बिना पते का इतिहास
काव्य साहित्य | कविता वीरेन्द्र बहादुर सिंह1 Oct 2025 (अंक: 285, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
वीरेंद्र बहादुर सिंह
बिना पते के
बंद लिफ़ाफ़े में
आया आदमी . . .
एकदम पहचान बग़ैर का नहीं होता।
उसके भीतर से निकल आता है
ऊबड़खाबड़ रास्ता . . .
रास्ते के ऊपर से
चल कर निकलते हैं कितने पैरों के निशान
पैरों के निशान से मिलते हैं
कितने दफ़न हुए
इतिहास के पन्ने।
और उन पन्नों को
पत्थर बना देते हैं
दो काँपते हाथ . . .
और वही काँपते . . . मेहनती हाथ
लिफ़ाफ़े में बंद करते हैं
एक इतिहास . . . एक आदमी . . . एक . . .
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
ऐतिहासिक
चिन्तन
किशोर साहित्य कहानी
बाल साहित्य कहानी
सांस्कृतिक आलेख
- अहं के आगे आस्था, श्रद्धा और निष्ठा की विजय यानी होलिका-दहन
- आसुरी शक्ति पर दैवी शक्ति की विजय-नवरात्र और दशहरा
- त्योहार के मूल को भुला कर अब लोग फ़न, फ़ूड और फ़ैशन की मस्ती में चूर
- मंगलसूत्र: महिलाओं को सामाजिक सुरक्षा देने वाला वैवाहिक बंधन
- महाशिवरात्रि और शिवजी का प्रसाद भाँग
- हमें सुंदर घर बनाना तो आता है, पर उस घर में सुंदर जीवन जीना नहीं आता
कहानी
लघुकथा
सामाजिक आलेख
कविता
काम की बात
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
साहित्यिक आलेख
सिनेमा और साहित्य
स्वास्थ्य
सिनेमा चर्चा
- अनुराधा: कैसे दिन बीतें, कैसे बीती रतियाँ, पिया जाने न हाय . . .
- आज ख़ुश तो बहुत होगे तुम
- आशा की निराशा: शीशा हो या दिल हो आख़िर टूट जाता है
- कन्हैयालाल: कर भला तो हो भला
- काॅलेज रोमांस: सभी युवा इतनी गालियाँ क्यों देते हैं
- केतन मेहता और धीरूबेन की ‘भवनी भवाई’
- कोरा काग़ज़: तीन व्यक्तियों की भीड़ की पीड़ा
- गुड्डी: सिनेमा के ग्लेमर वर्ल्ड का असली-नक़ली
- दृष्टिभ्रम के मास्टर पीटर परेरा की मास्टरपीस ‘मिस्टर इंडिया'
- पेले और पालेकर: ‘गोल’ माल
- मिलन की रैना और ‘अभिमान’ का अंत
- मुग़ल-ए-आज़म की दूसरी अनारकली
ललित कला
पुस्तक चर्चा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं