भारतीय संस्कृति में मंगल का प्रतीक चिह्न स्वस्तिक
आलेख | सांस्कृतिक आलेख आत्माराम यादव ‘पीव’1 Feb 2024 (अंक: 246, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
जीवन में प्रत्येक मनुष्य चिन्तन, सत्य, शाश्वत शान्ति और अनन्त दिव्य सौन्दर्य को सहज ही प्राप्त करने के आशय से जन्म लेता है किन्तु वह दिव्यता और शुभसंस्कारों से पृथक आसुरी शक्तियों की शरण में रहकर अपने प्रारब्धमयी भाग्य से वंचित रह जाता है। यह संसार सदाचार सम्पन्न है जिसमें मनोभावों को व्यक्त करने या परिभाषित करने में व्यक्ति की चेष्टायें प्रतिपल अपने धर्म और स्वभाव का परित्याग कर उसे अधोगामी बनाती हैं, जबकि उसका जन्म उर्द्धगामी मार्ग का अनुसरण कर परमस्वरूप को प्राप्ति के लिये हुआ है। जीवन की इस प्रासंगिकता को वेदों के ऋषियों ने अपनी दिव्यदृष्टि से आभासित कर लिया था तभी सत्य और शान्ति का संदेश देने के लिये किसी भावना से परे शब्दों में व्यक्त किये बिना मौन अभिव्यक्ति स्वरूप मांत्रिक प्रतीक जिस चिह्न को अंकित कर पूजा में सर्वोच्च स्थान दिया गया वह ‘स्वस्तिक’ था जो तभी से भारतीय सस्कृति में मंगल का प्रतीक के रूप में धर्म देवार्चन में अग्रणी स्थान प्राप्त किये हुए हैे। विश्व में भारत अनूठा देश है जहाँ सदाचार सम्पन्न अग्रणी गौरवमयी अक्षुण्णता का प्रतिनिधित्व करने के लिये हम प्रतीक चिह्नों को पूर्णता प्रदान करके एक नया इतिहास रचते आये हैं, जिसमें स्वस्तिक हर शुभकार्य के लिये प्रथम स्थान पर पूज्य है तभी भारत ही नहीं अपितु दुनिया के अनेक देशों में स्वस्तिक को मांगलिक प्रतीक के रूप में स्वीकारा है।
स्वस्तिक का जन्म भारत में हुआ। भारत देश ही है जो वसुदेव कुटुम्बकम की भावना लिये सम्पूर्ण विश्व के कल्याण की कामना करता है। स्वस्तिक का अर्थ ही होता है आर्शीवाद, मंगल या पुण्यकार्य की प्राप्ति कराने वाला। इतिहास के गर्भ में, विश्व का आदि साहित्य ऋग्वेद की ऋचाओं में स्वस्तिक का प्रयोग सूर्य के रूप में मिलता है। स्वस्तिक शब्द सु अस क से निर्मित है। सु का अर्थ अच्छा, अस का अर्थ सत्ता या अस्तित्व और क का अर्थ कर्ता, करने वाला होता है। अतएव सिद्ध है स्वस्तिक का अर्थ—अच्छा करने वाला, मंगल करने वाला है।
“स्वस्ति मात्र उतपिन्ने नो अस्तु, स्वस्ति गोम्यों जते पुरूषेभ्यः।
विश्वं सुभूतं सुविन्नं, नो अस्तु जेगेव द्वशेम सूर्यम॥ (अथर्ववेद 1.31.4)
इस ऋचा का अर्थ है कि हमारी माता के लिये कल्याण हो। पिता के लिये कल्याण हो। हमारे गोधन के लिये मंगल हो। विश्व के समस्त प्राणियों का मंगल हो। हमारा यह संपूर्ण संसार उत्तम धन और उत्तम ज्ञान से सम्पन्न हो। हम लोग चिरकाल तक प्रतिदिन सूर्य के दर्शन करते रहें, हम दीर्घजीवी हों। वेद का ऋषि सत्य, शिव और सुन्दर के रंगमंच पर विराजित होकर सभ्यता के आदिकाल में स्वस्तिक को लेकर यह कहें तो निश्चित ही यह मांत्रिकसूत्र शोध, परिमार्जन के लिये एक चुनौती है।
वेदों में प्रकाश, कल्याण, दीर्घायु की कामना के साथ स्वस्तिक विश्वजनीन प्रतीक होने से विलक्षण है। विलक्षणता इस बात से आभासित होती है कि स्वस्तिक को आयु, प्रकाश, सूर्य और आकाश का मूर्त वाङ्मय भी कहा जाकर इसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गयी है। स्वस्तिक के मध्य को विष्णु की नाभि और चारों भुजाओं को ब्रह्माजी के चार मुख माना है। स्वस्तिक की चार भुजाओं को सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग इन चार युगों की संज्ञा मिली है वहीं कोई चार आश्रम, चार वर्ण, चार धाम के संकेतों का प्रतीक भी मानते हैं। स्वस्तिक की रूपरेखा और आकार-प्रकार को लेकर योगी इस स्वस्तिक चिह्न को हठयोग का आसन कहते हैं तो वहीं यह एक यांत्रिक स्वरूप में होने पर चतुष्पद अथवा चैाराहे के लिये प्रयोग में लाया गया है। अनादि काल से स्वस्तिक भारतीय संस्कृति में मंगलप्रतीक का स्थान धारण किये जाने के कारण सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है तभी इस मांगलिक चिह्न स्वस्तिक को गणेशपूजन से पूर्व ही विशेष अवसरों, उत्सवों आदि में अंकित किया जाकर पूजा जाता है। श्रीराम और श्रीकृष्ण के अवतार के समय यह प्रतीक चिह्न स्वस्तिक उनके चरणों में भी अंकित होने के शुभाशुभ संकेत मिलते है।
स्वस्तिक की मांगलिक दिव्यता के दर्शन दो लकड़ियों में यज्ञ के प्रारम्भ में अग्नि पैदा करने के लिये किया जाता है जो स्वमेव ही स्वस्तिक को प्रकाश के प्रतीक का प्रमाण बन जाता है। श्रीरामचरित्र मानस में श्रीराम और सुग्रीव की मित्रता को प्रगाढ़ता का लेपन करने के लिये हनुमान द्वारा इसी प्रकार दो लकड़ियों को धनाकार स्वरूप देेते हुए घर्षण से अग्नि प्रज्जल्वित करने का उदाहरण भी स्वस्तिक को मैत्री अवसर पर दिखता है। विघ्नहर्ता गणेश की पूजा, अर्चना पर वैभवदात्री देवी लक्ष्मी के साथ शुभ, लाभ स्वस्तिक पूजा में होते हैं वहीं किसी भी ज्योतिषाचार्य द्वारा किसी भी जातक की जन्मकुण्डली बनाते समय, विवाह हेतु कुण्डली मिलान में ग्रहदिशा मिलाने, शादी पत्रिका तैयार करने, विवाह आमंत्रण सहित सभी मांगलिक अवसरों पर सर्वप्रथम स्वस्तिक अंकन की शुभता विभूषित होती है। हिन्दू संस्कृति में सृष्टि के आदिकाल से स्वस्तिक कल्याण का वाचक रहा है। विश्व की समस्त सभ्यजातियों में हिन्दू जाति अपनी उपासना, पूजा-पाठ आदि में प्रतीकों को विशेष महत्त्व देती है जिसे समझने के लिये सीमित बुद्धिक्षेत्रों के लोगों के मस्तिष्क और जिह्वा के पंख झड़ जाते हैं, उस बोध के लिये स्वस्तिक प्रतीक का हाथ पकड़कर हिन्दू सरलता एवं सहजता से उसे हृदयंगम कर लेते है। स्वस्तिक, अग्नि और सूर्य भगवान के प्रतीक है तो जैन धर्म में एक दूसरे को परस्पर काटने वाली स्वस्तिक रेखायें पुरुष और प्रकृति, आत्मा और परमात्मा का प्रतीक है अतएव यह सिद्ध है कि दोनों रेखाओं के एक दूसरे को परस्पर काटने पर चार भाग होने पर निर्मित होने वाला स्वस्तिक ही सर्वश्रेष्ठ स्थान रखता है।
जितना महत्त्वपूर्ण स्वस्तिक चिह्न है उतना ही महत्त्व का स्वस्तिक मंत्र है जिसे हर मांगलिक अवसर पर स्वस्तिवाचन द्वारा उच्चारित किया जाता है।
“स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥”
ओम शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
इस स्वस्तिक मंत्र का प्रयोग हर शुभ कार्य में, वैवााहिक मण्डप में शगुन में, तिलक के अलावा हर षोड़स संस्कारों सहित हर मांगलिक कार्य के प्रारम्भ में स्वस्तिवाचन द्वारा संपन्न होता है।
अनेक धर्मो में स्वस्तिक को मान्यता दी है। ईसाई धर्म में क्रॉस का चिह्न स्वस्तिक का ही रूपान्तरण है। बौद्धों और जैनियों ने भी स्वस्तिक चिह्न को महत्त्व देते हुए इसका प्रयोग किया है। अशोक के शिलालेखों में स्वस्तिक का प्रयोग मिलता है और जैन धर्म में भी इतिहासवेत्ताओं ने इसके प्रयोग को सराहा है। प्रायः दुनिया के सभी देशों में, अपनी-अपनी मान्यता एवं नियम के तहत स्वस्तिक को पूजनीय मानकर विश्वकल्याण की उपमा से विभूषित किया है। जैन धर्म में अक्षत पूजा के समय स्वस्तिक बनाकर तीन बिन्दु बनाते हैं जो देव, नरक, तिर्यक एवं मनुष्य का प्रतीक माने जाते हैं और बिन्दुओं को सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक चरित्र का एवं मध्य स्थान को मुक्ति का स्थान सिद्धशिला कहते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो स्वस्तिक के आदर्शों का गान करते मिलेंगे तभी सत्य की प्राप्ति और शांन्ति की अनुभूति के लिये स्वस्तिक विश्वकल्याण का प्रणेता बनने को तत्पर है। स्वस्तिक विश्वकल्याण का दूत है। स्वस्तिक हिन्दुओं का मांगलिक प्रतीक है तभी शास्वत शान्ति, चिरन्तन सत्य, और जनकल्याण के लिये स्वस्तिक के उपासक भारत के चरणों में नतमस्तक होकर हिन्दू संस्कृति के गीत गाये और दैवी शक्ति से सम्पन्न स्वस्तिक विश्व का शान्तिदूत बना है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
अक्षय तृतीया: भगवान परशुराम का अवतरण दिवस
सांस्कृतिक आलेख | सोनल मंजू श्री ओमरवैशाख माह की शुक्ल पक्ष तृतीया का…
अष्ट स्वरूपा लक्ष्मी: एक ज्योतिषीय विवेचना
सांस्कृतिक आलेख | डॉ. सुकृति घोषगृहस्थ जीवन और सामाजिक जीवन में माँ…
अस्त ग्रहों की आध्यात्मिक विवेचना
सांस्कृतिक आलेख | डॉ. सुकृति घोषजपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महद्युतिं। …
अहं के आगे आस्था, श्रद्धा और निष्ठा की विजय यानी होलिका-दहन
सांस्कृतिक आलेख | वीरेन्द्र बहादुर सिंहफाल्गुन महीने की पूर्णिमा…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
सांस्कृतिक आलेख
- गिरिजा संग होली खेलत बाघम्बरधारी
- ब्रज की होली में झलकती है लोक संस्कृति की छटा
- भारतीय संस्कृति में मंगल का प्रतीक चिह्न स्वस्तिक
- मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा और विसर्जन का तात्विक अन्वेषण
- राम से मिलते हैं सुग्रीव हुए भय और संदेहों से मुक्त
- रामचरित मानस में स्वास्थ्य की अवधारणा
- रावण ने किया कौशल्या हरण, पश्चात दशरथ कौशल्या विवाह
- शिव भस्म धारण से मिलता है कल्याण
- स्वेच्छाचारिणी मायावी सूर्पणखा की जीवन मीमांसा
कविता
- अधूरी तमन्ना
- अरी आत्मा तू जाये कहाँ रे
- आज का कवि
- एक टीस अंतरमन में
- एक टीस उठी है . . .
- कितना ओछा है आदमी
- कौआ, कब कान्हा के हाथों रोटी छीनेगा
- क्षितिज के पार
- जाने क्यों मुझे देवता बनाते हैं?
- नयनों से बात
- नर्मदा मैय्या तू होले होले बहना
- निजत्व की ओर
- मातृ ऋण
- मुझको हँसना आता नहीं है
- मुझे अपने में समेट लो
- मेरे ही कफ़न का साया छिपाया है
- मैं एक और जनम चाहता हूँ
- मैं गीत नया गाता हूँ
- ये कैसा इलाज था माँ
- वह जब ईश्वर से रूठ जाती है
- सपनों का मर जाना
- सबसे अनूठी माँ
- समय तू चलता चल
- सुख की चाह में
- हे वीणापाणि आज इतना तो कीजिये
- होशंगशाह क़िले की व्यथा
साहित्यिक आलेख
आत्मकथा
चिन्तन
यात्रा वृत्तांत
हास्य-व्यंग्य कविता
ऐतिहासिक
सामाजिक आलेख
सांस्कृतिक कथा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं