मेरा नाम क्या है
कथा साहित्य | लघुकथा वीरेन्द्र बहादुर सिंह15 Apr 2023 (अंक: 227, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
इक्यान्नवे साल की उम्र में अचानक आई इस व्याधि से वह आकुल-व्याकुल हो उठे। तकलीफ़ विचित्र थी। सुबह उठने के साथ ही उन्हें अपना नाम ही नहीं याद आ रहा था। लगभग दो घंटे तक वह कमरे में इधर से उधर चक्कर लगाते रहे। मर चुकी पत्नी भी ‘कहती हूँ’ कह कर ही बुलाती थी, इसलिए उसने भी कोई नाम दिया हो, याद नहीं आ रहा था। स्वर्गस्थ पत्नी के फोटो के नीचे उसके नाम के पीछे उनका नाम था। परन्तु पिछले साल, फोटो के पीछे चले गए बरसात के पानी की वजह से उस जगह इस तरह के दाग पड़ गए थे कि नाम पढ़ने में ही नहीं आ रहा था। जबकि पढ़ने में भी आ रहा होता तो अनपढ़ आँखें पढ़ ही कहाँ पातीं। गाँव के अपने घर में होते तो किसी से पूछ लेते। पर इस समय तो वह बेटे के घर शहर में थे। यहाँ तो ज़्यादा लोग उन्हें पहचानते भी नहीं थे।
विदेश कमाने गए बेटे के उसकी कर्कश बहू थी। अगर उससे पूछ लेते तो वह इस तरह बात का बतंगड़ बनाएगी कि सोच कर ही उन्हें चक्कर आ गया। बेटे को विदेश फोन लगाया और जैसे ही पूछा कि मेरा नाम क्या है? वहाँ तो जब चाहे फोन लगा कर पूछने के बदले जो सुनने को मिला कि . . . पर नाम का पता नहीं चला। ख़ूब सोच-विचार कर छोटे पोते को पास बुला कर पूछा, “बाबू, तुम्हें मेरा नाम पता है?”
उसने हाँ में सिर हिलाया। पर नाम बोलने के लिए चॉकलेट की ख़ातिर दस रुपए माँगे। दस की नोट पकड़ा कर अपना नाम पूछा तो जवाब मिला, “दादाजी।”
“अरे यह नहीं, मेरा नाम बोलो।”
“हाँ, वही तो कह रहा हूँ। आप का नाम दादाजी है। मैं तो यही तो कह कर बुलाता हूँ,” कह कर पोता भाग गया।
इसी चिंता में वह घर के बाहर निकले तो सामने मिठाई की दुकान वाले ने ‘नमस्कार’ किया। बड़ी उम्मीद के साथ वह दुकान पर पहुँचे और सकुचाते हुए पूछा, “भाई, तुम्हें मेरा नाम मालूम है?”
जवाब में दुकानदार ने ज़ोर से हँस कर कहा, “आप भी न, सालों से आप को चाचा कहता आ रहा हूँ तो आप का नाम जान कर क्या करना है?”
गाँव से बचपन के दोस्त का फोन आया। फोन रिसीव होते ही उसने पूछा, “पप्पू मज़े में है न?”
उन्हें ख़ुशी हुई, लगा कि उनका नाम पप्पू है। कन्फ़र्म करने के लिए पूछा तो दोस्त ने कहा, “उम्र की वजह से ठीक से याद नहीं। पर पप्पू तेरी क़सम, नाम तो तेरा कोई दूसरा है, पर मैं तो बचपन से तुझे पप्पू ही कहता आ रहा हूँ।”
दोस्त की इस बात से वह और चिढ़ गए। मैं भी कैसा आदमी हूँ कि अपना नाम भी याद नहीं है। इसकी अपेक्षा तो मर जाना ठीक है। बड़ी मेहनत से वह छत पर गए। वह छलाँग लगाने जा रहे थे कि उनके फोन की घंटी बजी। फोन उठाते ही दूसरी ओर से कहा गया, “रामप्रसादजी, आप को लोन चाहिए?”
यह सुन कर रामप्रसाद मुस्कुरा उठे।
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