अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

उजाला चुरा लिया

 

बाबू साइकिल लेकर तीनों गाँवों में डाक बाँटने जाता था। उसका स्वभाव इतना हँसमुख और मिलनसार था कि तीनों गाँव के लोग उससे बड़े प्यार से बातें करते थे। 

दिवाली की रात नौ बजे का समय था। मौसम में गुलाबी ठंडक थी। अभिनंदन फ़्लैट्स लगभग पैंतीस साल पुराने थे, लेकिन अब भी मज़बूती से खड़े थे। सोसायटी के कॉमन प्लाट में काफ़ी बड़ी जगह थी। स्थानीय पार्षद ने अपने नाम के साथ वहाँ चार बेंच लगवा दिए थे। रोज़ रात को सोसायटी के बुज़ुर्ग वहाँ बैठकर बातें करते, मानो रोज़ की डायरी का सत्र हो। 

इन बेंचों पर पाँच स्थायी सदस्य थे। रात के नौ बजे सभी अपनी जगह आ बैठते और साढ़े दस-ग्यारह बजे तक महफ़िल जमती। पिछले हफ़्ते ही फ़्लैट के एक युवक की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी, इसलिए बच्चों को कॉमन प्लाट में पटाखे फोड़ने की मनाही थी। 

पाँचों नियमित सदस्यों में से रिटायर्ड बैंक अधिकारी देव साहब बहुत शांत स्वभाव के थे। सबकी बातें सुनते, पर कम ही बोलते। सतीशचंद्र की स्टेशनरी की दुकान थी। जब चर्चा उनके विषय की होती तो वह खिल उठते और हँसी-मज़ाक में शामिल हो जाते। 87 वर्ष के जमुना प्रसाद के पास अनुभव और जानकारी का ख़ज़ाना था। वैद्यराज वसानीजी सरकारी अस्पताल में आयुर्वेदिक डॉक्टर रह चुके थे। और पाँचवाँ सदस्य जयंतिलाल, जो सबसे ज़्यादा बोलते थे; गाज़ा, यूक्रेन, ट्रम्प, टैक्स, भ्रष्टाचार या महँगाई, किसी भी विषय पर चर्चा हो, वह बोलना शुरू करते तो बस बोलते ही रहते। 

जयंतिलाल यहाँ के नए सदस्य थे। वह रायबरेली के कई स्कूलों में प्रधानाध्यापक रह चुके थे और दो साल पहले अपने बेटे के पास यहाँ रहने आए थे। नए होने के बावजूद अपनी बातों और जोश से वह चर्चा में छा जाते थे। 

दिवाली थी, इसलिए पाँचों बुज़ुर्गों के अलावा कई अन्य लोग भी प्लाट में जमा हुए थे। बेंचें भर गईं, कुर्सियाँ भी लगानी पड़ीं। सबको यक़ीन था कि आज जयंतिलाल ख़ूब बोलेंगे। 

“शास्त्रों में कहा गया है, ऐसा कलियुग आ गया है . . . ” 87 वर्षीय जमुना प्रसाद ने आह भरी, “लोगों के पास दूसरों के लिए समय ही नहीं बचा। इस ज़माने में आर्थिक मदद की उम्मीद करना बेकार है। आदमी ख़ुद अपनी रोज़ी की चिंता में डूबा है, दूसरों की क्या सोचेगा? बूढ़े बाप की दवा के पैसे बेटे को भारी लगते हैं, फिर परायों से क्या उम्मीद रखनी?” 

उन्होंने प्रश्नवाचक नज़र से जयंतिलाल की ओर देखा। जयंतिलाल मुस्कराए, “आप सही कहते हैं जमुना प्रसादजी, लेकिन हर कोई इतना स्वार्थी भी नहीं होता। आज के ज़माने में भी ऐसे लोग हैं, जो दूसरों के लिए उजाला बाँटते है, बस विश्वास की कमी है। लोग डरते हैं कि दान सही जगह पहुँचेगा या नहीं।” 

वह बोले, “टीवी पर जब कहीं बाढ़ या भूकंप की तबाही देखते हैं, तो दिल पिघल जाता है, पर जब कोई फ़ंड जमा करने घर आता है तो हम सोचते हैं कि ये पैसे रास्ते में ही हज़म हो जाएँगे। असल में लोग मदद करना चाहते हैं, बस भरोसेमंद हाथ नहीं दिखाई देता।” 

उन्होंने फिर कहा, “तीस-बत्तीस साल पहले की एक बात आज भी याद आती है तो आँखें भर आती हैं। गाँव के उन अनपढ़ लोगों के दिल इतने बड़े थे कि आज कोई बड़ा अमीर भी वैसी दरियादिली नहीं दिखा सकता।” 

