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चित्रा सिंह और जगजीत सिंह

जगजीत सिंह और चित्रा सिंह

चित्रा सिंह इन दिनों

फ़िराक़ गोरखपुरी (रघुपति सहाय)

कहाँ से कहाँ जा सकती है ज़िन्दगी

 

ऐसे लोग बहुत कम मिलेंगे, जिन्होंने विख्यात ग़ज़ल गायक जगजीत-चित्रा का नाम न सुना हो। जगजीत और चित्रा की सक्सेस स्टोरी के पीछे फ़िराक़ गोरखपुरी की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। 

1965 में 24 साल की उम्र में पंजाबी युवक जगजीत सिंह परिवार को बताए बग़ैर ही मुंबई पहुँच गए थे। जगजीत का इरादा तो मुंबई की फ़िल्मी दुनिया में प्रवेश करने का था, परन्तु फ़िल्म इंडस्ट्री इस तरह की नई प्रतिभाओं के लिए लाल जाज़िम बिछाए नहीं बैठी रहती। जगजीत सिंह ने संघर्ष करना शुरू किया, बहुत संघर्ष किया। फ़िल्म इंडस्ट्री को उन्होंने क़रीब डेढ़ दशक का समय दिया, पर उन्हें विज्ञापनों के जिंगल गाने के अलावा और कोई काम नहीं मिला। इस बीच उन्हें एक गायिका से मिलने कि मौक़ा मिला। वह गायिका थी चित्रा दत्त। 

चित्रा का मूल नाम चित्रा सोम था। 16 साल की उम्र में चित्रा एक स्टेज पर परफ़ॉर्मेंंस कर रही थीं, तभी आडियंस में बैठा एक युवक देबो दत्त उन्हें देख कर घायल हो गया था। देबो कॉर्पोरेट कंपनी में बहुत अच्छी नौकरी करता था। वेतन भी बहुत अच्छा था। उसे रहने के लिए साउथ बाॅम्बे में बढ़िया फ़्लैट मिला था। देबो-चित्रा ने विवाह कर लिया। साल भर बाद चित्रा ने बेटी मीनिका को जन्म दिया। इसके लगभग सात साल बाद जगजीत सिंह और चित्रा की मुलाक़ात हुई। चित्रा जगजीत से एक साल बड़ी थीं और बड़े घर की बहू भी थीं, पर पति ने एक दिन चित्रा से बड़ी ख़ुशी-ख़ुशी कहा, “तुम अच्छा गाती हो, इसलिए इसी दिशा में आगे बढ़ो। मैं भी एक दूसरी दिशा में आगे बढ़ना चाहता हूँ।”

इशारा स्पष्ट था—चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों। पति-पत्नी के बीच डिवोर्स की कार्यवाही शुरू हुई। वह साल था 1968 का। चित्रा बेटी को लेकर एक कमरे और रसोई वाले फ़्लैट में रहने लगीं। संगीत की दुनिया में चित्रा ने संपर्क काफ़ी घटा लिए थे, पर एक साल पहले दोस्त बने जगजीत से संपर्क बनाए रखा और अब तक यह संपर्क बहुत प्रगाढ़ हो गया था। जगजीत सिंह चित्रा से विवाह करने को तैयार थे, परन्तु चित्रा के डिवोर्स की प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हुई थी। ऐसे में 1970 में एक दिन जगजीत सिंह ख़ुद चल कर चित्रा के पूर्व पति देबो से मिलने गए और उनसे कहा कि “मैं तुम्हारी पत्नी से विवाह करना चाहता हूँ।”

देबो को भला क्यों एतराज़ होता? चित्रा अब उनकी पूर्व पत्नी थी। देबो को नई पत्नी मिल चुकी थी और उससे उसे एक बेटी भी हो चुकी थी, इसलिए देबो ने जगजीत को प्यार से शुभकामना दी। जगजीत-चित्रा ने विवाह कर लिया। विवाह में कुल 30 रुपए ख़र्च हुए। तबलावादक हरीश ने पुजारी की व्यवस्था की और गायक भूपिन्दर सिंह दो हार और मिठाई लेकर आए थे। 

जगजीत सिंह के साथ विवाह के डेढ़ साल बाद चित्रा को बेटा विवेक पैदा हुआ, जिसकी आगे चल कर दुर्भाग्य से केवल 18 साल की उम्र में मुंबई के मरीन लाइंस के विश्व प्रसिद्ध मार्ग पर दुर्घटना में मौत हो गई। चित्रा के पहले विवाह से हुई बेटी मोनिका ने दो संतानों और दो विवाहों के बाद 50 साल की उम्र में 2009 में आत्महत्या कर ली थी। चित्रा को अपनी दो-दो संतानों की मौत देखनी पड़ी। बेटी की आत्महत्या के दो साल बाद 2011 में पति जगजीत सिंह की भी ब्रेनहेमरेज में मौत हो गई। चित्रा आज अकेली हैं और उनकी उम्र 83 साल है। 

ज़िन्दगी कहाँ से कहाँ पहुँचा सकती है, यह एक दिल को कँपा देने वाली कहानी है। 

ख़ैर, फिर 1970 में वापस लौटते हैं। विवाह के बाद जगजीत-चित्रा ने गायिकी के बल पर सफलता पाने और घर चलाने का संघर्ष साथ मिल कर शुरू किया। गाने के छोटे-मोटे एसाइनमेंट की बदौलत जैसे-तैसे काम चल जाता था। जगजीत सिंह ग़ज़ल गायक के रूप में प्रसिद्धि पाना चाहते थे। परन्तु भारत में ग़ज़ल गायकी का बहुत ज़ोर नहीं था। एक ज़माने में तलत महमूद ग़ज़लगायक के रूप में ठीक-ठाक प्रसिद्धि पा चुके थे। पर 1970 के दशक में ग़ज़ल गायकी का क्षेत्र बहुत विशाल नहीं था और इस क्षेत्र में जिन नामों का दबदबा था, वे नाम पाकिस्तानी थे। ऐसे में भारत में ग़ज़ल गायकी की आवाज़ के रूप में उभरने का काम बहुत मुश्किल था। परन्तु जगजीत सिंह जल्दी हार मानने वालों में नहीं थे। 1977 में उन्होंने ग़ज़ल-नज़्म का एक अल्बम निकाला। उसका नाम था—द अनफरेगेटब्स। यानी कि अविस्मरणीय। यह सचमुच अविस्मरणीय साबित हुआ। भारत में ग़ज़ल गायकी के क्षेत्र में यह अल्बम पत्थर का मील साबित हुआ। 2011 में ब्रिटिश अख़बार द इंडिपेंडेंट के एक लेख में इस अल्बम के बारे में इस प्रकार लिखा गया था—‘यह अल्बम परिवर्तनकारी साबित हुआ। जैसे ईसा पूर्व और उसके बाद के समय का विभाजन होता है, उसी तरह यह अल्बम लोकप्रिय भारतीय ग़ज़ल संगीत के क्षेत्र में पूर्व और बाद के बीच का माइलस्टोन बना और आज भी इसका माइलस्टोन के रूप में स्थान बरक़रार है।’

यह ऐतिहासिक अल्बम तैयार करते समय जगजीत सिंह को इस बात का पूरा ख़्याल था कि एकदम दमदार और सरल—लोकप्रिय कृतियों को ही पेश करना है। इस अल्बम के लिए उन्होंने चुनिंदा शायरों को ही चुना। जिन चुनिंदा शायरों को उन्होंने चुना था, उनमें एक थे रघुपति सहाय उर्फ़ फ़िराक़ गोरखपुरी। फ़िराक़ की उन्होंने एक नहीं, दो-दो ग़ज़लें इस अल्बम में रेकॉर्ड की थीं। जिनमें एक थी—‘रात भी नींद भी कहानी भी, हाय हाय क्या चीज़ है जवानी भी।’ और दूसरी ग़ज़ल थी—‘बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं, तुझे ये ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं।’

इस ग़ज़ल में लगाव के बारे में एक शानदार शेर है: 

“तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं।” 

रात का सन्नाटा है। आदमी अकेला सोया है। उसे अकेलापन सता रहा है। वह अकेला घबरा रहा है। ऐसे में वह प्रियजन की स्मृति की चादर ओढ़ लेता है। इस तरह प्रेमी या प्रेमिका की याद करने से प्यार, स्नेह और सुरक्षा का अनुभव किया जा सकता है। ट्रिक मस्त है। 

रघुपति सहाय उर्फ़ फ़िराक़ गोरखपुरी की शायरी की एक विशेषता यह है कि वह जितनी रोमांटिक है, उतनी स्मार्ट भी है। उसमें लॉजिक है, बुद्धि का चमत्कार है। उनका एक शेर है: 

“तेरे आने की क्या उम्मीद मगर
कैसे कह दूँ कि इंतज़ार नहीं”

बात एकदम सीधी है। कवि स्वीकार करता है कि तुम्हारे आने की मुझे कोई आशा नहीं है। फिर भी तुम अगर पूछो कि क्या मैं तुम्हारी राह देख रहा हूँ तो मैं न कैसे कह सकता हूँ? क्योंकि मैं तुम्हारी राह देख रहा हूँ, यह हक़ीक़त है और तुम नहीं आने वाली यह मुझे विश्वास है यह भी हक़ीक़त है। ये दोनों बातें एकदम विरोधाभासी कवि ने एकदम सादी भाषा में, सादी तरह अग़ल-बग़ल रखी हैं। आशा नहीं, प्रतीक्षा है। 

मूल विशेषता ‘दिमाग़ की व्यापकता’ की है। फ़िराक़ दो दूर के छोरों को एक साथ देख सकते हैं। सामान्य आदमी और सामान्य बुद्धि दुनिया को ब्लैक एंड व्हाइट देखने की आदी होती है, पर जिनका आईक्यू ऊँचा होता है, वे इन छोरों, वे छोरों और दोनों छोरों के बीच के विस्तार, सब कुछ एक साथ देख सकते हैं। फ़िराक़ का यह जाना-माना शेर देखिए:

