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पिज़्ज़ा

 

पिज़्ज़ा डिलिवरी ब्वाय की नौकरी करने वाले रघु को उसके अग़ल-बग़ल की झुग्गियों में रहने वाले बच्चों ने घेर कर पूछा, “सुना है, यह पिज़्ज़ा बहुत अच्छा होता है। तू वहाँ नौकरी करता है, तुझे तो भरपेट खाने को मिलता होगा न?” 

झूठमूठ की हँसी हँसते हुए रघु ने कहा, “मैं तो रोज़ाना जितना मन होता है, उतना पिज़्ज़ा खाता हूँ।”

जबकि सच तो यह था कि वह तीन महीने से नौकरी कर रहा था, पर पिज़्ज़ा खाने की कौन कहे, उसने चखा तक नहीं था। 

“मैंने सुना है कि पिज़्ज़ा शहद जैसा होता है . . . क्या यह सच है?” जय ने पूछा। 

“नहीं रे . . . वैसा नहीं होता। एक बार एक लड़की का पूरा डिब्बा गिर गया था। उसमें से एक टुकड़ा मुझे भी मिल गया था। मीठा नहीं, तीखा-तीखा था, पर था बहुत ज़ोरदार . . . ” शेरा ने कहा। 

जिस दिन से रघु ने पिज़्ज़ा डिलीवरी की यह नौकरी की थी, उसी दिन से उसकी इच्छा थी कि एक दिन उसे भरपेट पिज़्ज़ा खाना है। आख़िर इसमें ऐसा क्या है, जो लोग इसे खाने के लिए पागल हुए रहते हैं। इसका मतलब यह कोई ज़ोरदार चीज़ है

पिज़्ज़ा खाने के लिए ओवरटाइम के अलावा मैनेजर से विनती करके रात को वह रेस्टोरेंट का कूड़ा उठाने और झाड़ू-पोछा करने लगा। इस तरह लगभग दो महीने की सख़्त मेहनत कर के उसने क़रीब डेढ़ हज़ार रुपए बचा लिए। अब वह पेट भर पिज़्ज़ा खा सकेगा, यह सोच कर उसे उस रात नींद नहीं आई। अगले दिन वह पिज़्ज़ा खाएगा, यह सोच कर उस दिन उसने खाना भी नहीं खाया। 

उस दिना बिना यूनिफ़ॉर्म के हो वह रेस्टोरेंट में दाख़िल हुआ। वहाँ से उसने देखा कि उसके पड़ोस वाले बच्चे भीख माँग रहे हैं। छोटे जय को एक लड़की ने मुँह बना कर बिस्कुट का आधा पैकेट दिया। बिस्कुट ख़ुद अकेले खाने के बजाय जय ने अपने अन्य तीन साथियों को बुलाया। 

बस, रघु के तरस रहे मन को तमाचा लगा। पल भर का विलंब किए बग़ैर उसने सीटी मार कर उन लोगों को बुलाया। रघु को देख कर वे सभी उसकी ओर भागे। जय ने हाथ में लिया आधा पैकेट बिस्कुट उसके सामने रख दिया।

यह देख कर भीग चुकी आँख का कोर पोंछते हुए रघु ने उन सब से पूछा, “मैं कह रहा हूँ कि पिज़्ज़ा खाओगे क्या?” 

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