पर विराजमान होने जा रहे हैं। वाल्मीकि जी के अनुसार रामराज्य में जिस तरह अयोध्यावासी धर्मपरायण, जितेन्द्रिय, साधु और राजभक्त थे, चार वर्ण के लोग अपने अपने धर्म में स्थित थे, सभी हृष्ट, पुष्ट, तुष्ट, अलुब्ध और सत्यवादी थे, नारियाँ धर्मशीला और पतिव्रता थीं, आज के सन्दर्भ में भले ही वाल्मीकि जी की ये सभी बातें कल्पनामयी हों किन्तु राम के प्रति आस्था, राममंदिर निर्माण के बाद उनके श्रीविग्रह की प्राणप्रतिष्ठा ने पूरे राष्ट्र में राम के प्रति जो अलख जगायी है, वह ज्योति पूरे राष्ट्र में प्रज्ज्वलित हो चुकी है और लोगों के मन में राम-जन्मभूमि पर स्थापित राममंदिर उनकी श्रद्धा एवं आस्था का केन्द्र बन चुका है। देश राममय हो गया है, हर नगर, हर गाँव में राम के आगमन का स्वागत में ध्वाजाओं से मनोहारी सजावट हो रही है। यह अलग बात है कि धर्मध्वाजावाहक शंकराचार्यों के मतानुसार वैदिक परम्पराओं एवं सनातन धर्म की मान्यताओं का पालन न होने से यह राजनीति की बिसात समझकर उपेक्षित किया जा रहा है, परन्तु आस्था, श्रद्धा और भक्ति का सागर इन सारे तर्कों को दरकिनार कर 22 जनवरी को रामलला की घर वापसी का भव्यता से स्वागत हेतु अपने पलक पाँवड़े बिछाए इन पलों की प्रतीक्षारत है।
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