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मूढ़ पत्थरों में संगीत का गूढ़ विज्ञान

 

विषय भले कर्नाटक के हम्पी नगर का है, पर विषय प्रवेश अमेरिका के दरवाज़े से करते हैं। न्यूयार्क शहर के पश्चिम में पेंसिल्वेनिया राज्य में रिंगिग राॅक्स तथा रिंगिंग हिल्स नाम से दो पार्क्स हैं। सामान्य रूप से अंग्रेज़ी शब्द पार्क का अनुवाद हम उद्यान यानी कि बग़ीचे के रूप में करते हैं। पर इस तरह का अनुवाद रिंगिंग राॅक्स तथा रिंगिंग हिल्स के मामले में उपयुक्त नहीं बैठता है, क्योंकि दोनों पार्क ग्रेनाइट के विशाल पत्थरों से बने हैं। शुष्क, बेजान पत्थरों में देखने में कुछ अजीब नहीं लगता, परन्तु इन पत्थरों पर छोटा सा लोहे का टुकड़ा टकराने पर ‘अहिल्या’ पत्थरों में जैसे किसी ने प्राण फूँक दिए हों, इस तरह मीठी धुन वाली घंटियाँ बजने लगती हैं। अगर लोहे के टुकड़े को लयबद्ध रूप से टकराया जाए तो जलतरंग बजने जैसी अनुभूति होती है। 
इस नैसर्गिक अजायब के बारे में अमेरिका सदियों तक अनजान रहा। अठारहवीं सदी के मध्य में इन म्यूज़िकल पत्थरों के बारे में पहली बार अचानक पता चला तो उन्नीसवीं सदी की शुरूआत में एडगर थियोडोर ह्वेरी नाम के खनिजशास्त्री को इसमें रुचि पैदा हुई। मूढ़ पत्थर आख़िर किस भूस्तरीय रचना की वजह से संगीत का सुर छेड़ते हैं। यह जानने समझने के लिए एडगर ने ज़िन्दगी के न जाने कितने साल ख़र्च कर दिए। 

उसी दौरान विलियम जे बक नाम के इतिहासकार ने रिंगिंग राॅक्स तथा रिंगिंग हिल्स पार्क के पत्थरों से लिथोफोन नाम का वाद्ययंत्र तैयार कर डाला। लगभग 90 किलोग्राम का एक ऐसा आधे दर्जन से अधिक पत्थरों को गढ़ कर क़तारबद्ध रखने से जो वाद्ययंत्र बना, उसकी रचना जायकोफोन के जम्बो (वजन में भी जम्बो) आवृत्ति जैसी थी। जलतरंग जैसा मीठा सुर निकालने की वजह से वह ख़ूब लोकप्रिय हुआ। आज अमेरिका, वियतनाम, कोरिया, चीन, आइसलैंड जैसे देशों में लिथोफोन का ठीक-ठाक उपयोग होता है। हॉलीवुड की अमुक फ़िल्मों के थीम म्यूज़िक में लिथोफोन का उपयोग किया गया है। इस वाद्ययंत्र का कुशल कलाकार अपने दोनों हाथों में लकड़ी की हथौड़ी लेकर विविध आकार के ग्रेनाइट पत्थरों पर युक्तिपूर्वक चोट करता है तो ऐसा मधुर संगीत निकलता है मानो कान में शहद घुल रहा है। 

विषयप्रवेश के लिए खोला गया अमेरिका का दरवाज़ा अब बंद कर के भारत के द्वार आते हैं। स्थान तमिलनाडु का तिरुनेलवेलीनगर, जहाँ शिवजी का नैल्लायपर रूप में जाना जाने वाला प्राचीन मंदिर है। दक्षिण भारतीय गोपुरम् इसका निर्माण आठवीं सदी में हुआ था। कारीगरी की दृष्टि से नैल्लायपर मंदिर उत्कृष्ट तो है ही, पर मंदिर का सब से रुचिकर हिस्सा मणि मंडपम् है। यहाँ कुल 48 नक़्क़ाशीदार स्तंभ क़तारबद्ध देखने को मिलते हैं। इन कलात्मक स्तंभों के मूढ़ पत्थर मूक नहीं हैं, बोलने वाले हैं। मतलब कि इन्हें थपथपाया जाए तो इनमें से विविध वाद्ययंत्रों की आवाज़ निकलती है। 

लेख के शुरूआत में जैसा बताया गया है कि अमुक तरह के सुर निकालने वाले ग्रेनाइट पत्थरों को19वीं सदी में एडगर थियोडोर व्हेरी ने खोज निकाला था। दूसरी ओर नैल्लायपर मंदिर तो 8वीं सदी में बनाया गया था। तत्कालीन स्थपतियों को कैसे पता चला होगा कि बेजान पत्थरों में संगीत रूपी प्राण धड़कता है। 

नैल्लायपर मंदिर जैसा उदाहरण कर्नाटक के ऐतिहासिक हम्पी नगर में 15वीं सदी में बने विजय विट्ठल मंदिर का भी है। 14वीं से 16वीं सदी के दौरान दक्षिण भारत में विजयनगर नाम का वर्तमान साम्राज्य था। वर्तमान में गोवा, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, तेल॔गाना, आंध्रप्रदेश और दक्षिण महाराष्ट्र का प्रदेश विजयनगर के संगमवंशी राजाओं के आधिपत्य में था। इन प्रदेशों में राजाओं ने अपने कालखंड में कलात्मक मंदिरों का निर्माण कराया था। जिसमें तुंगभद्रा नदी के किनारे हम्पी विजयनगर की राजधानी होने के कारण मंदिरों की नगरी था। 

लगभग 41 वर्ग किलोमीटर में फैले हम्पी में सब मिला कर 1600 मंदिरों का निर्माण कराया गया था। समय के साथ तमाम मंदिर खंडहर हो गए, फिर भी उनकी स्थापत्य तत्कालीन स्थपतियों के लिए मन में सम्मान पैदा किए बिना नहीं रहती। सम्मान के अलावा आश्चर्यचकित करने वाला मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित विजय विट्ठल है। ग्रेनाइट पत्थरों से सजे लगभग 56 स्तंभों को कलाकारों ने देवी-देवताओं, गांधर्वों-नर्तकों, हाथी-घोड़ा जैसे प्राणियों और फूल-वेला की खुदाई कर के सजाया है। कहा जाता है कि मंदिर के महामंडप में एक समय गीत-संगीत-नृत्य का आयोजन होता था तो कलाकार पत्थरों के स्तंभों को हाथ द्वारा थपथपा कर मृदंग, वीणा, तबला, जलतरंग, डमरू और घंटी जैसे वाद्ययंत्रों की ध्वनि उत्पन्न करते थे। महामंडप का निर्माण ध्वनिशास्त्र के अनुसार होने की वजह से पत्थरों से निकलने वाली सामान्य आवाज़ भी ज़रा प्रवर्धन पा कर पूरे महामंडप में स्पष्ट सुनी जा सकती थी। 

विजयनगर साम्राज्य की राजधानी के रूप में हम्पी और वहाँ के मंदिर संकुल को आश्चर्य करने वाला विजय विट्ठल मंदिर का दबदबा सालों तक रहा। पर सन्‌ 1565 में मुग़लों से युद्ध में विजयनगर की पराजय के साथ साम्राज्य की दशा ख़राब होने लगी। एक समय समग्र दक्षिण भारत में अपनी शान रखने वाला विजयनगर इतिहास रच कर इतिहास बन गया। राजधानी हम्पी सूनी हो गई और उसका हैरान करने वाला स्थापत्य देखभाल के अभाव में खंडहर होने लगा। दक्षिण भारत में पल्लवित होने वाली मंदिरों की विजयनगर स्थापत्य शैली के हुनरमंद नहीं रहे और ग्रेनाइट पत्थरों को विशिष्ट तरह से तराश कर उसमें संगीत की आत्मा जगाने वाले विश्वकर्मा भी नहीं रहे। 

