ब्रज की होली में झलकती है लोक संस्कृति की छटा
आलेख | सांस्कृतिक आलेख आत्माराम यादव ‘पीव’1 Apr 2024 (अंक: 250, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
होली की एक अलग ही उमंग और मस्ती होती है, जो अनायास ही लोगों के दिलों में गुदगुदी व रोमांच भर देती है। खेतों में गेहूँ-चने की फ़सल पकने लगती है। जंगलों में महुए की गंध मादकता भर देती है। कहीं आम की मंजरियों की महक वातावरण को बासंती हवा के साथ उल्लास भरती है, तो कहीं पलाश दिल को हर लेता है। ऐसे में फागुन मास की निराली हवा में लोक-संस्कृति परंपरागत परिधानों में आंतरिक प्रेमानुभूति के सुसज्जित होकर चारों ओर मस्ती व भाँग का आलम बिखेरती है जिससे लोग ज़िन्दगी के दुख-दर्द भूलकर रंगों में डूब जाते हैं।
शीत ऋतु की विदाई एवं ग्रीष्म ऋतु के आगमन की संधि बेला में युगल मन प्रणय के मधुर सपने सँजोए मौसम के साथ अजीब हिलौरे महसूस करता है। जब सभी के साथ ऐसा हो रहा हो तो यह कैसे हो सकता है कि ब्रज की होली को बिसराया जा सके?
हमारे देश के गाँव-गाँव में ढोलक पर थाप पड़ने लगती है, झाँझों की झंकार खनखना उठती है और लोकगीतों के स्वर समूचे वातावरण को मादक बना देते हैं। आज भी ब्रज की तरह गाँवों व शहरों के नर-नारी व बालक-वृद्ध सभी एकत्रित होकर खाते-पीते व गाते हैं और मस्ती में नाचते हैं।
राधा-कृष्ण की रासस्थली सहित चौरासी कोस की ब्रजभूमि के अपने तेवर होते हैं जिसकी झलक गीतों में इस तरह फूट पड़ते को आतुर है, जहाँ युवक-युवतियों में पारंपरिक प्रेमाकंठ के उदय होने की प्राचीन पराकाष्ठा परिष्कृत रूप से कूक उठती है:
“आज विरज में होली रे रसिया
होली रे रसिया बरजोरी रे रसिया
कहूँ बहुत कहूँ थोरी रे रसिया
आज विरज में होली रे रसिया।”
नटखट कृष्ण होली में अपनी ही चलाते हैं। गोपियों का रास्ता रोके खड़े होना उनकी फ़ितरत है, तभी जी भरकर फाग खेलने की उन जैसी उच्छृखंलता कहीं देखने को नहीं मिलती। उनकी करामाती हरकतों से गोपियाँ समर्पित हो जाती हैं और वे अपनी बेबसी घूँघट काढ़ने की शर्म-हया को बरक़रार रखे मनमोहन के चितवन को एक नज़र देखने की हसरत लिए जतलाती हैं कि सच, मैं अपने भाई की सौगंध खाकर कहती हूँ कि मैं तुम्हें देखने से रही। इसलिए उलाहना करते हुए कहती हैं कि:
“भावै तुम्हें सो करौ सोहि लालन
पाव पडौ जनि घूँघट टारौ
वीर की सौ तुम्हें देखी है कैसे
अबीर तो आँख बचाय के डारौ।”
जब कभी होली खेलते हुए कान्हा कहीं छिप जाते हैं तब गोपियाँ व्याकुल हो उन्हें ढूँढ़ती हैं। उनके लिए कृष्ण उस अमोल रत्न की तरह हैं, जो लाखों में एक होता है। वे कृष्ण के मन ही नहीं, अपितु अंगों की सहज संवेदनाओं से भी चिर-परिचित हैं तभी उनके अंग स्पर्श के अनुभव को तारण करते हुए उपमा देती हैं कि उनके अंग माखन की लुगदी से भी ज़्यादा कोमल हैं:
“अपने प्रभु को हम ढूँढ़ लियो
जैसे लाल अमोलक लाखन में
प्रभु के अंग की नरमी है जिती
नरमी नहीं ऐसी माखन में।”
वे कृष्ण को एक नज़र भर के लिए भी अपने से अलग रखने की कल्पना नहीं करतीं। यदि वे नज़रों के आगे नहीं होते तो उस बिछोह तक को वे अपने कुल की मर्यादा पानी में मिलाकर पीने का मोह नहीं त्यागतीं। जब कृष्ण दो-चार दिन नहीं मिलते तो उस बिछुड़न की दशा में उनको होश भी नहीं रहता कि कब उनकी आँखों से बरसने वाले आँसुओं से शरीर धुल गया है:
“मनमोहन सों बिछुरी जबसे
तन आंसुन सौ नित धोबति है
हरीचन्द्र जू प्रेम के फंद परी
कुल की कुल लाजहि खोवती है।”
