ऋणानुबंध
कथा साहित्य | कहानी वीरेन्द्र बहादुर सिंह15 Sep 2024 (अंक: 261, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
सुबह का समय था। आलस्य त्याग कर लोग उठ कर बैठ रहे थे। रोज़ की तरह पल्लवी अपने प्यारे बग़ीचे के तरह-तरह के फूलों के पेड़ों में पानी डालते हुए धीमे-धीमे कोई गाना गुनगुना रही थी। इसके बाद बग़ीचे में पड़ी कुर्सी पर बैठ कर गरम चाय की चुस्की लेते हुए अपने हाथों से सजाए बग़ीचे को देख कर ख़ुश हो रही थी।
पल्लवी अकेला जीवन जी रही थी। उसने न तो विवाह किया था और न ही परिवर का कोई सदस्य साथ रहता था। वह शिक्षक की नौकरी से रिटायर्ड हुई थीं। स्वभाव से शांत और सौम्य पल्लवी बच्चों की मदद करने में ज़रा भी नहीं सोचती-विचारती थीं। उन्होंने निश्चय कर रखा था कि उनसे जितनी मदद हो सकेगी, वह करेंगी। आते-जाते वह झुग्गी-झोपड़ी वाले इलाक़े में घूम लेती थीं। ज़रूरतमंद और ग़रीब बच्चों के साथ ग़रीब परिवारों की भी मदद करती थीं।
उस दिन बग़ीचे की देखभाल के बाद वह सब्ज़ी लेने निकलीं तो सिगनल पर उन्हें एक बच्ची फूल बेचते हुए दिखाई दी। उसके पास जा कर वह बोलीं, “कितने साल की हो बेटा?”
“नौ साल की।”
“पढ़ती नहीं हो?” बात बढ़ाते हुए पल्लवी ने पूछा।
“कौन पढ़ाए?” कह कर वह आगे बढ़ गई तो मदद करने की भावना से पल्लवी ने उसे रोकना चाहा।
“देखो मैडम, काम के समय में आप परेशान मत कीजिए,” कह कर वह लड़की सड़क उस पार निकल गई। उसके पास जाने के चक्कर में पल्लवी ने सिगनल का ध्यान नहीं दिया और एक कार की चपेट में आ गईं। वह सड़क पर गिर के बेहीश हो गईं।
जब पल्लवी की आँख खुली तो वह अस्पताल में थीं। उनके होश में आने पर नर्स डॉक्टर को बुला लाई। कार के ब्रेक टाइम में चपेट में आने के कारण पल्लवी को कोई ज़्यादा चोट नहीं आई थी। उनके सिर की चोट में छह टाँके लगे थे और हाथ-पैर में सामान्य चोट आई थी। डॉक्टर का कहना था कि कुछ जाँच कराने के बाद उन्हें छुट्टी दे दी जाएगी। ख़ुद की ग़लती से यह एक्सीडेंट हुआ था, इसलिए शिकायत करने का सवाल ही नहीं था। कोई सगा-संबंधी न होने की वजह से खाना अस्पताल की कैंटीन से आना था। तभी सिगनल पर मिली लड़की एक युवक के साथ उनके कमरे में दाख़िल हुई। पल्लवी ने चश्मा ठीक करते हुए उनकी ओर देखा।
“आप बिलकुल चिंता मत कीजिए। जब तक आप अस्पताल में भर्ती हैं, आप की देखभाल की ज़िम्मेदारी मेरी है,” यह कहते हुए बच्ची के साथ आए युवक ने खाने का टिफ़िन पल्लवी के सामने रख दिया।
“आप कौन?” पल्लवी ने पूछा।
“इस लड़की को पहचानती हैं?” उस युवक ने पूछा।
चश्मा ठीक करते हुए पल्लवी ने कहा, “नहीं, यह लड़की यहाँ कैसे आई और आप भी?”
बेड के बग़ल में पड़ी कुर्सी पर बैठते हुए युवक ने कहा, “मैं लाया हूँ इस बच्ची को। आप इसकी मदद करना चाहती थीं न?”
“आप को कैसे पता?” हैरान हो कर पल्लवी बोली।
उस युवक ने जेब से आई कार्ड निकाल कर पल्लवी को दिखाते हुए कहा, “मैं सेंट पाॅल स्कूल में पढ़ता हूँ। आप को याद होगा। अचानक पापा की मौत होने पर मुझे पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी। क्योंकि मुझे सहारा देने वाला कोई नहीं रह गया था। तब आप मुझे खोजते हुए आई थीं। आपने मेरा और मेरी माँ का रोज़ा खुलवाया था।”
चश्मा हटा कर आँखों में आए आँसू पोंछते हुए पल्लवी ने कहा, “इरफ़ान, मुझे सब याद है बेटा। तुम्हें कैसे भूल सकती हूँ? तुम्हारी मदद क्यों न करती, तुम पढ़ने में बहुत होशियार थे।”
इरफ़ान ने भी नम आँखों से पल्लवी का हाथ पकड़ कर कहा, “ऋणानुबंधित हूँ मैं मैडम आपका। सिगनल पर मैंने आपको पहचान लिया था। मेरा जो होटल पापा की मौत के बाद बंद हो गया था, उसे आपने ही मदद कर के चालू करवाया था। मैं रोज़ाना सुबह-शाम ज़रूरतमंदों को खाना देने आता हूँ। यह मैंने आप से ही सीखा है। मैं आपका बेटा हूँ।”
यह कह कर इरफ़ान ने पल्लवी को खीर खिलायी। उस बच्ची ने पल्लवी को फूल दे कर कहा, “भइया ने बताया है कि आप के घर पर बहुत सुंदर बग़ीचा है। मैं देखने आ सकती हूँ?”
मुस्कुराते हुए पल्लवी ने फूल ले कर कहा, “एक शर्त पर, मैं पढ़ाऊँगी तो तुम्हें पढ़ना होगा।”
“पर इसकी व्यवस्था तो इन भइया ने पहले ही कर दी है!” कह कर वह बच्ची इरफ़ान के पास बैठ गई।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
चिन्तन
कविता
साहित्यिक आलेख
काम की बात
सिनेमा और साहित्य
स्वास्थ्य
कहानी
किशोर साहित्य कहानी
लघुकथा
सांस्कृतिक आलेख
सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
सिनेमा चर्चा
- अनुराधा: कैसे दिन बीतें, कैसे बीती रतियाँ, पिया जाने न हाय . . .
- आज ख़ुश तो बहुत होगे तुम
- आशा की निराशा: शीशा हो या दिल हो आख़िर टूट जाता है
- कन्हैयालाल: कर भला तो हो भला
- काॅलेज रोमांस: सभी युवा इतनी गालियाँ क्यों देते हैं
- केतन मेहता और धीरूबेन की ‘भवनी भवाई’
- कोरा काग़ज़: तीन व्यक्तियों की भीड़ की पीड़ा
- गुड्डी: सिनेमा के ग्लेमर वर्ल्ड का असली-नक़ली
- दृष्टिभ्रम के मास्टर पीटर परेरा की मास्टरपीस ‘मिस्टर इंडिया'
- पेले और पालेकर: ‘गोल’ माल
- मिलन की रैना और ‘अभिमान’ का अंत
- मुग़ल-ए-आज़म की दूसरी अनारकली
ललित कला
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
पुस्तक चर्चा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं