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हैं दीवारें गुम और छत भी नहीं है

 

महाज्ञानी गुरु की अपेक्षा उनका शिष्य दो क़दम आगे निकल जाए तो इस स्थिति पर कटाक्ष करने के लिए हमारे यहाँ एक बहुत सुंदर मुहावरा है ‘गुरु गुड़ ही रहे और चेला चीनी हो गया’ यानी गन्ने को पेरने से जो मधुरस निकलता है, उससे गुड़ बनता है, जबकि शक्कर तो उसके बाद बहुत ज़्यादा शुद्धिकरण किया गया रूप है। 

एक समय विश्वगुरु कहे जाने वाले भारत के मामले में उपर्युक्त मुहावरा कितना फ़िट बैठता था, आइए यह देखते हैं। शरीर को स्वस्थ और सुडौल रखने वाला योगासन विज्ञान हमारे देश में 1200 ई.पू. के आसपास आया माना जाता है। योगासन का बोलबाला सदियों तक रहा, इसके बाद इसका सूर्य अस्ताचल में जाने लगा। भारतीय इस विज्ञान को भूलने लगे, पर पश्चिमी देशों ने इस योगविद्या को अपना लिया। परदेशी लेखकों ने योग के महात्म्य को समझाते हुए ‘योगा फ़ॉर बेटर लिविंग’, ‘योगा ऐज मेडिसन’, ‘द योगा बाइबिल’ जैसे शीर्षकों वाली पुस्तकें लिखीं। साइंटिफिक रिसर्च पेपर्स निकाले, डाक्यूमेंटरी फ़िल्में बनाईं। इतना ही नहीं, योग करने की सही रीति समझाई। एक समय के योग गुरु भारत ने दुनिया को जो योगविद्या दी, अंत में वह ‘वाया यूरोप-अमेरिका’ भारत वापस आई। हम ‘आल्टरनेटिव थेरेपी’ के वज़नदार लेबल के अंतर्गत योगविद्या और मेडिटेशन सीखने लगे। 

योगविद्या की ही तरह आयुर्वेद के साथ भी हुआ। नीम, हल्दी, चंदन, हरड़, इसबगोल, सर्पगंधा, शतावरी, गूगल, मूसली आदि क़ुदरती औषधियों के गुण के बारे में सुश्रुत, चरक और धन्वतरि जेसे आयुर्वेदाचार्य वर्षों पहले आयुर्वेद के मोटे-मोटे ग्रंथों में बहुत कुछ लिख गए हैं। पर इन ग्रंथों को घर की मुर्गी समझ कर उपेक्षा की गई। आख़िर 1995-96 के अरसे में नीम, हल्दी और इसबगोल पर अमेरिकी फॉर्मा कंपनी ने पेटेंट लिया तो हमारी आँखें खुलीं। आज परदेशी फॉर्मा कंपनियाँ भारतीय आयुर्वेद को धता बताते हुए प्राकृतिक औषधिथों के सत्व वाली एलोपैथिक दवाएँ (जैसे कि सर्पगंधा पर आधारित रक्तचाप के लिए राउवोल्फिया सर्पेंटिना) भारत सहित अनेक देशों में बेच कर ख़ूब पैसा कमा रही हैं। 

गुरु गुड़ ही रहे और चेला चीनी हो गए का तीसरा उदाहरण भी देखिए। छोटी उम्र में माता-पिता की छत्रछाया के अलावा सारी सुख-सुविधा छोड़ कर जंगल में एक साधु की तरह रहना ठंड-गर्मी-बरसात सहन करना, गुरु और देवस्थल को समर्पित हो कर उनके पास से विविध विषयों का ज्ञान लेना, आत्मसुरक्षा के लिए शस्त्र विद्या सीखना आदि प्राचीन भारत में आश्रम शिक्षा का चलन था। समय के साथ इसे पुरानी परंपरा का नाम दे कर ख़त्म कर दिया गया। अँग्रेज़ों द्वारा भारत में लाया गया मार्डन एजूकेशन सिस्टम अपनाया गया, जिसमें विद्यार्थियों को ईंट-पत्थर की चार दीवारों के बीच क़ैद कर दिया गया। दीवारें उनके लिए शारीरिक ही नहीं, मानसिक क़ैदख़ाना बन गईं। क्योंकि बंद कमरों में जो सिखाया जाता है, उसमें बाहर के कोई मौलिक विचार मॉर्डन एजूकेशन सिस्टम को मंज़ूर नहीं थे। 

सप्ताह के पाँच स्कूली दिन में सोमवार, मंगलवार और बुधवार, तीन दिन जंगल के ओपन एयर क्लास में बिताना फ़िनलैंड के समूजात प्रोग्राम का उद्देश्य है। इन तीन दिनों के दौरान वातावरण भले ही कितना भी विषम हो, बच्चों को उसका सामना करना ही पड़ता है। सच पूछो तो यह उनकी शारीरिक और मानसिक तालीम का हिस्सा है। इससे बच्चों का इम्युन सिस्टम/रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ती है।

इस मुद्दे को शरीर विज्ञान के दृष्टिकोण से समझते हैं। बच्चे का जन्म होता है तो वह उसके बाद अनेक प्रकार के वायरस (विषाणु), वैक्टीरिया (जीवाणु) के संपर्क में आता है। धूल-मिट्टी, फूल-पेड़, बाह्य वातावरण नल या झरने का बहता पानी आदि के द्वारा उसके शरीर में विषाणु-जीवाणु आदि प्रवेश करते हैं, इसलिए उन्हें ख़त्म करने के लिए शरीर का रोगप्रतिकारक तंत्र किलर टी-सेल्स नाम के रक्षात्मक योद्धा कोशिकाओं को बढ़ा देता है। वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा साबित हुआ है कि मिट्टी में खेल कर बड़े होने वाले बच्चे के शरीर का रोगप्रतिकारक तंत्र ख़ासा मज़बूत होता है। एलर्जी, दमा, सर्दी-खाँसी जैसी तकलीफ़ें जल्दी असर नहीं करतीं। मिट्टी में स्थित माइकोवैक्टेरियम वैक्के नाम का वैक्टीरिया इसके लिए ज़िम्मेदार होता है, जो इम्युन सिस्टम के किलर टी-सेल्स को उत्तेजित करता है। 

इस तरह की कोशिकाओं की अक्षौहिणी सेना हमलावर विषाणुओं-जीवाणुओं को हराने की शक्ति प्राप्त कर लेता है। 

आधुनिक जीवनशैली ने हमारे जीवन को कोमल बना दिया है। धूल-मिट्टी से दूर रहना, फूल के रज और पेड़ के फंगस से दूरी बनाए रखना, आरओ या मिनरल वाटर के अलावा दूसरा पानी न पीना, एअरकंडीशनर वातावरण में रहना आदि जैसी आदतों ने नई पीढ़ी की रोगप्रतिकारक शक्ति को गड़बड़ कर दी है। इसीलिए विषाणु-जीवाणु का ज़रा भी इन्फ़ेक्शन उन्हें बीमार कर देता है। 

इस दृष्टि से प्राचीन भारत के जंगल के आश्रम की शिक्षा बच्चों को शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार करने में बहुत कारगर थी। मॉर्डन शिक्षा प्रणाली आने के बाद तमाम साल इस तरह बीते कि लगभग हर स्कूल में बच्चों को धूल-मिट्टी में खेलने के लिए विशाल मैदान होते थे। आज अधिक से अधिक बच्चों को समायोजित करने के लिए तमाम क्लासरूम बना कर धूल-मिट्टी के मैदानों को भूतकाल बना दिया गया है। 

फ़िनलैंड का समूजात प्रोग्राम थ्री डायमेंशनल यानी कि त्रिपरिमाणीय है, जिसके दो पहलू (बच्चों की शारीरिक तथा मानसिक रूप से मज़बूत करना) के बारे में यहाँ बात की गई है। अब तीसरे पहलू की बात करें तो इसमें प्रकृति के प्रति आदरभाव पैदा करना है। सोमवार, मंगलवार और बुधवार, इस तरह तीन दिन सात-सात घंटे प्रकृति की गोद में खेलते हुए विद्यार्थियों को उनके शिक्षक जंगल की संकीर्ण जैविक परिस्थितिकी समझाते हैं। विभिन्न जीवों और पर्यावरण के लिए उनकी ज़रूरत और सम्बन्ध को समझाते हैं। 

बचपन में कोरी पाटी जैसे दिमाग़ में अंकित होने वाली इस तरह की जानकारी आजीवन याद रहेगी। इतना ही नहीं, प्रकृति, पर्यावरण और पशु-पक्षियों के प्रति सहिष्णुता का भाव उनमें पैदा होता है। यह गुण समय के साथ स्वभाव बनता है, इसलिए अपनी कार्बन फ़ुटप्रिंट जितना सम्भव हो, उतनी छोटा रखने के लिए प्रयत्न भी करते हैं। गाड़ी चलाने, प्लास्टिक के उपयोग, बिजली के उपयोग से सीधे या ग़लत तरीक़े से वातावरण में कार्बन डाइआक्साइड तथा मीथेन जैसी ग्रीनहाउस वायु पैदा करने में हमारी भागीदारी कार्बन फ़ुटप्रिंट के रूप में जानी जाती है। वातावरण को जितना कम दूषित करेंगे, कार्बन फ़ुटप्रिंट उतना छोटा होगा। 

फ़िनलैंड की सरकार द्वारा लाया गया समूजात शिक्षा मॉडल इतने सकारात्मक परिणाम ला रहा है कि जर्मनी, स्कॉटलैंड और आस्ट्रेलिया जैसे देश भी इसे अपना रहे हैं। आश्रम शिक्षा का प्राचीन भारतीय विचार पुरानी परंपरा का लेबल लगा कर हटा चुके हम भारतीय जल्दी तो नहीं, पर कभी न कभी फ़िनलैंड के समूजात प्रोग्राम को अपना सकते हैं। क्योंकि हम अपनी ही परंपरा को भुला चुके हैं।

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