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हाय क्या चीज़ है जवानी भी

 

एक ग़ज़ल है: रात भी नींद भी कहानी भी . . . 

यह ग़ज़ल है रघुपति सहाय, जो अपने फ़िराक़ गोरखपुरी उपनाम से जाने जाते हैं। वह बीसवीं सदी के भारत के शिखर के चार-पाँच उर्दू ग़ज़लकारों में एक थे। इसके अलावा बहुत विद्वान, लेखक, विवेचक, वक्ता और प्रोफ़ेसर थे। इसके पहले वह अँग्रेज़ों के ज़माने में आज के आईएएस के लेवल के आईसीएस अधिकारी के रूप में भी चुने गए थे, पर बाद में गाँधी के रंग में रँग कर स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गए, जिसकी वजह से अट्ठारह महीने जेल में रहे। छूटने के बाद वह प्रोफ़ेसर बने और एक शायर-ग़ज़लकार के रूप में ज़बरदस्त नाम कमाया। उन्हें ज्ञानपीठ भी मिला और पद्मभूषण भी। 

इस दिग्गज शायर की इस ग़ज़ल—रात भी नींद भी कहानी भी—की विशेषता यह है कि एक ओर तो यह तीखी और तर्कसंगत भी है और दूसरी ओर अत्यधिक रोमांटिक भी। इसमें मिठास के अलावा हल्की सी कड़वाहट भी है। इसलिए कड़वे गानों से मीठे गानों की ओर यू-टर्न लेने के लिए यह ग़ज़ल एक अच्छा घुमाव पूरा करती है। आइए देखते हैं:

“रात भी नींद भी कहानी भी
हाय क्या चीज़ है जवानी भी”

देर रात का समय है, थोड़ी-थोड़ी नींद आ रही है और मन में चल रही है एक कहानी, एक कल्पना . . . 

थोड़ी एक्टिंग आती हो तो इस तरह का युवक या युवती इस तरह का सपना देखता है कि ऑस्कर समारोह चल रहा है, श्रेष्ठ अभिनेता या श्रेष्ठ अभिनेत्री के अवार्ड की घोषणा हो रही है और माइक पर शब्द उच्चारित हो रहे हैं—एंड द अवार्ड गोज़ टू फ़लाँ फ़्रॉम इंडिया . . . और कल्पना में बज रही तालियों की गड़गड़ाहट सुन कर चेहरे हल्की मुस्कान प्रकट होती है। 

इसी तरह विज्ञान में रुचि हो तो युवा नोबेल का सपना देखता है। राजनीति में प्रवेश कर रहा व्यक्ति सीधे प्रधानमंत्री बनने का सपना देखता है। 

ठीक है, निशान देखना या ऊँचाई देखना, यही तो जवानी है, एक लंबी दौड़ प्रतियोगिता की शुरूआत है। इस समय आदमी एकदम जोश में होता है और यह ज़रूरी भी है। जवानी में सपने शेखचिल्ली जैसे हों तो भी चलेगा। इसके बाद सफलता तो प्रतिभा, पुरुषार्थ और प्रारब्ध के उचित संयोजन पर ही मिलती है। पर मुद्दा यह है कि शुरूआत में हौसला बुलंद होना चाहिए, जवानी ज़रूरी है, सपने ज़रूरी हैं। सपने के लिए शान्ति और एकांत ज़रूरी है। इसके लिए पूरी रात पड़ी है। भले ही थोड़ी नींद आ रही हो, पर इस तंद्रावस्था में शानदार सपने देखना . . . आहाहा . . . हाय क्या चीज़ है जवानी भी। 

अलबत्ता, यहाँ कवि केवल दुनियावी सफलता के सपनों की बात नहीं कर रहा है, कवि का मूल इशारा तो रोमांटिक सपने की ओर है। इस तरह का सपना आए कि शाम को प्रेमिका मिलने आई है . . . ख़ूब बातें हुईं . . . रात हो गई . . . और फिर पूरी रात . . . 

इस सिचुएशन के बारे में इसी ग़ज़ल का शेर है:

“पास रहना किसी का रात की रात
मेहमानी भी मेज़बानी भी”

‘वारी जाए’ ऐसा यह शेर है। सामान्य रूप से प्रेमियों को एक कमरे में लंबे समय का एकांत मिले ऐसी सिचुएशन के लिए ‘हम तुम एक कमरे में बंद हों और चाबी खो जाए . . .’ इस तरह की पंक्ति लिखी जा सकती है। पर यह फ़िराक़ गोरखपुरी हैं, जो कहते हैं कि प्रेमियों को पूरी की पूरी रात साथ रहने का अवसर मिले तो इस सहवास में थोड़ी मेहमानी भी और थोड़ी यजमानी भी हो। 

बात लाड़ की है, एक दूसरे को सँभालने की है, पल भर में युवक लाड़ लड़ाता है, पल भर में युवती लाड़ लड़ाती है। पल भर में वह मेहमान लगती है, पल भर में वह मेहमान लगता है। पल भर में यजमान बन जाता है तो पल भर में यजमान की भूमिका में आ जाता है . . . मेहमान भी मेज़बान भी। 

चार ही शब्द . . . पर इतने में ही बहुत कुछ कह दिया। सचमुच कवि पद्मभूषण लायक़ है। 

आगे बढ़ते हैं। यह ग़ज़ल जितनी रोमांटिक है, उतनी ही वास्तविकतादर्शी भी है। यहाँ भावनाशाली कवि कठोर दुनिया के अस्तित्व को भी जानता है, इसलिए कहता है:

“ख़्ल्क़ क्या क्या मुझे नहीं कहती
कुछ सुनूँ मैं तुम्हारी ज़ुबानी भी”

ख़्ल्क़ यानी कि दुनिया के लोग तो मुँह काला करते हैं। मम्मी-पापा-दोस्त-बुज़ुर्ग-सगे मुझे बहुत कुछ सुनाते हैं। कामधंधा कर, आलसी की तरह पड़ा मत रह आदि आदि, पर यह सब सुनने के बाद हे प्रियतमा, अब ज़रा दो शब्द तुम भी कहो, कुछ सुनूँ मैं तुम्हारी ज़ुबानी भी। 

और यह शेर देखो:

“दिल को शोलों से करते हैं सैराब
ज़िन्दगी आग भी है पानी भी”

करो बात! दिल को हम आग से तरबतर (सैराब) करते हैं। यह ऐसी-वैसी आग की बात नहीं है। यह गीली आग की बात है। दिल गीला-गीला भी हो और जल भी रहा हो . . . मुख्य रूप से ऐसा अनुभव जवानी में ही होता है, जब लगता है ज़िन्दगी आग भी है पानी भी। 

हाय क्या चीज़ है जवानी भी। 

मनुष्य पर स्थल-काल का प्रभाव पड़ता ही है। कोई भी आदमी किसी भी तरह के बाह्य प्रभाव के बिना पूरी तरह मौलिक नहीं हो सकता। आसपास की बातें, संस्कार, संस्कृति आदि मिल कर ही हमें गढ़ती हैं। ग़ज़ल रात भी नींद भी कहानी भी लगभग एकाध सदी पुरानी है। इसकी यह पंक्ति: हाय क्या चीज़ है जवानी भी, शायद उस समय लोगों को इतनी अजीब न लगी हो, पर अगर आज कोई कवि लिखे कि ‘हाय, क्या बाक़ी चीज़ है जवानी’ तो आप क्या सोचेंगे? आप कहेंगे कि यह तो अति सामान्य दर्जे की भद्दी और आलमोस्ट वीभत्स लगने वाली पंक्ति है। 

ख़ैर, हाय क्या चीज़ है जवानी भी यह लिखने के पहले कवि ने लिखा है: रात भी नींद भी कहानी भी . . . दोनों पंक्तियों के एक साथ आने के बाद यह उतनी भद्दी नहीं लगती, बल्कि यह शानदार हो जाती है। 

और हाँ, बात-बात में ज़िन्दगी का दर्शन भी झाड़ा गया है, जो आज के युग में हमें थोड़ा खटकता है, क्योंकि ज़िंदगानी ऐसी है, ज़िंदगानी वैसी है, यह सब हम सभी ने बहुत पढ़-सुन लिया है। फ़िराक़ ने जब लिखा कि ज़िन्दगी आग भी है पानी भी तब तो यह कहने का मन हो सकता है कि कविजी रहने दो ज़िन्दगी की डेफ़िनिशन करने का काम . . . पर ऐसी शिकायत करने का मन नहीं होता। क्योंकि यहाँ भी एक पंक्ति दूसरी पंक्ति के साथ मिल कर, एक पूरे शेर के रूप में प्रभावशाली है। पूरा शेर है, दिल को शोलों से करते हैं सैराब, ज़िन्दगी आग भी है पानी भी। दिल को हम आग से भिगोते हैं। दिल गीली आग से भीगा है। दिल भीगा-भीगा भी है और भरभरा कर जल भी रहा हो . . . इसे कहते हैं जवानी। जब हृदय आग-पानी से संयुक्त रूप से तरबतर हो। 

ग़ज़ल में थोड़ा गहराई में उतरते हैं। अन्य एक शेर है:

“एक पैगाम-ए-ज़िंदगानी भी 
आशिक़ी मर्ग-ए-ना-गहानी भी”

फिर ज़िन्दगी-जिंदगानी की बात आई, परन्तु यहाँ फ़ोकस ज़िन्दगी पर नहीं, इश्क़ पर है। कवि कहता है कि यह इश्क़, आशिक़ी, प्रेम एक तरफ़ तो ज़िन्दगी का संदेश देता है तो दूसरी ओर अचानक आई मौत है। 

इश्क़ मनुष्य को जीवंत भी बनाता है और इश्क़ अच्छे-ख़ासे आदमी को ख़त्म भी कर देता है। बात सच है। मरियल आदमी भी प्रेम में एकदम जोशीला बन जाता है और उसी तरह प्रेम ग़ैर सोची मौत जैसा होता है, जो अचानक आ कर इस तरह दबोच लेती है कि एक हट्टा-कट्टा आदमी अचानक ढीला-ढाला हो जाता है। इश्क़ आदमी को उत्तेजित करता है और इश्क़ उसे ठंडा भी कर देता है। इश्क़ ज़िन्दगी भी है, इश्क़ मौत भी है। अच्छा है। आगे . . . 

“दिल को अपने भी ग़म थे दुनिया में
कुछ बलाएँ थीं आसमानी भी”

अर्थ स्पष्ट है: दिल को केवल दुनियावी दुख ही नहीं खटकते, कुछ ग़ैबी, भेदी, आसमानी तकलीफ़ें भी तकलीफ़ देती हैं। इसका यह भी अर्थ निकल सकता है कि लाइफ़ की तमाम ग़लतियाँ हमारी अपनी भूल के कारण होती हैं और तमाम नसीब में लिखी होती हैं, जिसमें अपनी कोई भूमिका नहीं होती। 

और यह शेर:

“इश्क़-ए-नाकाम की है परछाईं
शामदानी भी कामरानी भी”

यह बात ज़बरदस्त है। कवि कहता है कि हमारे चेहरे पर आज ख़ुशी (शामदानी) देखने को मिल रही है वह भी और हमने जो सफलता (कामरानी) प्राप्त की है, वह भी अंतत: प्रेम में मिली निष्फलता की परछाईं है। 

बात समझ में आ जाए, ऐसी नहीं है, पर मज़ेदार है। कवि कहता है कि आज हम सफल हैं और हमारे चेहरे पर ख़ुशी देखने को मिल रही है। क्योंकि हम प्रेम में निष्फल निकले . . . प्रेम में फ़ेल हुए . . . बाद में क्या हुआ? बाद में हम लाइन पर आ गए। बाद में हम काम से लग गए। मतलब कि आज की ख़ुशी और सफलता का असली आधार तो बीते कल की निष्फलता में छुपा है। 

यह बात मात्र इश्क़ पर ही नहीं, अन्य मामलों में भी लागू होती है। किसी मामले में आदमी ठोकर खाता है, तो चेत जाता है, ख़ुद को सँभाल लेता है, पुरानी निष्फलता को बिसरा कर नई संभावित सफलता को नज़र के आगे कर के आगे बढ़ता है . . . तो वह अवश्य सफल होता है। इस सफलता के बाद कहा जा सकता है कि आज का तेज पुरानी निष्फलता का प्रतिबिंब है। 

एक कहावत है: काम से लग जाना। इसका अर्थ है: हैरान हो जाना। पर इसका अच्छा अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि आदमी ‘फ़ुरसत या रातदिन’ से निकल कर फलदायी काम में लग गया। काम से लग जाना, यह कोई ख़राब बात नहीं है। उम्र होने पर आदमी को कामधंधे से लगना ही चाहिए। किशोरावस्था के रोमांटिक मूड में पूरी ज़िन्दगी नहीं रचे-बसे रहना चाहिए। 

संक्षेप में आज आप की ज़िन्दगी अच्छे से चल रही है। कामधंधा, व्यापार सब कुछ बढ़िया चल रहा है और अगर आपने भूतकाल में इश्क़ में कभी ठोकर खाई है तो मन ही मन आप पूर्व प्रियजन से रघुपति सहाय उर्फ़ फ़िराक़ गोरखपुरी के यह शब्द कह सकते है:

“इश्क़-ए-नाकाम की है परछाईं 
शामदानी (ख़ुशी) भी कामरानी (सफलता) भी”

और फिर एक लंबी साँस ले सकते हैं: हाय क्या चीज़ है जवानी भी। अब और थोड़ा गहराई में उतरते हैं:

“हो न अक्स-ए-जबीन-ए-नाज़ कि है
दिल में एक नूर-ए-कहकशानी भी” 

बात मुश्किल पर ज़बरदस्त है। कवि कहता है कि हमें उस पर नाज़ है ऐसी प्रेमिका के सुंदर चेहरे का अक्स-परछाई हम देख नहीं सकते, क्योंकि दिल में एक आकाशगंगा का तेज छाया है। 

यह क्या? दिल में आकाशगंगा? आँख के आगे अंधकार? ख़ैर, कवि के कहने का मतलब शायद यह है कि व्यापकता का, समग्रता का तेज हमें इतना दिखाई दे रहा है कि एक व्यक्ति के चेहरे की चमक उसमें ढक जाती है। 

इसमें ऐसा है कि आदमी जो एक ही व्यक्ति में डूब जाता है तो वह समग्रता को नहीं पा सकता और आदमी पूरा का पूरा डूब जाता है तो एक व्यक्तिव पर फ़ोकस नहीं कर सकता। मात्र अपना और अपने परिवार का हित देखने वाला व्यक्ति वसुधैय कुटुंबकम की अनुभूति में नहीं रम सकता। केवल एक प्रियजन को चाहना या पूरी मानवजाति को चाहना इस तरह की फ़िक्र अन्य कितनी अति लोकप्रिय रचनाओं में देखने को मिलती है। जैसे की फ़ैज़ अहमद की प्रसिद्ध नज़्म ‘मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग’ में उन्होंने लिखा है:

“लौट जाती है उधर को नज़र क्या कीजै
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजै”

तुम तो सुंदर हो ही, पर हमारी नज़र उधर-वहाँ जाती रहती है। उधर यानी किधर? वहाँ, जहाँ भूख है, ग़रीबी है, लाचारी है। बाद में तुरंत कवि जोड़ता है: 

“और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा”

मिलन के सुख के अलावा और भी इस जगत में सुख हैं और मोहब्बत के दुख के अलावा भी इस जगत में दूसरे भी दुख हैं। प्वाइंट टू बी नोटेड (ध्यातव्य): यहाँ कवि मोहब्बत का सुख ऐसे ही नहीं कहता। वह कहता है और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा। मतलब कि कवि ने मोहब्बत को पहले से ही दुख मान लिया है, परन्तु उन्हें मोहब्बत के दुख की अपेक्षा सामाजिक अन्याय-लाचारी आदि दुख अधिक स्पर्श करते हैं। 

यह हुई फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की प्रस्तुति। कुछ ऐसी ही बात साहिर लुधियानवी ने अपने उस प्रसिद्ध गाने—‘ये दिल तुम बिन कहीं लगता नहीं’ में कही है। फ़िल्म ‘इज़्ज़त’ के इस गाने में भी साहिर ने मोहब्बत को सुख की नहीं, मोहब्बत को ग़म की बात कही है। 