अब सब श्रोता ध्यान से सुनने लगे। 

“बी.एड. के बाद मुझे जहाँ नौकरी मिली थी, वहीं जाना पड़ा रायबरेली के गाँवों में। वहाँ एक गाँव था वर्खडी। उस गाँव में क़रीब साढ़े चार सौ घर थे और लोग इतने प्यार से रहते थे कि रोज़ का जीवन एक उत्सव जैसा लगता था। वहीं रहते-रहते मुझे वैद्यक का भी थोड़ा ज्ञान मिल गया था। गाँव में डॉक्टर नहीं था, इसलिए लोग मुझ पर भरोसा करते थे। पाँच साल में मैं वहाँ सब का ‘मास्टर’ बन गया। लोग हर छोटा-बड़ा काम मुझसे कहते।” 

उन्होंने आगे कहा, “गाँव में एक बुज़ुर्ग थे समरजी। उनका एक ही बेटा था। उसका नाम था बाबू। मेरी उम्र का ही था। मैं मास्टर था और वह डाकिया। उसे तीन गाँवों की डाक बाँटनी होती थी। साइकिल पर घूमता, हँसता-बोलता सबका प्यारा था। 

“एक दिन अचानक उसकी तबीयत बिगड़ गई। कोई बुख़ार नहीं, बस थकान और साँस फूलना। मैंने आयुर्वेदिक दवा दी, पर असर नहीं हुआ। मैं उसे लेकर लखनऊ गया। डॉक्टर ने बताया कि हृदय का वाल्व ख़राब है, इलाज सिर्फ़ मुंबई में सम्भव है। ख़र्च सुन कर मैं सन्न रह गया। डॉक्टर ने कहा कि अगर ऑपरेशन नहीं कराया गया, तो यह बच्चा साल-डेढ़ साल में चला जाएगा।” 

“गाँव लौटकर समरजी रो पड़े। बाबू के पास मुंबई जाने का ख़र्च भी नहीं था। मैं रात भर सो नहीं पाया। एक हँसमुख जवान सिर्फ़ पैसों के अभाव में मर जाए, यह मुझे मंज़ूर नहीं था। मैंने सरपंच से बात की। उन्होंने कहा कि तीनों गाँव के लोग मदद करेंगे। अगले ही दिन हर कोई बाबू के लिए दौड़ पड़ा। किसी ने कहा, ‘मास्टर, पैसों की चिंता मत करो। अगर हम मिलकर एक युवक की जान नहीं बचा सकते तो इंसान कहलाने का क्या मतलब?’” 

जयंतिलाल थोड़ा रुक कर बोले, “हमारे दिए से अगर दूसरे का दीया जल जाए, तो हमारा उजाला कम नहीं होता, बल्कि कुल मिलाकर रौशनी दोगुनी हो जाती है। गाँव के अनपढ़ लोगों के दिलों में यही भावना थी। तीनों गाँव के लोगों ने चंदा दिया, मैंने ज़िम्मेदारी ली और ख़ुद बाबू को लेकर मुंबई गया। बंबई अस्पताल में ऑपरेशन सफल रहा। 22 दिन बाद जब हम लौटे तो गाँव में दिवाली जैसा उत्सव मनाया गया।” 

“बाबू फिर 22 साल जिया। पर मैं उसे मिलने नहीं जाता था, क्योंकि जब भी मिलता था, वह मेरे सामने कृतज्ञ होकर सिर झुकाता। मुझे वह पसंद नहीं था। मैं चाहता था कि वह मुझे उपकारी न माने, बस एक इंसान माने।” 

जयंतिलाल ने भावुक होकर आगे कहा, “आज दिवाली के दिन बस इतना कहना है कि अगर हर कोई अपने आँगन का उजाला थोड़ा बाँटे, तो पूरे महल्ले में रोशनी हो जाएगी।” 

वह बोलना समाप्त कर चुके थे। सब लोग आदरभरी निगाह से उन्हें देख रहे थे। पाँचों बुज़ुर्ग चले गए। बाक़ी लोग वहीं बैठे थे। 

तभी रचित ने अपने पास बैठे दोस्त से कहा, “जब वह अंकल बोल रहे थे, मुझे हँसी आ रही थी . . . उन्होंने कहा कि ‘तब मेरा बेटा 12 साल का था और बाबू का बेटा 13 साल का’। वही लल्ला मैं हूँ। मेरे पापा का नाम बाबूलाल था। उस वक़्त इन अंकल ने तीनों गाँवों से ख़ूब पैसा जुटाया था। मदद की भावना थी, लेकिन उस पैसे का पूरा हिसाब कभी नहीं दिया। इन्हें अहमदाबाद बसना था, तो बचाए हुए पैसों से यहीं एक फ़्लैट बुक कर लिया था।” 

रचित फीकी हँसी हँस कर बोला, “मेरे पापा के दीए में तेल डालकर इन्होंने मदद तो की, लेकिन उस उजाले का हिस्सा चुरा लिया।”

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 तो ऽ . . .
|

  सुखासन लगाकर कब से चिंतित मुद्रा…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कहानी

ललित कला

किशोर साहित्य कहानी

ऐतिहासिक

चिन्तन

बाल साहित्य कहानी

सांस्कृतिक आलेख

लघुकथा

सामाजिक आलेख

कविता

काम की बात

साहित्यिक आलेख

सिनेमा और साहित्य

स्वास्थ्य

सिनेमा चर्चा

पुस्तक चर्चा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं