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मुखड़ा देख ज़रा दर्पण में

 

जगत को रचनेवाला विधाता बड़ा जादूगर है। जब विधाता ने रचने की वर्कशॉप खोली तो पहले उसने जगत की रचना की। समुद्र से लेकर नदियों तक, टीले से लेकर पहाड़ तक और घास से लेकर विशाल वृक्षों का पूरा जाल धरती पर बिछाया। फिर जीव-जन्तुओं की रचना की, जिसमें पानी में रहने वाले, ज़मीन पर रेंगने वाले, आकाश में उड़ने वाले जीवों का डिज़ाइन तय कर उन में प्राण फूँक दिये। सबके लिये भोजन पानी का साधन दिया। फिर वह अपनी वर्कशॉप में मनुष्य की रचना में जुट गया। उसने करिश्माई मानव प्राणी में भी वही अंतर किया जो अन्य जीव-जंतुओं, प्राणियों एवं वनस्पति में था, वह अंतर था नर और मादा का। ताकि जगत में सभी जीव-जंतु और वनस्पति जनन-प्रजनन के द्वारा अपने वंश की वृद्धि कर सकें। सबको आँखें दीं, मुँह दिया, कान दिये, पैर देने के साथ-साथ एक सम्पूर्ण आकार, प्रकार का शरीर दिया ताकि वह अधूरा न रहे, साथ ही सभी में शारीरिक एवं मानसिक क्षमता की ताक़त देते समय किसी तरह का कोई पूर्वाग्रह नहीं रखा। 

विधाता ने अपने वर्कशॉप में मानव-सृष्टि शुरू की। अब तक संसार के सभी प्राणियों-जीव जंतुओं और वनस्पति की रचना आसानी से करने वाले इस ऊपर वाले विधाता ने मानवसृष्टि करना बड़ा ही आसान समझ रखा था लेकिन मनुष्य का निर्माण करते समय उसे सबसे ज़्यादा करिश्मा और कारीगरी दिखाने के लिये तत्पर होना पड़ा। उसने द्विपद-प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में मनुष्य को स्थान दिया। मनुष्य में भी नर-नारी की सुन्दर कल्पना को विधाता ने साकार करना शुरू किया और फिर उनका शरीर रचा तो उसमें एक ही समय निर्माण किये गये मनुष्य के मिनिट दर मिनिट की एक्सपायरी डेट अलग तय की। उनका सुन्दर मुखड़ा रचा, दो आँखें रचीं, मुँह रचा, कान रचे। या यूँ कहिये मानव रच कर विधाता ने एक नायाब इनायत की है। जब विधाता मनुष्य रचने के वर्कशॉप में बैठा था तब वह इत्मीनान से अपने-अपने प्रारब्ध और भाग्य का ठप्पा लगाकर मनुष्यों के लॉट-पर लॉट पैदा करता रहा। जहाँ सबके विचार ख़त्म हो जाते हैं वहाँ से विधाता के विचार शुरू होते हैं। उसके दिमाग़ी कबूतरख़ाने में क्या चल रहा है यह बात जानने की थोड़ी भी गुंजाइश उसने किसी मनुष्य के दिमाग़ी फ़ितूर में नहीं भरी। आदमज़ात को अलग-अलग साँचों में या कहिये रूप, स्वरूप, कुरूप में कई नमूनों के रूप में रचते हुए वह अपनी कारीगरी और चमत्कार दिखाता रहा है और आज भी एक से एक नमूनों को गोरे-काले रंग में ढ़ालकर वह संसार में भेज रहा है। 

विधाता ने मनुष्य को बनाया तो उसमें बौद्धिक तर्क-वितर्क और कुतर्क के साथ ख़ुद को समझने, जानने की विद्यायें भी उपलब्ध करायीं ताकि आध्यात्म का अनुकरण कर वह जीवन-मरण के कुचक्र से मुक्त हो सके। आदिमानव ने आदम और हव्वा से जीवन शुरू किया और परमात्मा से प्राप्त ज्ञान से अपनी नस्ल बढ़ाई जो शून्य से शुरूआत मानी गयी तो वहीं कोई मनु-शतरूपा से जगत पर इस मनुष्य समाज को साकार होना कहता है। बात जो भी हो पर उसके पैदा किये गये मानव, जिनकी शक्ल-सूरतें और दिमाग़ बेबूझ था, उसकी खोपड़ी में भरा ज्ञान वह उपयोग में नहीं ला रहा है और खोपड़ी में गुड़-गोबर भर लिया है। विधाता ने चिकनी मिट्टी से जिन मनुष्यों का बुत बनाया वे मनुष्य पूरे घाघ, मक्कार और चिकने दिल के फरेबी झूठे निकलते गये। कालान्तर में चिकनी माटी से बनाये गये मनुष्य नेता बन गये जिनके दिल में प्रजा के लिये कोई प्यार-स्नेह नहीं, ये स्वयंसेवी मनुष्य ख़ुद को और अपने परिवार, सगे सम्बन्धियों को बनाने, सँवारने में लग गया। इन्हें जो वाणी दी वह शहद की तरह मीठी थी जिसे सुनकर हर व्यक्ति मंत्रमुग्ध हो जाता। इसी चमत्कृत वाणी जो सिर्फ़ झूठ, सिर्फ़ झूठ का पुलिन्दा होती, जिसे जनता सच मानकर नेता के आकर्षण में फँस जाती जैसे मकड़ी के जाले में शिकार फँसता है। जल में अपनी छवि देखकर मनुष्य के अपने स्वरूप का भान होता था, जल के आकर्षण से मुक्त कर विधाता ने उसे शक्ल सूरत निहारने के लिये दर्पण का आविष्कार कर दिया। दर्पण मिलते ही वह अपने मुखड़े को लेकर उसके पास घन्टों बैठने और आँखों से ख़ुद की प्रशंसा करने में लगा रहता। हाँ, जिन्हें विधाता ने आँखें नहीं बख़्शी, दर्पण उनके काम न आ सका। 

बचपन से एक गीत सुनते आया हूँ कि ‘मुखड़ा देखले प्राणी ज़रा दर्पण में’। तब से मैं दर्पण के विषय में विचारने लगा। गीतकार ने मनुष्य को चेताया कि दर्पण में देख कि कितना पाप और कितना पुण्य तेरे जीवन में है। मैं कई बार दर्पण के सामने बैठा और ख़ुद को निहारने के साथ पाप-पुण्य देखता तो सिवाय मेरे मुखड़े पर धँसी हुई आँखें, चपटी नाक, गोल-गोल गाल के सिवाय कुछ नज़र नहीं आता इसलिये मुझे दर्पण देखकर गीत पर चिंतन करना पड़ा और यह लिखने का विचार आया। बात दर्पण की है, दर्पण में करम कहानी विचारने से पहले दर्पण के बनने या कहिये दर्पण के जन्म को लेकर बात करनी उचित समझता हूँ। विधाता ने दर्पण की रचना यह सोच कर की कि मनुष्य इसे पाकर अपने सौन्दर्य को सँवार सके लेकिन विधाता ने संसार को देखने के लिये दो आँखें दीं किन्तु मनुष्य संसार को देखना भूलकर उन आँखों से दर्पण के द्वारा ख़ुद को निहारने में लग गया। अतएव कहा जा सकता है कि मानव ने दर्पण को निर्विरोध रूप से अपनी आवश्यकता का अंग बनाकर स्वीकार कर लिया। दर्पण स्त्रियों के लिये वरदान साबित हुआ और कुँवारी युवतियों के मनोरथों को सिद्ध करने के अभ्यास का साध्य भी हुआ और विवाहिताओं को अपने-अपने पतियों को प्रेम के मोहपाश में क़ैद करने का हुनर देने वाला भी साबित हुआ। ये कुँवारी सुमुखियाँ घंटों दर्पण के सामने बिताने लगीं। वे दर्पण में अपनी आँखें देखतीं और उसकी गहराई में ख़ुद उतरतीं-डूबतीं। दर्पण के सामने बैठ, वे नैनों से तीर चलाने का अभ्यास कर कैसे दिल का घायल किया जा सकता है, वे दर्पण से सीखतीं। वे दर्पण के सामने शृंगार करते समय अपने रूप लावण्य द्वारा अपनी आँखों की मादकता में मदहोश करनें, आँखों की गहराई में डुबोने, अपने केशों को गूँथते समय एक-एक लट गूँथते हुए उन लटों में सम्पूर्ण मनोरथों को खींचकर बाँध लेती हैं। सुमुखियों और रमणियों के इसी चन्द्रमुख की उन्मुक्तता को शबाब पर पहुँचाने का काम दर्पण करता रहा है; जिनसे अवतारी देवता भी बच न सके, फिर आम व्यक्ति की क्या औक़ात जो ख़ुद को इनके मोहपाश से बचा सके। दुनिया में पिचके गालों वाले युवक हों या कचौड़ी की तरह फूले गालों वाले युवक हों अथवा कुपोषित की तरह अस्थिपंजर निकल आये युवकों या फूटे ज्वालामुखी की तरह बेडौल शरीर वाले युवकों, सभी के लिए ख़ुद के निहारने के लिए दर्पण ही है जो उन्हें ख़ुद को निहारने के बाद, नवरत्न होने की तसल्ली देकर जीने की ताक़त देता है। 

घर-परिवार बसे तो पति-पत्नी, बाप-बेटे माँ-बेटी, सास-बहू के सम्बन्ध भी बने। परिवार को चलाने के लिये घर के पुरुष सदस्यों को महीने भर कमाने को निकलना पड़ा। इधर दर्पण के आते ही ऐसा कोई घर, झोंपड़ी, होटल, महल-अटारी शेष न रही थी जहाँ दर्पण को सम्मान न मिला हो। हर जगह उसकी उपस्थिति एक फ़ैशन बन गयी। पत्नियाँ पति से ज़्यादा दर्पण को प्यार करने लगीं, माताओं को बेटे की सुध नहीं होती और वे दर्पण के सामने मुखड़ा देखने में बितातीं। धीरे-धीरे दर्पण रोज़मर्रा में शामिल हो गया और हर-घर में पहली ज़रूरत बन गया, जिसे देखकर घर से सज धज कर सँवरकर जाने का चलन पुरुष ही नहीं स्त्री के जीवन का भी एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनकर रह गया। दुनिया भर में दर्पण उपयोगी और सर्वप्रिय होने से सर्वव्यापी हो गया। दुनिया का कोई भी देश हो हर देश में, हर घर-दुकान में भले ईश्वर सर्वव्यापी न हो, वेद-पुराण, शास्त्र लोगों के घरों में न हों लेकिन हाँ यह सच है कि सभी जगह दर्पण की व्यापकता हो गयी। यानी ईश्वर की छवि देखने की बजाय आदमी दर्पण में अपनी छवि देखना ज़्यादा महत्त्वपूर्ण समझने लगा। दर्पण निहारने का प्रमुख कारण हर मनुष्य अपने मुखड़े के आकर्षक एवं सुन्दरतम स्वरूप को सजाना और सँवारना बन गया। बदशक्ल से बदशक्ल भी अपनी कुरूपता को सुरूपता में करने का सारा उपक्रम दर्पण के सामने करके सुन्दरमुख वाले को लज्जित करने का अवसर नहीं खोना चाहता है। अब यह सब व्यूटीपार्लर सेन्टरों के माध्यम से कार्यान्वित किया जाना एक फ़ैशन का रूप ले चुका है। महिलाओं और पुरुषों के लिये अलग-अलग ब्यूटीपार्लर सेन्टर गली-गली खुल गये हैं। ब्यूटीपार्लर सच मायने में दर्पणों के मायाजाल का सुन्दर कक्ष है जहाँ आगे-पीछे, दायें-बायें और ऊपर दर्पणों को ऐसा मोहक जाल बिछाया जाता है जिसमें सभी ओर आप ही आप दिखें। ब्यूटीपार्लर कक्ष में धोखा इतना कि इन दर्पणों के चारों और चकाचौंध कर देने वाले प्रकाश/लाईट की व्यवस्था में स्त्री और पुरुष घन्टों ब्यूटीफ़ुल होने के लिये, दर्पणों के समूह के बीच घिरे अपने मुखमण्डल को रँगने-पोतने में अपने सहज प्राकृतिक सौन्दर्य को गँवाकर, ब्यूटिशियन द्वारा दी गयी कृत्रिम सुन्दर सूरत पर फूले नहीं समाते हैं। जो ज़रा सी गर्मी पड़ने या बरसात के छींटे पड़ने पर चेहरे से पिघलकर चेहरे को बदरंग करने में देर नहीं करती। 

दर्पण का महत्त्व इतिहास में हज़ारों साल पहले वर्णित है। अयोध्या के राजा दशरथ के घर भगवान राम अवतरित हुए। राम बालक थे और संध्या को खेलते समय आकाश में चन्द्रमा को देख मचल पड़े और पिताजी से ज़िद करने लगे कि उन्हेंं खेलने के लिये चन्द्रमा चाहिये। राम को रोता देख दर्पण लाया गया और उसमें चन्द्रमा का प्रतिबिंब राम को दिखाया गया जिसे देख राम दर्पण में चन्द्रमा को देख ख़ुश हो गये। इतिहास में एक प्रसंग रानी पद्मिनी के अपूर्व सौन्दर्य को लेकर दर्पण प्रयोग का है जिसमें मेवाड़ राज्य की महारानी पद्मिनी को एक मुग़ल शासक पाना चाहता था। उस शासक को दर्पण में महारानी पद्मिनी का सौन्दर्य दिखाया गया जिसे देख वह उसे पाने को बावला हो गया। धोखे से उसने राजा को क़ैद कर लिया और दिल्ली ले गया और पद्मिनी को पाने की लालसा नहीं त्यागी। बाद में राजा तो बरी हो गये लेकिन पद्मिनी को अपने सौन्दर्य का पता दर्पण से लगा। सच मायने में दर्पण का सिर्फ़ इतना ही महत्त्व है जो जैसा उसके सामने हो वह वैसा ही दिखता है। दर्पण देह के आवरण का ही प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है और रूपवान को रूपवान और कुरूप को कुरूप ही दिखाता है। हाँ, यह अलग बात है कि मुखड़े की कुरूपता को सौन्दर्य का लेप चढ़ाने के लिये दर्पण उपयोगी हो गया है। उस विधाता का दिया सौन्दर्य अपने में पर्याप्त है परन्तु पल-पल दर्पण के सामने बैठने वाले को उसके चेहरे पर कुछ कमज़ोरी ही दिखाई देगी और दूसरे का कुरूप चेहरा उसे अपने चेहरे से ज़्यादा विशेष दिखेगा। या यूँ कहिये दर्पण के सामने अक़्सर कुरूपों को सौन्दर्यवान होने का ज़्यादा एहसास होता है। मैं जगत के रचनाकार की रचनाओं में त्रुटि नहीं देखता हूँ और समझता हूँ कि उसने जो भी रचनायें कीं सभी समय, काल और परिस्थितियों के अनुरूप ही हैं। दर्पण सच प्रगट करता है इसलिये दर्पण के इस विशिष्ट गुण से लोगों का विश्वास कम होता जा रहा है तभी परमात्मा के द्वारा उपहार में दिये अपने मुखड़े में कमी देखने की आदत सी हरेक में देखी जाती है। 

कभी किसी ने अपने पाप-पुण्य देखने के लिये दर्पण का उपयोग नहीं किया है। इसलिये किसी भी मनुष्य को चाहे वह स्त्री हो या पुरुष उसे भान ही नहीं होता कि दर्पण के सामने हमेशा ख़ुद का दीदार करते रहने के बाद भी वे अपने जीवन के यर्थात सत्यों से कितने परिचित है। किसने कितने पाप किये, कितने पुण्य किये, कितने अच्छे काम कर सका या कितने ग़लत काम करके अपने जीवन में बदनुमा दाग़ लगाये; यह दर्पण में देखते वक़्त किसी के भी चिंतन में नहीं आता है। जीवन में धर्म, कर्म और आध्यात्म की बात दर्पण में निहारते समय कोई कर सका ऐसा एक भी प्रमाण दुनिया बनने के दिन से आज दिन तक रिकॉर्ड में नहीं मिला। समाज में चिंतन हमेशा से रहा है जो इस गीत में भी सहज और सरलता से देखने को मिला। गीत में कपटपूर्ण काम करने वाले अर्थात्‌ अनैतिक काम करने वालों को समझाने का प्रयास किया कि ‘ख़ुद को धोखा मत दे बन्दे, अच्छे न होते कपट के धंधे’। इतना ही नहीं एक पंक्ति में सारी बात को कहने का साहस गीतकार ने किया और चेताया कि ‘सदा न चलता किसी का नाटक, इस दुनिया के आँगन में’। लेकिन गीत में सहजता से यह व्यक्त करना कि ‘मुखड़ा देख ले प्राणी ज़रा दर्पण में’, एक क्रान्तिकारी संदेश रहा जिस पर तेज़ी से भागते किसी भी मनुष्य ने अमल नहीं किया। 

विधाता कहिये, ईश्वर कहिये, परमात्मा कहिये या इस दुनिया का मालिक। उसकी रचनाओं का कोई सानी नहीं। उसने देह दर्शन के लिये दर्पण तो बना दिया लेकिन देह को धारण करने वाले इस जीवात्मा को देखने के लिए मन को देखने के लिए, मन-मस्तिष्क में चल रहे विचारों को देखने के लिए कोई दर्पण नहीं बनाया। वह सर्वज्ञ कहलाता है, वह सर्वव्यापी बताया गया है इसलिये उसे पाने के लिये या ख़ुद को जानने-पहचानने के लिये किसी काँच की ज़रूरत नहीं समझी, जिसे परमात्मा को पाना है, ख़ुद को पाना है वह ख़ुद के अन्दर की यात्रा करें। तत्त्व ज्ञानियों ने दर्पण की महिमा लिखी है और उसे काँच जैसा निर्मल पारदर्शी बतलाया है अर्थात्‌ काँच के समान निर्मल हृदय वाला ही लक्ष्य पाता है। यद्यपि उस रचनाकार परमात्मा की हर रचना स्वयं में निर्मल है, काँच की तरह है इसलिये इस निर्मलता में काँच का महत्त्व समाहित है। इसलिये भी दर्पण को हम परमात्मा का आंशिक अंश मान सकते हैं, क्योंकि जो उसके द्वारा दिखाया जाता है उसे प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। दर्पण देखकर कोई भी मनुष्य प्रेरणा ले सकता है और अपने मुख के तेज, शौर्य और बल का सही जगह उपयोग कर अपने व्यक्तित्व का परिचय दे सकता है। दर्पण को मैंने परमात्मा के आंशिक अंश होने की बात इसलिए की, क्योंकि सच बात यह है कि इस संसार में परमात्मा का कोई प्रतिनिधि नहीं है। अलबत्ता हम दर्पण को उसका प्रतिनिधि मानने का दावा इसलिये कर सकते हैं क्योंकि दर्पण ही है जिसे बार-बार निहारने और उसके सामने एकचित्त बैठकर, ख़ुद की कला और रसिकता का भोंड़ा प्रदर्शन हर आयु-वर्ग के स्त्री-पुरुष करते मिल जायेंगे। इसका प्रमाण तलाशने के लिए किसी भी नगर-गाँव के महल्लों में कुकुरमुत्ते की तरह उग आये ब्यूटी पार्लर सेन्टरों से समझा जा सकता है। 
 

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