“हज़ारों ग़म हैं इस दुनिया में
अपने भी पराए भी
मुहब्बत ही का ग़म 
तन्हा नहीं हम क्या करें”

हे प्रिय, जीवन में यह प्रेम अकेला ही समस्या नहीं है, अनेक समस्याएँ हैं। अपनी भी पराई भी। अपने भी पराए भी। मुहब्बत का ही ग़म तन्हा नहीं। 

फ़ैज़ और साहिर दोनों ही रोमांटिक प्रेम से छूटने-छटकने के लिए दुनियावी दुखों के रूप में आगे करते हैं। पर फ़िराक़ ने एकदम अलग ही बात कही है। फ़िराक़ कहते हैं कि तुम्हारा सुंदर चेहरा अब मेरी नज़रों के सामने तैरता नहीं, पर ऐसा होने का कारण दुनियावी दुख, सामाजिक राजनीति, अर्थव्यवस्था आदि नहीं है। कारण नकारात्मक नहीं है। यहाँ कवि का कारण पाॅज़िटिव है। कवि को प्रेमिका के चेहरे के सौंदर्य के अलावा इस सुंदरता से अधिक भव्य इस सृष्टि का सौंदर्य दिखाई दे रहा है। अक्स-ए-जबीन-ए-नाज (प्रियतमा के चेहरे की इमेज) के सामने नूर-ए-कहकशानी (आकाशगंगा का तेज) छा जाता है। 

यह ग़ज़ल मूल रूप से जवानी पर है। जवानी जोशीली चीज़ है। जवानी उत्तेजक चीज़ है। यह चारों ओर उत्तेजित होती है। शायद इसीलिए कवि ने यहाँ पल में आकाशगंगा तो पल में स्त्री तो पल में संसार की बात कही है। यह शेर देखिए:

“अपनी मासूमियत के परदे में
हो गई वो नज़र सियानी भी”

लड़की की उम्र 16-17 की होती है, तब की यह बात है। चेहरा अभी बच्ची जैसा है, पर उसकी नज़र पारखी होने लगती है। यह नज़र पुरुष की नज़र को परखने लगती है। कौन-सी नज़र कैसी है, शुद्ध है या अशुद्ध है, कौन कितने पानी में है, सब कुछ लड़की की समझ में आने लगता है और फिर भी चेहरे की बालसहज मासूमियत अभी पूरी तरह से गई नहीं है। ऊपर मासूमियत का परदा-बुरका हो और अंदर की वह नज़र सयानी, समझदार, पुख़्त हो चुकी हो उसकी यह बात है: अपनी मासूमियत के परदे में, हो गई वो नज़र सियानी भी। एक अंतिम शेर है:

“वज्अ करते कोई नई दुनिया 
कि ये दुनिया हुई पुरानी भी”

यह एकदम लाक्षणिक यौवनभरा शेर है, जो कहता है: आइए बनाएँ एक नई दुनिया, क्योंकि इस समय यह जो दुनिया है, यह अब पुरानी हो गई है। 

उसी का नाम जवानी, जो पुराना ख़त्म कर के नया बनाए। उसी का नाम जवानी है, जिसे रात की अर्धनिद्रा में मन में प्रकट हो एक कहानी:

“रात भी नींद भी कहानी भी, 
हाय क्या चीज़ है जवानी भी। 
 
दिल को शोलों से करते हैं सैराब (तरबतर), 
ज़िन्दगी आग भी है पानी भी। 
 
इश्क़-ए-नाकाम की है परछाईं, 
शामदानी (खुशी) भी कामरानी (सफलता) भी। 
 
दिल को अपने भी ग़म थे दुनिया में, 
कुछ बलाएँ थीं आसमानी भी। 
 
पास रहना किसी का रात की रात, 
मेहमान भी मेज़बानी भी। 

(जगजीत सिंह द्वारा संगीतबद्ध की गई इस ग़ज़ल को चित्रा सिंह ने गाया है, जिसे नेट पर सुना जा सकता है। इसमें बात भले रात की है, पर आप का दिन सुधर जाएगा) 

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