इस कारण सभी गोपियाँ मान-प्रतिष्ठा खोकर दुख उठाने के लिए सदैव तत्पर रहती हैं। उन्हें भोजन में रुचि नहीं है बशर्ते कृष्ण ब्रजभूमि त्यागने को न कहे। ब्रजभूमि से इतना अधिक गहरा लगाव हो गया है, जैसे आशा का सम्बन्ध शरीर से एकाकार हो जाता है:
“कहीं मान-प्रतिष्ठा मिले न मिले
अपमान गले में बँधवाना पड़े
अभिलाषा नहीं सुख की कुछ भी
दुख नित नवीन उठाना पड़े।
ब्रजभूमि के बाहर किन्तु प्रभो
हमको कभी भूल के न जाना पड़े
जल-भोजन की परवाह नहीं
करके व्रत जीवन यूँ ही बिताना पड़े।”
फाग की घनी अँधेरी रात में श्याम का रंग उसमें मेल खाता है। गोपी उन्हें रंगने को दौड़ती हैं किन्तु वे पहले ही सतर्क हैं और गोपियाँ अपने मनोरथ सिद्ध किए बिना कृष्ण के हाथों अपने वस्त्र ओढ़नी तक लुटा आती हैं:
“फाग की रैनि अँधेरी गलि
जामें मेल भयो सखि श्याम छलि को
पकड़ बाँह मेरी ओढ़नी छीनी।
गालन में मलि दयो रंग गुलाल को टीको
आयो हाथ न कन्हैया गयो न भयो
सखी हाय मनोरथ मेरे जीको।”
कृष्ण पर रीझीं गोपियाँ अनेक अवसर खो बैठती हैं, तो कई पाती भी हैं। इधर कृष्ण गोपी को अकेला पाकर उस पर अपना अधिकार जताते हैं तो उधर गोपियाँ कृष्ण को गलियों में रोक गालियाँ गाते हुए तालियाँ बजाती पिचकारी से रंग देती हैं:
“मैल में माई के गारी दई फिरि
तारी दई ओ दई ओ दई पिचकारी
त्यों पद्माकर मेलि मुढि इत
पाई अकेली करी अधिकारी।”
फाग हो और बृजभान दुलारी न हो, ऐसा सम्भव नहीं। रंग, गुलाल व केसर लिए मधुवन में कृष्ण के मन विनोद हिलोर लेता है कि अब बृजभान ललि के साथ होली खेलने का आनंद रंग लाएगा:
“हरि खेलत फाग मधुवन में
ले अबीर सुकेसरि रंग सनै
उत चाड भरी बृजभान सुता
उमंग्यों हरि के उत मोढ मनै।”
होली खेलते समय कृष्ण लाल रंगमय हो जाते हैं। जागते हुए उनकी आँखें भी लाल हो गई हैं। नंदलाल लाल रंग से रंगे हैं। यहाँ तक कि पीत वस्त्र पीतांबर सहित मुकुट भी लाल हो गया है:
“लाल ही लाल के लाल ही लोचन
लालन के मुख लाल ही पीरा
लाल हुई कटि काछनी लाल को
लाल के शीश पै लस्त ही चीरा।”
मज़ाक़ की अति इससे कहीं दूसरी नहीं मिलेगी, जब गोपियाँ मिलकर कृष्ण को पकड़ उनके पीतांबर व काम्बलियाँ को उतारकर उन्हें साड़ी-झूमकी आदि पहना दे फिर पाँव में महावर, आँखों में अंजन लगा गोपीस्वरूप बनाकर अपने झुंड में शामिल कर लें, तब होली का मज़ा दूना हुए बिना नहीं रह सकेगा:
“छीन पीतांबर कारिया
पहनाई कसूरमर सुन्दर सारी
आँखन काजर पाँव महावर
सावरौ नैनन खात हहारी।”
कृष्ण इस रूप में अपने ग्वाल सखाओं के साथ हँसी-ठहाका करने में माहिर हैं। बृजभान ललि भीड़ का लाभ लेकर कृष्ण को घर के अंदर ले जाती हैं और नयनों को नचाते हुए मुस्कुराहटें बिखेरती हुई दोबारा होली खेलने का निमंत्रण इस तरह देती हैं:
“फाग की भीर में पकड़ के हाथ
गोविंदहि ले गई भीतर गोरी
नैन नचाई कहीं मुसुकाइ के
लला फिर आईयों खेलन होरी।”
होली के राग-रंग में कोई अधिक देर रूठा नहीं रहता। जल्दी ही एक-दूसरे को मनाने की पहल चल पड़ती है और फिर मिला-जुला प्रेम पाने की उम्मीद में सभी रंगों में खो जाते हैं। लक्ष्य और भावना के चरम आनंद की भाव-भंगिमा को आँखों में अंग-प्रत्यंग में व्यक्त किए पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह पर्व अनंतकाल से चला आ रहा है। कृष्ण, ब्रज को मन में बसाए एक महारास की निश्छल श्रद्धा को जीवंत रखने हेतु सभी को प्रेरित करता हुआ, आनंद की तरंगें फैलाता जीवन में रंग घोल जीने की कला लिए।
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