सालों बीतने के बाद भारत में ब्रिटिश हुकूमत आई। शोध-संशोधन और अध्ययन के मामले में रुचि रखने वाले अँग्रेज़ों को विजयनगर के हम्पी के विजय विट्ठल मंदिर के संगीतमय हैरान करने वाली बात में रुचि पैदा हुई। बाहर ठोस दिखाई देने वाले स्तंभ अंदर से पोले होंगें और हाथ से स्तंभ को थपथपाने से जो कँपकँपाहट पैदा होती होगी, वह आंतरिक पोलेपन में ध्वनितरंग पैदा करती होगी, यह उनकी धारणा थी। सच्चाई का पता लगाने के लिए विजय विट्ठल मंदिर महामंडप का एक स्तंभ तोड़ा गया और उसके साथ छेड़-छाड़ की गई। पर स्तंभ बाहर से ले कर अंदर तक पूरी तरह ठोस था। कहीं से भी नहीं पोला था। शोध के लिए आगे कोई संकेत न होने की वजह से विजय विट्ठल मंदिर के म्युज़िकल स्तंभ एक रहस्य के रूप में सालों तक भुलाए जाते रहे। 

आज आधुनिक विज्ञान ने रहस्य से परदा उठा दिया है। अमेरिका के पेंसिल्वेनिया राज्य में रिंगिग राॅक्स तथा रिंगिंग हिल्स पार्क के जड़ पत्थर आठवीं सदी में नैल्लायपर मंदिर के तथा 15वीं सदी में बने विजय विट्ठल मंदिर के स्तंभ किस वजह से एकाध वाद्ययंत्र की भूमिका अदा करते हैं, यह जानने और समझने लायक़ है। 

संगीत का सुर छेड़ने वाले ग्रेनाइट में लौहतत्व (आयरन ऑक्साइड) की मात्रा बहुत ज़्यादा होती है। परंपरागत अग्निकृत उसी तरह ग्रेनाइट पत्थरों में आयरन ऑक्साइड अधिक से अधिक 3 प्रतिशत होती है, जबकि म्युज़िकल पत्थरों में इसकी मात्रा 12 प्रतिशत जितनी होना रसायन पृथक्करण द्वारा साबित हुई है। आयरन ऑक्साइड के अणु एक-दूसरे से इतने अधिक सटे होते हैं कि इस तरह के पत्थरों को अन्य अणुओं की अपेक्षा हमेशा तनावयुक्त रखते हैं (यहाँ तनाव का मतलब तंग अथवा दबाव द्वारा खिंचाव) अणुओं का कसा गठबंधन दबाव में हो तो इससे क्या हो सकता है यह समझने के लिए सितार का उदाहरण ले सकते हैं। 

इस तंतुवाद्य में 18 से 20 तार होते हैं। ऊपर की खूँटी से ले कर तुमड़ा का लँगोट कहे जाने वाले हिस्से तक खींच कर बँधे सभी तारों को रखा जाए तो ये सुर में ध्वनि फ़ायदा करते हैं। अगर एकाध तार ढीला हो तो उसमें से बेसुरी आवाज़ निकलती है। ऐसा होने का कारण यह है कि अंगुली द्वारा तंग (तनावयुक्त) तार को झनझनाएँ तो उसका तीव्र कम्पन ध्वनि की ऊँची फ़्रिक्वेंसी वाली तरंगें पैदा करता है। ढीले तार में तनाव का अभाव होने से उसका कम्पन कमज़ोर होता है। इसलिए कम फ़्रिक्वेंसी वाली मोटी या दबी आवाज़ पैदा होती है। 

उपर्युक्त उदाहरण को अब पत्थर से जोड़ते हैं। जैसे सितार के तंग तार यानी संगीत की धुन निकालने वाले ग्रेनाइट पत्थरों में आयरन ऑक्साइड के अणुओं का तनाव और सितार के ढीले तार यानी सामान्य ग्रेनाइट (उसी तरह अन्य अग्निकृत) पत्थरों या जिनमें आयरन ऑक्साइड के अणु स्वतंत्र और छूटे हुए हैं। म्युजिकल पत्थर को हथौड़ी या हाथ द्वारा थपदपाया जाए तो तनावयुक्त आंतरिक रचना कम्पन के कारण आश्चर्यजनक ध्वनि पैदा करती है। 

अगर ऐसा सचमुच होता है तो तमिलनाडु के नैल्लायपर मंदिर के और हम्पी के विजय विट्ठल मंदिर के तमाम स्तंभ एक जैसी ध्वनि क्यों नहीं पैदा करते? उल्टा अमुक स्तंभ को थपथपाने से घंटी की आवाज़ निकलती है, तो दूसरे से मृदंग का साउंड पैदा होता है, तो तीसरे से डमरू बजता है, तो चौथे में जलतरंग बजता है। आख़िर ऐसा क्यों होता है? 

यह कमाल तत्कालीन विश्वकर्मा स्थपतियों का था। संगीतमय ग्रेनाइट पत्थर को विविध कद-आकार देने से उनका आंतरिक तनाव कम होने के कारण शायद ऐसा होता होगा यह वह जानते रहे होंगे। इससे स्तंभों की रचना उन्होंने तदनुसार की। आज वैज्ञानिक परीक्षण द्वारा सिद्ध हो गया है कि एक घन फुट का म्युज़िकल ग्रेनाइट पत्थर 4253 हर्ट्ज़ की कम्पन संख्या वाली ध्वनि तरंग पैदा करता है। चार घन फुट का पत्थर 1988 हर्ट्ज़ से लेकर 4020 हर्ट्ज़ तक की और 22 घन फुट का पत्थर 1760 हर्ट्ज़ की ध्वनि उत्पन्न करता है। 

अर्वाचीन विज्ञान द्वारा दिया गया हमें यह उपर्युक्त ज्ञान आठवीं और पंद्रहवीं सदी के स्थपितों ने कैसे प्राप्त किया होगा? किसे पता है, परन्तु मंदिरों के स्तंभ में उन्होंने संगीतमय पत्थरों का विविध क़द-आकार उपयोग किया होना देख सम्भव है कि पत्थरों की ध्वनि पैदा करने की ख़ासियत को वे बख़ूबी जान चुके थे। इसी से अमुक स्तंभ से अमुक वाद्य की ध्वनि पैदा करने में सफल रहे। 

मृदंग और तबला जैसे चर्म अथवा अनाक वाद्य जो निश्चित ध्वनि उत्पन्न करते हैं, बिलकुल वैसी ही ध्वनि जड़ पत्थर से निकलती है। यह बात थोड़ा सामान्य ज्ञान वालों को हैरान करती है। ध्वनि (संगीत) आख़िर क्या है? कोई व्यक्ति या पदार्थ (वाद्ययंत्र) हवा में छोड़े गए विविध कम्पन संख्या की ध्वनी तरंगों (साउंड वेव्स) के अलावा दूसरा कुछ नहीं है। कोई कलाकार अपने दोनों हाथों द्वारा मृदंग को थपथपाए तो एक निश्चित फ़्रिक्वेंसी की जो आवाज़ निकलती है, वैसी ही आवाज़ हम्पी के विजय विट्ठल मंदिर के स्तंभ से निकलती है तो चमड़े से बने मृदंग और ग्रेनाइट के ठोस पत्थर में क्या फ़र्क़ रहा? विज्ञान के लिए तो कुछ नहीं। अलबत्ता, मृदंग की तरह पत्थर को बजते देखने वाले को हैरानी ज़रूर होगी। 

यह है विजय विट्ठल और उसके जैसे दूसरे अनेक प्राचीन भारतीय मंदिरों के म्यूइकल स्तंभों में उपयोग में लिए गए पत्थरों का विज्ञान, जिसे सदियों पहले पाने वाले स्थपतियों की बुद्धिमत्ता के लिए क्या कहें? उनके इस ज्ञान के लिए आदर की अभिव्यक्ति शब्दों से नहीं की जा सकती। 
 

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