तापमान भले शून्य हो पर सहनशक्ति शून्य नहीं होनी चाहिए
आलेख | सामाजिक आलेख वीरेन्द्र बहादुर सिंह1 Jan 2024 (अंक: 244, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
समाज में जो भी दंपती, परिवार, नौकरी और धंधा टिका है, उसका रहस्य इसमें ‘किसी एक का त्याग और सहनशक्ति होती है’।
एक बार जंगल में हिमपात हुआ। इसके बाद वहाँ इतनी तेज़ ठंड पड़ी कि उस ठंड में तमाम छोटे-मोटे जानवरों की मौत हो गई। इस ठंड में जंगल में रहने वाली साहियाँ भी हिम्मत हार गईं और उन्हें अपनी मौत सामने दिखाई देने लगी।
एक बुज़ुर्ग साही ने जंगल की तमाम साहियों को बुला कर मीटिंग की। उस बुज़ुर्ग साही ने एक उपाय सुझाया कि ‘हम सभी को एकदूसरे से चिपक कर बैठ जाना चाहिए। इससे हम सभी को गर्मी मिलेगी। दो-तीन दिनों में ठंड कम हो जाएगी।’
साहियों को उस बुज़ुर्ग साही का यह प्रस्ताव उचित लगा। उस बुज़ुर्ग साही ने जो युक्ति बताई थी, उसी के अनुसार सभी साही एक-दूसरे से चिपक कर बैठ गईं। इससे थोड़ी-थोड़ी गर्मी आने लगी। तभी इस समूह में जो युवा साही थीं, वे भी इस समूह में चिपक कर बैठी थीं, वे समूह से बाहर निकल गईं। उन्होंने बुज़ुर्ग साही पर रोष व्यक्त हुए कहा, “आप के समूह में हमें इस तरह नहीं रहना। ठंडी से बचने का यह बिना बुद्धि का कैसा प्रयोग है? आप सभी को इस तरह चिपक कर बैठने से एक-दूसरे का काँटा नहीं चुभता? हमें तो शूल भोंकने जितनी तकलीफ़ होती है। देखो न ख़ून भी निकलने लगा है।”
यह कह कर युवा साहियों ने समूह से बाहर रहने का निर्णय लिया। अन्य साहियाँ भी यह सुन कर समूह से बाहर निकल जाना चाहती थीं। तब उस बुज़ुर्ग साही ने उन्हें समझाया, “मैं आप सभी से विनती करता हूँ कि कुछ घंटे आप लोग इसी तरह चिपकी रहें। इससे परीक्षा लेने वाला यह समय बीत जाएगा।”
बुज़ुर्ग साही की विनती सुन कर बाक़ी की साहियाँ मान गईं और एक-दूसरे से चिपक कर बैठ गईं। बुज़ुर्ग साही ने विरोध करने वाली उन युवा साहियों से भी समूह में आने की विनती की, पर वे नहीं मानीं। थोड़ा समय बीता। ठंड तो जान लेने वाली थी। समूह से अलग होने वाली युवा साहियों में कुछ ठंड से काँपने लगीं। पर वे समूह में शामिल नहीं हुईं, जिससे उनमें से दो साहियों की मौत हो गई। यह देख कर विरोध करने वाली अन्य युवा साहियाँ, जो समूह से अलग हो कर अकेले ठंड से काँप रही थीं, उन्होंने स्वीकार किया कि ‘बुज़ुर्ग साही के सुझाव के अनुसार हम चिपक कर बैठती हैं तो बग़ल की साही के काँटे भले ही पीछे चुभते हैं। उसी तरह हम से चिपक कर बैठने वाली साही को भी तो हमारे काँटे चुभते होंगे। पर वे तकलीफ़ की शिकायत कर के समूह से बाहर नहीं आईं और उस तकलीफ़ को सह रही हैं।’
अन्य एक युवा साही, जिसकी कँपकँपाहट चिंताजनक रूप से बढ़ रही थी, वह दाँत किटकाटाते हुए धीमी आवाज़ में बोली, “समूह में रह कर हमें भले ही एक-दूसरे के काँटों से तकलीफ़ हो रही थी, पर हमें ठंडी से तो राहत मिल रही थी। हम कुछ समय उस पीड़ा को सहन कर के उस समूह में शामिल हो कर अपनी जान तो बचा सकेंगीं। यहाँ इस तरह पीड़ा सहम करने से मुक्ति और आज़ादी का अहसास ज़रूर पा सकते हैं, पर समय के साथ मौत आ जाए तो इससे अच्छा है कि हम भी समूह में शामिल हो कर लोगों को गर्मी देने में योगदान दें और इस बुरे समय को बिता कर अपनी जान बचाएँ।”
सभी युवा साहियाँ बुज़ुर्ग साही का आभार व्यक्त करते हुए समूह में शामिल हो कर एक-दूसरे से चिपक कर बैठ गईं। अब समूह की अन्य साहियों को अधिक गर्मी मिलने लगी, जिससे जीने का सहारा मिल गया। इस तरह सभी को ‘जिएंगे और ज़िन्दगी देंगें’ का मंत्र मिल गया। हँसते-हँसते सभी ने एक-दूसरे के काँटे की वेदना सहन कर ली। मरने की अपेक्षा घायल होना अच्छा है, यह सोच कर सभी साहियाँ एक-दूसरे से चिपकी रहीं। मौसम तो वैसे भी करवट बदलने वाला था। एक-दो दिन में मौसम बदला और ठंड कम हो गई।
बुज़ुर्ग साही का आभार व्यक्त करते हुए सभी साहियाँ ख़ुश होते हुए अलग हुईं। जाते-जाते बुज़ुर्ग साही ने कहा कि ‘हम सभी भले ही अलग हो रही हैं, पर मन में यह बात हमेशा याद रखना कि ज़रूरत पड़ने पर हम सब एक साथ हो जाएँगे और एक साथ रहेंगे और थोड़ा सहन करेंगे तो किसी भी परिस्थिति से निपट सकेंगे।’
इस घटना के बाद हर साही भले ही अकेली रहती है, पर उसे लगता है कि एक आवाज़ पर सब इकट्ठा हो जाएँगी और यही हमारा परिवार है। यह साहियाँ अब निर्भीक हो कर आराम से रह रही हैं। अन्य जानवरों को भी पता है कि एक भी साही को परेशान किया तो साहियों की टोली इकट्ठा हो जाएगी।
यह घटना ऐसी है, जिस पर अनेक बोध कथाएँ लिखी जा सकती हैं। आज हम देखते हैं कि लोगों की सहनशक्ति शून्य हो गई है। जिसके लिए ‘ज़ीरो टोलरंस’ शब्द का उपयोग होता है। उस युवा साही जैसी सहनशक्ति होने के कारण हमें जहाँ सुख, शान्ति और सुरक्षा मिलती है, उस परिवार, उस नौकरी या धंधे में ज़रा भी तकलीफ़ या आज़ादी छिन रही हो तो आज लोग किनारा कर लेते हैं। दांपत्य-जीवन तकलीफ़देह बना है, इसका भी यही कारण है। कितने परिवार, कर्मचारी या व्यवसाय करने वाले यह कहने में हमेशा गर्व महसूस करते हैं कि ‘हम तो किसी की नहीं सुनते, कोई थका देने वाली मेहनत कराए तो हम साफ़ मना कर देते हैं।’
इस तरह के स्वभाव वाले बाद में भरपेट पछताते हैं और ज़िन्दगी बरबाद कर देते हैं। कुछ तो डिप्रेशन में आ जाते हैं और आत्महत्या कर लेते हैं।
पहले के ज़माने में और आज के ज़माने में भी ऐसे परिवार हैं, जो संयुक्त परिवार में रहते हैं। उसी तरह धंधा करते हैं। इनकी उन्नति हुई है। वे अच्छी तरह हर प्रसंग भी निपटाते हैं। अगर इनसे परिवार के साथ इस तरह रहने का रहस्य पूछा जाए तो कहेंगे कि ‘थोड़ा सहन करना, एक-दूसरे की बातों पर ध्यान न देना और अहंकार तो बिलकुल नहीं रखना। कभी हम उनकी बात मानते हैं तो कभी वे हमारी बात मानते हैं।’
संयुक्त परिवार तो अब दूर की बात है। पति, पत्नी और दो बच्चों में ऐसे सम्बन्ध हैं कि इनमें कोई एक समय और संयोग देख कर किसी की बात सहन नहीं करता। सभी को अपना अलग-अलग व्यक्तित्व बनाए रखने की हमेशा ललक होती है। दोनों को अपने अहंकार, एक-दूसरे में मिल कर हम एक हैं यह भावना तो अब कविता या हिंदी फ़िल्मों के गानों में भी देखने सुनने को नहीं मिलती। किसी को भी अपने कंफ़र्ट ज़ोन से बाहर नहीं आना। ज़रा भी किसी को कुछ कह दिया जाए तो बवाल मच जाता है। इस बात का अनुभव तो होता है कि इस तरह रहने में आनंद नहीं है। हम स्मार्ट हैं, यह दिखाने में हर कोई प्लान ‘बी’ रखता है, पर जीवन में अगर कोई एक तरह से सुखी नहीं है तो जो आदर्श मार्ग है, उस प्लान ‘बी’ के अनुसार रहने का प्रयत्न नहीं करता। साही के जिस युवा समूह को अपना जीवन बचाना हो, तो उसे एक-दूसरे से चिपक कर थोड़ी पीड़ा सहनी होगी इसके लिए तैयार नहीं है। इनमें सहनशक्ति नहीं है। साथ रहने से प्यार का अनुभव करने के बजाय घबराहट होती है। यह तो ठीक है कि उनके साथी की ठंड से मौत हो गई तो उनकी समझ में आ गया कि पीड़ा सह कर साथ रहेंगे, तभी बचेंगे। पर आज तो नज़रों के सामने ही ‘ज़ीरो टोलरंस’ की वजह से कितने परिवार, दंपती टूटते दिखते हैं, फिर भी कोई समाधान नहीं है।
ऑफ़िस में भी कभी कर्मचारियों को थोड़ा पहले आना पड़े या देर तक रुकना पड़े तो वे तड़ से नौकरी छोड़ने तक को तैयार हो जाते हैं। इसके बाद बिना नौकरी का होकर कैसे आजीविका चलेगी? अमुक बॉस या सहकर्मचारी का स्वभाव जान कर उसे स्वीकार किया जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि परिवार, दांपत्य-जीवन या नौकरी-धंधे में सहन ही करते रहें, अच्छी तरह अलग हुआ जा सकता है। पर आप इतना तो समझदार हैं ही कि कहने का मर्म समझ सकते हैं।
माता, पिता, पति या पत्नी और संतानों से लेकर बॉस तक को कुछ न अच्छा लगता हो तो उसे समझ लेना चाहिए। सहनशक्ति की भी एक हद होती है। लेकिन कुछ लोग ज़रा सी बात में उबल पड़ते हैं। इसे शून्य सहनशक्ति कहते हैं। अमुक समय और संयोग में सहन कर लेना ठीक है। साहियों ने भी ठंडी कम होने तक एक-दूसरे के काँटों की पीड़ा सही थी। यह हमेशा के लिए नहीं था। इसी तरह हमें भी किसी व्यक्ति या समूह के साथ रहना हो, जो एक निर्धारित समय तक सीमित हो, जिसे सहन करने से सुख, शान्ति और प्रगति हो रही हो तो समय को ध्यान में रख कर व्यक्ति या समूह को सहन करना चाहिए।
हम साही जैसे काँटे बनते जा रहे हैं। बर्फ़ जैसे ठंठे सम्बन्धों को तोड़ने के बजाय एक-दूसरे की थोड़ी पीड़ा बाँट लेनी चाहिए। ज़ीरो डिग्री तापमान में ज़ीरो टोलरंस ठीक नहीं है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
अगर जीतना स्वयं को, बन सौरभ तू बुद्ध!!
सामाजिक आलेख | डॉ. सत्यवान सौरभ(बुद्ध का अभ्यास कहता है चरम तरीक़ों से बचें…
अध्यात्म और विज्ञान के अंतरंग सम्बन्ध
सामाजिक आलेख | डॉ. सुशील कुमार शर्मावैज्ञानिक दृष्टिकोण कल्पनाशीलता एवं अंतर्ज्ञान…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
चिन्तन
कविता
साहित्यिक आलेख
काम की बात
सिनेमा और साहित्य
स्वास्थ्य
कहानी
किशोर साहित्य कहानी
लघुकथा
सांस्कृतिक आलेख
सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
सिनेमा चर्चा
- अनुराधा: कैसे दिन बीतें, कैसे बीती रतियाँ, पिया जाने न हाय . . .
- आज ख़ुश तो बहुत होगे तुम
- आशा की निराशा: शीशा हो या दिल हो आख़िर टूट जाता है
- कन्हैयालाल: कर भला तो हो भला
- काॅलेज रोमांस: सभी युवा इतनी गालियाँ क्यों देते हैं
- केतन मेहता और धीरूबेन की ‘भवनी भवाई’
- कोरा काग़ज़: तीन व्यक्तियों की भीड़ की पीड़ा
- गुड्डी: सिनेमा के ग्लेमर वर्ल्ड का असली-नक़ली
- दृष्टिभ्रम के मास्टर पीटर परेरा की मास्टरपीस ‘मिस्टर इंडिया'
- पेले और पालेकर: ‘गोल’ माल
- मिलन की रैना और ‘अभिमान’ का अंत
- मुग़ल-ए-आज़म की दूसरी अनारकली
ललित कला
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
पुस्तक चर्चा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं