इस निठल्ले की व्यंग्य—विनोद चाट
संस्मरण | आत्मकथा आत्माराम यादव ‘पीव’1 Jun 2024 (अंक: 254, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
बचपन से पिताजी के सामने खड़े होने का साहस मुझमें नहीं रहा है इसलिए वे जब भी घर में होते तो मैं बाहर चला जाता या कमरे बदल कर छुप जाता था। वे माँ पर ग़ुस्सा होकर कहते, “कहाँ गया ये निकम्मा। इस निठल्ले ने जीना दूभर कर रखा है, जहाँ भी जाता हूँ इसके कारनामें सुनकर मेरे कान पक जाते हैं।”
दुर्भाग्य से रोज़ाना रात के खाने के समय उनसे आमना-सामना होता था तो एक दर्जन उलाहनों के साथ बीस-पच्चीस गालियाँ सुनने को मिलतीं। माँ बहन के थाली परसने के बाद जैसे ही मैं थाली से पहला कौर तोड़कर मुँह तक ले जाता, पिताजी का स्वर सुनाई देता, “काम का न काज का दुश्मन अनाज का, कब तक तू और तेरी लुगाई मुफ़्त की रोटी तोड़ते रहोगे?”
जंगल से जलाऊ लकड़ी साइकिल से लाने, गायों के लिए रोज़ घास लाने के साथ भूसा की सानी बनाने और गाय दुहने के बाद दिन में लोहा बाँधने का काम पिताजी के लिए पर्याप्त नहीं था, वे मुझसे कुछ बेहतर चाहते थे पर में पूरी कोशिश के बाद भी अपना बेहतरीन किरदार उनके सामने नहीं रख पाता था पर उनके स्वर्गवासी होने से पूर्व मेरी लिखी तीन पुस्तकों का विमोचन मैंने उनके व माताजी के करकमलों से कराकर उनकी आँखों और चेहरे पर असीम आनंद की अनुभूति के इंद्रधनुष में अपने लिए अव्यक्त आशीष की अमृतवर्षा को देखा।
पिता जी मेरे लिए गुरु ही नहीं मेरे प्रेरणास्त्रोत रहे हैं। कौन आदमी कैसा है यह मेरे पिताजी बेहतर समझते थे इसलिए मैं पिता जी की किसी भी बात पर ग़ुस्सा नहीं होता और उन्हें पारखी जौहरी समझता था। पिता ही थे जिन्होंने मुझे जीवन की भट्टी में तपकर कुन्दन सा निखारने में बेंतों से कूटा, परिणाम स्वरूप वही निकम्मा ख़बरें लिखने लगा और वे छपने लगीं। प्रूफ़रीडर से शुरू हुआ सफ़र संपादक तक सम्मान दिला गया। हाँ पत्रकारिता में रहते मेरे अनेक शुभचिंतक मुझे फूटी आँख भी पसंद नहीं करते हैं, वे सोशलमीडिया पर छाए होने से लोकप्रिय है, उन्हें अनर्गल प्रलाप करने में सुख मिलता है, मैं उन सभी के द्वारा अलोकप्रिय किए जाने की बेतुकी, बिना सर-पैर की बातों से मैं ख़ुद बिना किए धरे ही लोकप्रिय होने लगा हूँ। असल में वे नर्मदापुरम माटी के मानस नहीं है बल्कि यहाँ शरण लिए हैं इसलिए क्रूरता उनमें हद दर्जे की है यहाँ आकर वे आदमी होकर आदमी को काटना सीख गए हैं। वे कई उलाहनों के साथ मुझे अल्पज्ञ गँवार तुकबंदीबाज़ समझते हैं। मैं उनका भी आभारी हूँ जो मुझे भड़काने में लगे हैं और उनका भी कृतज्ञ हूँ जो मुझे आज तक नहीं मिले, न ही मैंने उन्हें कभी देखा और न ही उन्होंने आमने-सामने मुझे देखा है पर वे मुझे बहुत अच्छा बताते हैं मानो चौबीस घंटे दिन रात वे साथ-साथ रह रहे हैं।
समाज की हू-ब-हू तस्वीर सुगमता के साथ समाज के सामने रखने पर समाज में हलचल पैदा होने लगी और मैं समाज की नज़रों में कसकने लगा तब पहली बार पिता जी के चेहरे पर मुझ निठल्ले बेटे को देख गर्व भरी मुस्कुराहट उभर आई थी। पिताजी के मुखारविंद पर आई मुस्कुराहट मेरे लिए इंद्रासन पाने जैसा सुखद सम्मान से कम नहीं थी। बस मुझे पिताजी के चेहरे को देख जो सुख मिला उसे आशीर्वाद स्वीकार कर मैं लिखने बैठ जाता। कई रातों को जागते हुए डायरी सामने रखकर लिखने की शुरूआत करता, कहाँ से लिखना शुरू करना है, क्या लिखना है यह तय नहीं रहता था। मैं दर्द महसूस करता दर्द लिखने लगता, किसी की पीड़ा सुनता, किसी के आँसू देखता लिखने बैठ जाता, जिसमें समाज होता, परिवेश होता दबी हुई चीखें होतीं, बनते-बिगड़ते रिश्ते होते, टूटते-बनते सपने होते। लेख, व्यंग्य के न हाथ पैर होते, न सिर होता, न आँख कान होते, बस मिश्रण होता। चाट होती जिसे लिखकर मैं लेख, व्यंग्य की चाट बनाकर परोसता और आप सभी यह चाट खा रहे होते, पढ़ रहे होते। आप सभी सुधि पाठक आए दिन छोटे–बड़े समाचार पत्र और पत्रिका में किसी न किसी विषय पर व्यंग्य छपा देखकर व्यंग्यकार की भाषाशैली, भावों और उनके अर्थों को अर्थ निकालकर अपने श्रेष्ठ पाठक होने का प्रमाण देते।
