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अहं के आगे आस्था, श्रद्धा और निष्ठा की विजय यानी होलिका-दहन

 

 

फाल्गुन महीने की पूर्णिमा को हुताशणी का यानी होलिका का व्रत करने का विधान है। यह बात सांप्रतकाल से यानी युगो-युगों पहले की है, परन्तु सत्य के आगे असत्य कभी टिका नहीं या टिक भी नहीं सकता। यह एक परम, शाश्वत और सनातन सत्य है। निष्ट का जतन और अनिष्ट का दहन यानी होलिका दहन। मानव-जीवन की कमज़ोरी, वाणी-विलास की लालसा और अहं कहीं न कहीं आड़े आए बग़ैर रहता नहीं, पर धर्म, नीति, सत्संग और संस्कार इसे दबा देते हैं। होलिका पर्व का भी कुछ ऐसा ही है। आस्था, श्रद्धा और निष्ठा का अहं से टकराव है। होली के साथ एक पौराणिक कथा जुड़ी है। 

होली के उत्सव की मुख्य पौराणिक कथा 

हिरण्यकशिपु नाम का राक्षस अपने जीवन में संसार में ख़ुद ही महान है यह साबित करने वाला असुर, जहाँ देखो वहाँ अपना ही महत्त्व इस तरह की ओछी विचारधारा रखने वाला असुर, भोगी और स्वार्थी था। बिना स्वार्थ के एक क़दम भी आगे न बढ़े, इस तरह की उसकी मनोवृति थी। ख़ुद को ही वह ईश्वर समझता था। इस असुर के घर में एक सुंदर और पवित्र बालक का जन्म हुआ। उसका नाम प्रह्लाद था। यह पुत्र भगवान का ही अंश था। बालक प्रह्लाद नारायण को बहुत मानता था। 

पिता असुर हिरण्यकशिपु ने अपने साम्राज्य को एकछत्र रखने के लिए प्रह्लाद को नारायण से दूर रखने की कोशिश की। अनेक प्रयत्न करने के बाद भी वह इस बालक को नारायण से दूर नहीं कर सका। अंत में यह असुर बालक को मृत्युदंड देने को तैयार हुआ और बालक प्रह्लाद को जीवित जला देने का विचार किया। 

बहन होलिका को ब्रह्माजी का वरदान था कि अग्नि उसे स्पर्श नहीं कर सकती। होलिका सद्वृत्ति की थी। वह प्रह्लाद को बहुत प्यार करती थी। उसे अग्नि नहीं जला सकती, इस वरदान के आधार पर वह प्रह्लाद को बचा लेना चाहती थी। प्रह्लाद को गोद में लेकर वह चिता पर जा बैठी। गोद में बैठा प्रह्लाद अष्टाक्षर मंत्र का जाप करता रहा। अग्नि प्रकट हुई। सद्वृत्ति का यह बालक हमेशा प्रभु का नामस्मरण करता था, इससे प्रभु ने उसे बचा लिया। होलिका के साथ प्रह्लाद था, इसलिए उसका वरदान निष्फल गया और वह जल कर भस्म हो गई। 

कहने का तात्पर्य यह है कि जो हमेशा प्रभु को अपने साथ रखता है, अपने दिल में रखता है, प्रभु कभी उसका अहित नहीं होने देते। 

होली के पवित्र दिन होलिका और अग्निदेव का पवित्र पूजन

इस पवित्र त्योहार की संध्या को हर घर के बाहर या हर चौक पर इस त्योहार की याद में उपलों और लकड़ियों को एकत्र कर अग्नि प्रज्वलित की जाती है। अग्निदेव और होलिका दोनों का पवित्र पूजन किया जाता है। एक तो अग्निदेव का पूजन इसलिए कि सत्यनिष्ठ, प्रभुनिष्ठ, सद्वृत्ति के प्रह्लाद को बचा लेने के लिए नगरजनों ने ख़ास अग्निदेव से प्रार्थना की थी। दूसरे होलिका पूजन इसलिए करते हैं कि होलिका एक सद्वृत्ति स्त्री थी। उसने अपने वरदान से प्रह्लाद को बचा लिया था और उसके लिए ख़ुद जान दे दी थी। इसलिए होलिका की आत्मा की शान्ति के लिए प्रज्वलित अग्नि की परिक्रमा करते हुए श्रद्धालु जल छिड़कते हैं। इसके अलावा अग्निदेव और होलिका को अबीर गुलाल, कुमकुम, चावल और फूलों द्वारा भी पवित्र पूजा की जाती है। 

विशेष में खजूर, धनिया और दलिया का प्रसाद भी चढ़ाया जाता है। 

 होलिका उत्सव के साथ-साथ इस दिन विविध उत्सव

  • बसंत के वैभव में कामांध कामदेव ने शिवजी पर अपना जादू चलाने का प्रयास किया था और शिवजी का ध्यान भंग किया था। तब सदाशिव ने ग़ुस्सा हो कर कामदेव की कामांध प्रवृत्ति यानी कामवासना को ख़त्म कर इसी दिन कामदेव का दहन किया था। 

  • बृजभूमि में यह उत्सव फाग उत्सव के रूप में मनाया जाता है। ख़ास कर श्री वैष्णव का होली उत्सव इस तरह मनाया जाता है। वैष्णव होलिका दहन के बजाय पूतना दहन करते हैं। बृज में बच्चे फाल्गुन सुद 14 को पूतना की प्रतिमा बना कर उसे जलाते हैं और पूर्णिमा को रंगों से होली खेलते हैं। 

  • भागवत पुराण के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण को अपराध बोध सता रहा था कि राधा बहुत गोरी है और वह ख़ुद श्याम वर्ण के थे। दोनों के रंगों में ख़ासा अंतर था। कन्हैया ने अपनी माँ यशोदा के पास शंका व्यक्त की थी कि राधा तो गोरी है वह श्याम वर्ण के मुझे चाहेगी या नहीं? तब यशोदा ने सलाह दी थी कि तुम राधा को रंग से रंग दो। उसके ऊपर गुलाल उड़ा कर उसे भी श्याम वर्ण की बना दो। माँ की यह सलाह मान कर श्रीकृष्ण ने राधा के ऊपर गुलाल उड़ाया और बृज में राधा-कृष्ण के बीच पहली बार गुलाल उत्सव हुआ। 

इस पवित्र याद में हम होली-धुलेटी में गुलाल उत्सव मनाते हैं। 

फाल्गुन पूर्णिमा की एक विशेषता यह भी है कि धन की देवी तथा श्रीबैकुंठ के अधिपति श्रीहरि विष्णु भगवान की पत्नी श्री लक्ष्मीजी का जन्मदिन भी है। लक्ष्मीजी उन दिनों स्वर्ग के अधिपति इन्द्र की पत्नी थीं। वह स्वर्गलक्ष्मी के नाम से प्रचलित थीं। तब हरिविष्णु के साथ उनका विवाह हुआ नहीं था। वह स्वर्गलक्ष्मी शची के नाम से प्रचलित थीं। 

होली उत्सव का शुभ संदेश 

होली के उत्सव में फाल्गुन के विविध रंगों से हमारे जीवन को संयम के साथ रंगीन बनाते हैं। बसंत के वैभव में भी संयम की सीमा को नहीं लाँघते। इसके अलावा सत्यनिष्ठ, प्रभुनिष्ठ और सद्वृत्ति की रक्षा कर के असद्वृत्ति को होली में जला कर भस्म करते हैं। यही होली उत्सव का मुख्य संदेश है। 

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