वंदे मातरम् और बिरसा मुंडा: भारत की स्वाधीनता और संस्कृति की ज्योति के 150 वर्ष!
आलेख | ऐतिहासिक वीरेन्द्र बहादुर सिंह1 Dec 2025 (अंक: 289, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
बिरसा मुंडा के संघर्ष की क्या विशिष्टता थी? वंदे मातरम् गीत किस संस्था में नियमित गाया जाता था? हमारे इतिहास के रोमांचक प्रसंग।
दुनिया में जहाँ मानवजाति का पालना बँधा, ऐसे हरे-भरे जंगलों से भरे अफ़्रीका में ही पले-बढ़े और वहीं एक अनोखे प्रकार के बिशप बने, नोबेल पुरस्कार विजेता, शांति-चिंतक डेसमंड टुटू। मूलतः अफ्रीकन होने के नाते उन्होंने बिना किसी शब्द को चुराए एक तीखी सच्चाई कही थी, “मिशनरी अफ़्रीका आए, उनकी मुट्ठी में बाइबल थी और हमारे पास ज़मीनें थीं। उन्होंने कहा, ‘आओ, प्रार्थना करें।’ हम आँखें बंद कर के बैठे। खोलीं तो देखा कि अब उनके पास ज़मीनें थीं और हमारे पास केवल बाइबल।”
ऐसा केवल अफ़्रीका में ही नहीं, पूरे जगत में हुआ है। केवल मिशनरी ही नहीं, शासकों ने भी धरती, जंगल और प्राकृतिक संसाधनों के मोह में सदियों से वहाँ रहने वाले आदिवासियों के साथ संघर्ष किया है।
‘अवतार’ और ‘कांतारा’ जैसी फ़िल्में इसी मुद्दे पर आधारित हैं। सरल, भोले-भाले, श्रमिक आदिवासियों को उनकी परंपराएँ छोड़वाकर ‘आधुनिकता’ के नाम पर नई ग़ुलामी देने का जो व्यापार चला, उसने प्रकृति को असीमित हानि पहुँचाई। दुनिया में मध्ययुग से यूरोपीय शक्तियों ने धर्म, सत्ता और लोभ के गठजोड़ से दो बड़े धर्म—ईसाई और इस्लाम के फैलाव की होड़ में न जाने कितनी स्थानीय सभ्यताओं को नेस्तनाबूद किया। दक्षिण अमेरिका में माया, एज़टेक, इंका सभ्यताएँ मिट गईं और केवल स्पैनिश संस्कृति रह गई।
ऐसा आक्रमण भारत ने भी सदियों तक झेला है। सौभाग्य से भारत की सनातन परंपरा में एक ऐसा चिरंतन तत्त्व है, जो परिवर्तन को स्वीकारता है, पर किसी का प्रभुत्व नहीं मानता। शरणागति के बजाय क्रांति की चेतना जगाता है, अपनी पहचान बचाने को प्रेरित करता है। इस भूमि पर पहले इस्लामिक शासन, फिर अंग्रेज़ी राज, दोनों के विरुद्ध ऐसे स्वर उठे, जिन्होंने विद्वत्ता को स्वीकारा, पर दासता को कभी नहीं।
हमारा इतिहास ऐसे अमर बलिदानों और अद्भुत प्रेरणाओं से भरा है, इसीलिए हमारा भविष्य उज्ज्वल है। और संयोग से ब्रिटिश साम्राज्य के अत्याचार के दौर में मातृभूमि की रक्षा के लिए जो दो क्रांतिकारी शिखर चमके। उनकी साढ़े-सौवीं वर्षगाँठ (150 वर्ष) साथ-साथ ही बीत रही है।
एक व्यक्ति—बिरसा मुंडा और दूसरी कृति-वंदे मातरम्। आइए, आज इस ज्वलंत इतिहास को श्रद्धापूर्ण अर्घ्य अर्पित है।
जैसे दुनिया भर में वैसे भारत में भी मूल निवासी माने जाने वाले आदिवासी समाज में अपार विविधता है। उनके अपने देवता हैं, अपनी पूजा-पद्धतियाँ हैं। वर्तमान झारखंड के छोटानागपुर के वन क्षेत्रों में मुंडा जनजाति निवास करती थी। उनकी भाषा मुंडारी है। उनके देवताओं के नामों में ‘बोंगा’ शब्द आता है और उन्हें शांत करने के लिए बलि तथा कर्मकांड किए जाते थे।
भारत का दुर्भाग्य यह रहा कि मुख्यधारा का हिंदू धर्म कभी वनों में रहने वाले इन निवासियों के आँसू पोंछने पहुँचा ही नहीं। आज भी स्थिति कुछ अलग नहीं है, कुछ अपवाद छोड़ दें तो। बाहर के हों या हमारे अपने राजा रूप में जो भी सत्ता में आया, वनों पर अधिकार जमाने पहुँचा। भोले-भाले, उदार आदिवासियों का शोषण होता रहा और शोषक बदलते रहे, पर शोषित की हालत नहीं बदली! इसी बीच सेवाभाव और धर्मप्रसार का दायित्व मानने वाले मिशनरी गाँव-गाँव तक पहुँचे। निरंतर शोषण से ग़रीब और आधुनिक शिक्षा से वंचित आदिवासी समुदाय को उन्होंने दवाइयाँ, भोजन और शिक्षा दी, पर उनकी आस्था का प्रवाह पलट दिया।
मुंडा समाज के साथ भी यही हुआ।
15 नवंबर, 1875, गुरुवार (बृहस्पति के दिन, इसलिए नाम पड़ा बिरसा) को जन्मे बिरसा के पिता सुगना और माता करमी भी महँगाई और दरिद्रता के बीच जीवन संघर्ष कर रहे थे, पर बालक बिरसा प्रतिभाशाली था। समाज में मान्यता थी कि ईश्वर उनके बीच किसी दिन अवतरित होता है और ऐसे ही वातावरण में बिरसा का बचपन प्रकृति, पशु-पक्षी और खुले आकाश के बीच बीता।
जर्मन मिशनरी स्कूल में पढ़ने के लिए परिवार को धर्म परिवर्तन करना पड़ा।
किशोरावस्था में पहुँचते ही बिरसा ने सवाल पूछने शुरू किए। उनका संपर्क नौगांव के ज़मींदार जगमोहन सिंह के मुंशी आनंद पांडे से हुआ और यहीं से उनके भीतर भारतीय धर्मशास्त्र, पुराणों और आध्यात्मिक विरासत का ज्ञान जागा। रामायण-महाभारत की कथाएँ सुनीं।
उन्होंने देखा कि विदेशी पादरी आदिवासियों को ग़रीब, पिछड़ा, अंधविश्वासी कहकर नीचा दिखाते हैं। बिरसा ने मुखर होकर कहा, “आप केवल धर्मोपदेशक नहीं, अंग्रेज़ी सरकार के साथी हैं! उनके अधर्म और अन्याय को छिपाते हैं। आपकी वाणी में दया है, पर आपकी नीति सत्ता और लालच की है।”
मिशनरी स्वाभाविक रूप से विचलित हुए। पर बिरसा ने यह भी स्वीकारा कि यदि विदेशी धर्म ने जगह बनाई है तो कहीं न कहीं हमने स्वयं अपने समाज में भी सुधार नहीं किया।
स्वतंत्रता का अधिकार तभी मिलेगा, जब समाज स्वयं अपनी कमियों से ऊपर उठेगा, यह समझ बिरसा में गहराई से जागी।
धीरे-धीरे मुंडा समाज में बिरसा का प्रभाव बढ़ता गया। चमत्कारी घटनाओं की कथाओं से आदिवासी उन्हें भगवान जैसा मानने लगे।
उन्होंने बिरसाई पंथ की स्थापना की। ईसाई प्रभाव के जवाब में यह पूरी तरह स्वदेशी, आत्मिक तथा अपनी संस्कृति पर आधारित पंथ था।
उन्होंने सिंग बोंगा—एक ईश्वर का सिद्धांत बताया। पशु-बलि पर रोक लगाई, नशामुक्ति का आंदोलन चलाया, घर-घर तुलसी रोपने का अभियान चलाया, ‘सिरना’ वन का एक भाग पवित्र भूमि घोषित करने का नियम बनाया, अकारण हिंसा न करना, यह भी उनका भारतीय सिद्धांत था। वह जड़ी-बूटियों से उपचार भी करते थे।
युवावस्था में बिरसा की लोकप्रियता भगवान जैसी हो गई थी। अँग्रेज़ों ने जब जंगलों को आरक्षित क्षेत्र बनाकर वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों पर क़ब्ज़ा किया, तब बिरसा ने क्रांति का बिगुल फूँका—उलगुलान।
ब्रिटिश सरकार ने उन्हें पागल घोषित कर गिरफ़्तार करने की कोशिश की।
लोकप्रियता बढ़ती गई और जाँच में शामिल डॉक्टर सिजर्स ने साफ़ कहा कि किसी को स्वयं को भगवान मानना पूर्वी सभ्यता में सामान्य है। इससे कोई पागल नहीं हो जाता। दोष बिरसा का नहीं, हमारी शासन-व्यवस्था का है, जो आदिवासियों के लिए अंधी, गूँगी और बहरी है। हम उनकी भाषा नहीं समझते और अंग्रेज़ी शासन के नाम पर उन्हें छलते हैं।
पहली बार अदालत ने उन्हें छोड़ा, पर फिर 19 नवंबर, 1895 को दो वर्ष की सज़ा दी गई। छूटकर बिरसा ने पुनः क्रांति शुरू की। 24 दिसंबर, 1899 को रांची-चाईबासा क्षेत्र में अँग्रेज़ अधिकारियों, मिशनरियों, पुलिस चौकियों पर तीरों की वर्षा कर दी गई। 7 जनवरी, 1900 को 20 बंदूकधारी सिपाहियों पर 50 तीरंदाज़ों ने गुरिल्ला हमला किया, जिसमें 2 अँग्रेज़ मारे गए। बदले की कार्रवाई में कई मुंडा मारे गए।
डोमबारी पर्वत पर 4,000 आदिवासी बिरसा की रक्षा में सीना तानकर खड़े रहे। सरकारी रिपोर्ट 7 मौतें बताती है, जाँच समिति 20, पर स्थानीय जनकथाओं के अनुसार, 400 से अधिक लोग मारे गए और वह पर्वत उनके रक्त से लाल हुआ।
दो महीने तक भटकते रहने के बाद बिरसा पकड़े गए और 9 जून, 1900 को, केवल 25 वर्ष की आयु में, रहस्यमय परिस्थितियों में जेल में उनका निधन हुआ।
मात्र पच्चीस वर्ष के जीवन में उन्होंने आदिवासी एकता की ज्वाला जगाई। अपनी संस्कृति में आत्मविश्वास भरा असहयोग आंदोलन का सफल उदाहरण दिया। शिक्षा और जागरूकता की नई लहर उठाई। ब्रिटिश सरकार को भी भूमि सुधार क़ानून लाने पड़े, क्योंकि बिरसा मुंडा का संदेश स्पष्ट था कि शोषण रोकना है तो पहचान बचानी होगी। एकता ही शक्ति है। यह संदेश आज 150 वर्ष बाद भी उतना ही ताज़ा है।
वंदे मातरम् का जयगान-राष्ट्रचेतना का स्वर
बिरसा जहाँ जंगल से चलकर मठों और मिशनरियों के बीच संघर्ष का स्वर बने, वहीं नगर-नगर में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का गीत वंदे मातरम् स्वतंत्रता का उद्घोष बन गया।
गाने का पहला हिस्सा संस्कृत में लगभग साढ़े 150 वर्ष पहले लिखा गया और बाद का भाग बंगाली में, जो देवी दुर्गा की स्तुति जैसा है।
1882 में यह गीत बंकिमचंद्र की क्रांतिकारी उपन्यास आनंदमठ में शामिल हुआ।
इतना लोकप्रिय हुआ कि 2003 में सव्यसाची भट्टाचार्य ने इसकी पूरी बायोग्राफी लिख डाली—Biography of a Song. कांग्रेस उस समय भारत के अधिकारों और आंशिकपूर्ण स्वशासन के संघर्ष का सबसे बड़ा मंच थी। 1896 के कलकत्ता अधिवेशन में जब वंदे मातरम् गाया गया तो उसे संगीतबद्ध किसने किया था?
गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने। 1915 में मद्रास में महात्मा गाँधी की उपस्थिति में जब यह गूँजा तो उन्होंने इसे भारतमाता की लाजवाब स्तुति-कविता कहा और राष्ट्रीय गीत की मान्यता दी। फिर यह स्वदेशी आंदोलन का प्रमुख गीत बन गया
फ़ैक्ट्री मज़दूरों से लेकर गांव-कस्बों तक ब्रिटिश सत्ता का सामना करते हुए यह गीत गूँजता रहा। लेकिन 1930 के बाद मुस्लिम लीग में बैठे कुछ कट्टरपंथी नेताओं ने इसके ख़िलाफ़ मज़हबी आपत्तियाँ उठाईं।
हालाँकि इस्लाम बुतपरस्ती रोकता है, वतन-परस्ती नहीं।
अनेक मुस्लिम क्रांतिकारियों ने इसे पूरे गर्व से गाया। पर अलगाववादी राजनीति ने बाद में इसे विवादित बनाने की कोशिश की। 1937 में पंडित नेहरू ने गीत के केवल दो पद स्वीकार किए, क्योंकि पूरा गीत लंबा था और बाद के हिस्से में देवीस्तुति के स्वर अधिक थे। स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने भी यही मान्यता दी। जन गण मन-राष्ट्रगान (विजय का गीत) वंदे मातरम्-राष्ट्रगीत (संघर्ष का गीत) और यह विवाद नहीं, गर्व का विषय बना रहे, यही भाव सबका रहा।
एक बड़ी ग़लतफ़हमी फैलाई जाती है कि ‘जन गण मन’ किसी ब्रिटिश राजा के स्वागत में लिखा गया था।
टैगोर ने स्वयं पीबी सेन को लिखे पत्र में यह भ्रांति तोड़ी कि जन गण मन का ‘भारत भाग्य विधाता’ कोई राजा नहीं। यह भारत की आध्यात्मिक नियति है, भारत की सामूहिक चेतना है, जो हर संघर्ष के बीच अपनी आत्मा को बनाए रखकर आगे बढ़ती है। यही हमारी आध्यात्मिक विजय का प्रतीक है।
बिरसा मुंडा का उलगुलान और बंकिमचंद्र का वंदे मातरम्, दोनों भारत की आत्मा के दो दीपस्तंभ हैं—एक ने जंगलों में पहचान, स्वाभिमान और स्वतंत्रता की लौ जलाई, दूसरे ने नगर-नगर में मातृभूमि के प्रति समर्पण जगाया और आज 150 वर्ष बाद भी, ये दोनों ज्वालाएँ हमारे राष्ट्रचेतना के आकाश में वैसे ही दमक रही हैं।
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