मेरा अपना अनुभव है कि अगर कोई तीखा सत्य व्यंग्य में उतारने या सामाजिक, राजनीतिक घटनाओं के सत्य-अससत्य को यथोचित रूप से अपनी पैनी व्यंग्य शैली में प्रयुक्त करे तो पाठकों की सराहना मिलती है। उचित या अनुचित जो भी लिखा जाता है पाठकों कि दृष्टि से वह छुपता नहीं है यहाँ सारे व्यंग्यकार ख़ुद की वाहवाही और सराहना पाने के लिए एक पागलपन तक जीते है और कोई ख़ुद को निष्कपटता से मुक्त नहीं मान सकता है। उदाहरण स्वरूप देखिये—महाकवि तुलसीदास जी ने लिखा कि “कवित विवेक एक नहिं मोरे। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें॥” उपर्युक्त चौपाई के माध्यम से तुलसीदास जी कहना चाहते हैं कि उनके पास कविता लिखने उसे समझने की एक भी बुद्धि पास नहीं है। मैं तो जो सत्य समझता हूँ जो सत्य जानता हूँ वह मैंने अपने अनुभव कोरे पन्ने पर लिखा है। यह वह लेखक लिख रहा है जिसने दुनिया भर में प्रसिद्ध राम चरित मानस जैसे महाकाव्य की रचना की। क्योंकि तुलसीदास जी का मानना है स्वयं की प्रशंसा सबसे बड़ा पाप है। उन्हें उनके संस्कार स्वयं की प्रशंसा करने से रोकते हैं इसलिए उन्होंने उपर्युक्त चौपाई के माध्यम से स्वयं की बुद्धि विवेक शून्य होने की बात लिखी केवल अनुभव और सत्य को ही सर्वोपरि मान अपनी शान को फीकी बतलाया, यानी ख़ुद कि प्रशंसा करना उचित नहीं समझा पर सभी तुलसीदास थोड़े हो सकते हैं इसलिए उन्हें प्रशंसा का नमक लगाकर व्यंग्यकर होने हेतु अपने व्यंग्य कि चाट का स्वाद ही भाता है।
आज साहित्यकार, लेखक, व्यंग्यकार, कवि आदि कि पैदावार खरपतवार कि तरह है जो उचित स्थान और उचित मात्रा में अपनी-अपनी शैली में अपनी क़लम से लेख-व्यंग्य आदि की चाट लिए कभी अंग्रेज़ी शब्दों के प्रयोग तो कभी ठेठ देहाती, गँवार हास्यास्पद भावों को व्यक्त कर परोसते मिल जाएँगे। मेरे ज़िले व शहर के व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई और सुरेश उपाध्याय जी ने पूरे देश में अपनी पहचान बनाई है। वह अनेक लोगों में गुमनाम किन्तु स्टीक तीखा लिखकर याद रखने वाले एक शख़्स घनश्याम जमनानी और जगज़ाहिर हो चुके साहित्यकार अशोक जमनानी भी चर्चित रहे हैं जिनके लिए व्यंग्य लिखना जटिल है तो इनके लिए “व्यंग्य न लिखना कठिन है।” कुछ अवसर ऐसे आ जाते हैं जब व्यंग्य का प्रयोग अनिवार्य हो जाता है—लेखक उसकी सहायता लेने को बाध्य हो जाता है। यह भी सत्य है कि ऐसे भी अवसर होते हैं जब व्यंग्य का प्रयोग किसी भी दृष्टि से उचित नहीं होता और वहाँ व्यंग्य मित्रता का क्रोध से पढ़कर शत्रु बन जाता है, इसलिए व्यंग्य का प्रयोग करने में बड़ी सावधानी से काम लेना चाहिए।
व्यंग्य और विनोद में थोड़ा अंतर है। विनोद का क्षेत्र वार्तालाप है, और यहीं उसका चमत्कार दिखाई देता है। यहाँ व्यंग्य से अधिक तीक्ष्ण बुद्धि की आवश्यकता होती है, क्योंकि प्रश्नों का उत्तर देना पड़ता है। विनोद को व्यंग्य से सहायता बहुत मिलती है, परन्तु इन दोनों के बीच में सीमा बंदी की रेखा रहती है। व्यंग्य का उद्देश्य विनोद से पृथक् है। व्यंग्य का मुख्य उद्देश्य सुधार है। व्यंग्य गुणों का मित्र है और व्यंग्य जब असत्यता के परों पर उड़ता है तब यह अल्पजीवी होता है और उसका दंश सशक्त होता है। परन्तु जब सत्यता उसकी सहचारी बन जाती है तब उसका घाव गहरा होता है और दीर्घकाल तक बना रहता है। शब्द चाहे कितने मुलायम हो, किसी को अपने दोषों और त्रुटियों के विषय में कुछ भी सुनना नहीं पसंद होता है।
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