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वैराग्य 

 

स्वामी राजेशवरानंदजी की आँखें सुबह 4 बजे ही खुल जाती थीं। नित्यकर्म निपटा कर वह तुरंत ही नहा लेते थे। उस दिन भी नहाने के बाद उन्होंने कपड़ों की अलमारी खोली तो उनका ध्यान सब से नीचे वाले खाने की ओर चला गया। भगवा कपड़ों के बीच अन्य रंग के कपड़े अलग ही दिखाई दे रहे थे। वे उनके पूर्वजीवन के यानी जब उन्होंने संन्यास नहीं लिया था, तब के कपड़े थे। अलमारी बंद कर के उन्होंने निकाले गए भगवा कपड़े पहन लिए। 

कमरे से बाहर आते ही वहाँ खड़े भक्तों ने उनके पैर छुए। उन्हें आशीर्वाद दे कर स्वामीजी मुख्य मंदिर की ओर बढ़े। रोज़ की तरह आरती और पूजा-अर्चना कर के वह बाहर आए तो एक सेवक ने स्वामीजी के पैर छू कर कहा, “महराजजी एक साहब आप का ऑफ़िस में इंतज़ार कर रहे हैं।”

स्वामीजी अपने कमरे में जाने के बजाय ऑफ़िस की ओर चल पड़े। स्वामीजी को देखते ही उस आदमी ने आगे बढ़ कर पैर छुए। स्वामीजी ने मुस्कुराते हुए उसे आशीर्वाद दे कर कहा, “कहिए सेठ दीनानाथजी कैसे आना हुआ?” 

“महराजजी, जैसी आप से बात हुई थी, उसी के अनुसार 15 लाख रुपए ले कर आया हूँ। दो दिन बाद वापस ले जाऊँगा। आप का जो कमीशन होता हो, उसे काट कर बाक़ी रुपए दे दीजिएगा। और हाँ, दान की रसीद भी साथ ही दे दीजिएगा,” सेठ दीनानाथ ने हँसते हुए कहा। 

स्वामीजी ने बग़ल में खड़े भक्त को इशारा किया तो वह बैग खोल कर रुपए गिनने लगा। हाथ जोड़ कर सेठ दीनानाथ खड़े हुए और जाने की आज्ञा माँगी। स्वामीजी ने हाथ उठा कर आशीर्वाद दिया तो दीनानाथ चले गए। 

स्वामीजी भक्त को रुपए गिनते देखते रहे। अचानक उन्हें लगा कि इस तरह का दृश्य उनकी आँखों के सामने पहले भी अनेक भार घटा है। इस तरह नोटों से भरे बैग वह पहले भी देख चुके हैं। उन्हें याद आया कि सालों पहले भी इसी तरह नोटों से भरे बैग, अटैचियाँ ले कर व्यापारी, उद्योगपति उनके पास आते थे और वह चार्टर्ड एकाउंटेंट की कुर्सी पर बैठ कर उसका हिसाब-किताब करते थे। उस समय भी लोग उन्हें पैसे दे जाते थे और अपना कमीशन काट कर वह काले धन को सफ़ेद करते थे। पर धीरे-धीरे उनकी आत्मा यह ग़लत काम करने से रोकने लगी। 

धीरे-धीरे वह इस काम से और संसार से विमुख होने लगे। संसार उन्हें असार लगने लगा। विवाह उनका हुआ नहीं था, इसलिए माता-पिता के अलावा और किसी से उन्हें लगाव नहीं था। वह अध्यात्म के मार्ग पर चल पड़े। मंदिर आने–जाने में वह वहाँ के साधुओं के संपर्क में आए। साधुओं ने उनके मन में आए वैराग्यभाव को परख लिया। मंदिर के मुख्य गुरु उन्हें अपने पास बैठाने लगे। इस तरह संसार छूटता गया। 

जब उन्होंने दीक्षा ली तो उन्हें लगा कि जैसे नई राह मिली हो। वह पूरे दिन साधना में मग्न रहते। उन्हें लगता कि एक दिन वह परम तत्त्व को प्राप्त कर लेंगे। परमतत्त्व तो नहीं मिला, पर धीरे-धीरे वह आश्रम की प्रवृत्तियों से अवगत होने लगे। गुरु उन्हें उत्तराधिकारी बनाने के लिए शिक्षा देने लगे। वह गुरु की आज्ञा के पीछे कोई कारण होगा, यह मान कर शीश नवा कर जैसा गुरु कहते रहे, वह करते रहे। 

गुरु की मौत के बाद भक्तों ने उन्हें उत्तराधिकारी बना दिया। सभी के प्रेमवश वह सारा काम करने लगे। उस दिन इतने सालों बाद उन्हें पूर्वाश्रम याद आ रहा था। उन्हें लगा, जैसे उनका सिर घूम रहा है। वह झटके से उठे और तेज़ी से अपने कमरे की ओर बढ़े। उन्हें तेज़ी से कमरे की ओर जाते देख भक्त भी उनके पीछे-पीछे चल पड़े। अलमारी खोल कर उन्होंने पूर्वाश्रम वाले कपड़े निकाले। उनके पीछे-पीछे आए भक्त हैरानी से उन्हें देख रहे थे। वह भगवा कपड़े उतार कर अपने पुराने कपड़े पहन रहे थे। तभी एक भक्त ने पूछा, “महराज कहाँ जा रहे हैं?” 

“घर!” उन्होंने कहा और उनकी आँखों के सामने वैराग्यभाव चमक रहा था। 

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टिप्पणियाँ

Sarojini Pandey 2024/08/02 03:52 PM

वाह वाह वाह मन ना रंगाए रंगाए जोगी कपड़ा !!!!!

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