“ये माना ज़िन्दगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारो चार दिन भी”

पूरी दुनिया की तरह फ़िराक़ को भी ज़िन्दगी को चार दिन की मानने में कोई एतराज़ नहीं है, परन्तु लोग इस गिनती द्वारा ज़िन्दगी को छोटी मानते हैं। जबकि फ़िराक़ इन चार दिनों कितनी बड़ी लंबाई छुपी है, यह देख सकते हैं। 

आप ही सोचिए, हमें जीने के लिए जो साल मिले हैं, क्या वे बहुत कम होते हैं? इस समय जो माना जाता है, उसके अनुसार भारत में लोगों की आयु लगभग 70 साल है। 70 साल कम हैं? एक-एक साल, एक-एक महीना यहाँ तक कि एक-एक दिन में भी हमें कितने अनुभव और अनुभूतियाँ होती हैं। चार दिन की ज़िन्दगी भी ढेरों ख़ुशी और ग़म से भरी होती है। 

ज़िन्दगी पूरी होने लगती है तो हमें ऐसा लग सकता है कि ये तो फटाफट पूरी हो गई, यह तो चार दिन की ही थी। पर यह स्वीकार करने के पहले कवि कहता है कि ‘बहुत होते हैं यारों चार दिन भी।’ मूल बात थकने और हताशा की है। ज़िन्दगी अच्छों-अच्छों को थका सकती है। फ़िराक़ थोड़ा निगेटिव ज़रूर हैं। शायद अति बुद्धशाली होने के कारण सम्भावना है। उनकी अभिव्यक्ति में निगेटिवटी अधिक देखने को मिलती है। उनकी तेज़ नज़र रूप के पीछे स्वरूप देख सकती थी। फ़िराक़ सुंदर ग़लीचे के नीचे की धूल देख सकते थे। उनका यह शेर देखो:

“ज़िन्दगी क्या है इसे ये दोस्त 
सोच लें और उदास हो जाएँ”

चलो मित्र, आज दो घड़ी यह सोचने के लिए बैठते हैं कि ज़िन्दगी क्या चीज़ है . . . यह आमंत्रण देने के पहले ही कवि पहले से जीवन-विचारणा की क़वायद का परिणाम बता देता है कि ज़िन्दगी के बारे में सोचने बैठेंगे तो अंत में होना यह है कि हम उदास हो जाएँगे। क्योंकि ज़िन्दगी है ही ऐसी, उदास कर दे वैसी। इसके बारे में सोच कर ख़ुश होना मुश्किल है। फ़िल्म ‘हँसते ज़ख़्म’ के उस गाने में गीतकार कैफ़ी आज़मी ने जैसा कहा है कि ‘आज सोचा तो आँसू भर आए’ . . . ठीक है। सोचने बैठेंगे तो रो भी सकते हैं। रोना तो ठीक मर भी सकते हैं। मेहंदी हसन की गाई उस मज़ेदार ग़ज़ल में कहा है, उस तरह:

“तन्हा तन्हा मत सोचा कर 
मर जाएगा मत सोचा कर”

अकेले बैठ कर बहुत मत सोचा करो। बहुत अधिक सोचोगे तो मर हो जाओगे। फ़िराक़ का भी यही मत है। बहुत अधिक सोचने से अंत में यही समझ में आएगा कि ज़िन्दगी कमबख़्त है, गद्दार है। फ़िराक़ का एक शेर है:

“कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं
ज़िन्दगी तूने तो धोखे पे दिया है धोखा”

ज़िन्दगी तो एक के बाद एक दग़ा देती रही है। पर थका हुआ कवि इस बात को समझने की कोशिश कर रहा है कि मौत तो ऐसा नहीं ही करेगी। वह दग़ा नहीं ही देगी। वह तो अपने समय पर आ ही जाएगी। 

संक्षेप में संसार दुखमय है। यहाँ तक कि गौतम बुद्ध, फ़िराक़ गोरखपुरी एक ही लाइन पर बात करते हैं। परन्तु बाद में दोनों की लाइन अलग हो जाती है। गौतम बुद्ध कहते हैं कि दुख का कारण है और इस कारण का इलाज सम्भव है। जबकि फ़िराक़ का मानना है कि इस दुखमय ज़िन्दगी का कोई इलाज नहीं। इनका एक आलटाइम और ज़ालिम शेर है:

“मौत का भी इलाज हो शायद
ज़िन्दगी का कोई इलाज नहीं”

मौत से बचने का कोई मार्ग शायद वैज्ञानिक खोज सकते हैं, परन्तु ज़िन्दगी का क्या? इसका कोई इलाज नहीं है। इसे बिताए बिना छुटकारा नहीं है। जीवन भर याद रहे, इस तरह का यह शेर है:

“मौत का भी इलाज हो शायद
ज़िन्दगी का कोई इलाज नबीं।” 

जगजीत सिंह और चित्रा सिंह

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