सिक्योरिटी गार्ड
कथा साहित्य | कहानी वीरेन्द्र बहादुर सिंह1 Nov 2025 (अंक: 287, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
“बदलते ज़माने की तासीर है . . . मैंने तो बहुत दुनिया देखी है।” बूढ़े अंकल यह बात अक्सर कहा करते थे।
वह कहते, “तुम लोग नहीं मानोगे . . . कोई नहीं मानेगा। मेरे पैर कभी फ़र्श पर नहीं पड़े थे, सिर्फ़ संगमरमर पर चलते थे। नंगे पाँव में जब काँटे और पत्थर चुभे, तब लुट जाने के बाद इन हाथों से झाड़ू उठाना पड़ा।”
सुबह की धुँधली रोशनी में जब सब सो रहे होते थे, बूढ़े अंकल अपने छोटे-से सोने के कोने में, बिल्डिंग की सीढ़ियों की नीचे की जगह को सँवारने लगते थे। सब्ज़ियों के छिलके कौओं के लिए फेंकते, झाड़ू से धूल झाड़ते, अपने एकमात्र मैले-कुचैले कंबल को झाड़ कर उसमें से मच्छर उड़ाते। फिर थके घुटनों और डोलती चाल के साथ चौथे माले की ओर सीढ़ियाँ चढ़ने लगते। हर सीढ़ी उन्हें और ऊँची लगती थी। ऊपर पहुँच कर वह अपनी गठरी बाँधते। उनका दुर्बल शरीर मानो किसी भी दिशा से एक जैसा लगता था।
बूढ़े अंकल की आवाज़ अब भी भारी थी, कर्कश, फटी हुई, लेकिन दर्द से भरी। उनकी हर कहानी दंगे के दिनों से शुरू होती, जब वह इस हालत में आए, अपना सब कुछ खो कर।
पत्नी, एक बेटा, एक बेटी, दो मंज़िला कोठी, जिसकी ऊपरी मंज़िल पर वह परिवार के साथ रहते थे। चाँदनी चौक की साड़ियों की बहुत बड़ी दुकान, सब कुछ हाथ से निकल गया था।
कभी-कभी पूरी बिल्डिंग को दंगे से पहले की अपनी कहानी सुनाते हुए कहते कि उनका जीवन कितना सुखी था। छोटे भाई के साथ कारोबार था। बढ़िया दो मंज़िला कोठी थी। गाड़ी थी। कोठी में नीचे छोटे भाई का परिवार रहता था। ऊपर की मंज़िल में उनका परिवार रहता था।
उस रात ञब दंगाइयों ने हमला बोला तो छोटे भाई का परिवार नीचे होने की वजह से भाग गया था। उनका परिवार नीचे उतर पाता, उसके पहले ही दंगाइयों ने कोठी में आग लगा दी थी। जिसमें केवल वही बचे थे। जान तो बच गई थी, पर सदमे में अर्धविक्षिप्त हो गए थे। भाई ने कोठी और कारोबार पर क़ब्ज़ा कर लिया था। उसने वह कोठी बेच कर दूसरी जगह मकान बनवा लिया था। कभी वह अपनी दुकान पर जाते तो उन्हें खाना खिला कर भगा देता था। उनकी कोई सुनने वाला नहीं था। भाई के मुँह मोड़ लेने के बाद उनका अब इस दुनिया में था ही कौन? रिश्तेदार भी भाई के पक्ष में हो गए थे। इस हालत में वह भटकते हुए इस बिल्डिंग में आए तो फिर यहीं के होकर रह गए।
पास से गुज़रने वाले पुरुष मुस्कुरा देते तो बच्चे हँसते।
“बूढ़े अंकल कल ही तो आपने कहा था कि आप के पास सब कुछ था, आज कह रहे हो कि सब जल गया।”
वह जवाब देते, “अगर मानना है तो मान लो बेटा। न मानना हो तो मत मानो। मेरे ऊपर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।”
उनकी कहानियों के कितने ही रूप होते, पर हर रूप में सच्चाई की झलक होती थी। दंगे के बाद की पीड़ा का धुँधलका उनके हर वाक्य में झलकता था।
बूढ़े अंकल उस इमारत के सिक्योरिटी गार्ड थे यानी चौकीदार और सफ़ाई वाले भी। दिन भर वह दालान, सीढ़ियाँ, गेट सब चमका कर रखते थे। कोई फेरीवाला या अजनबी दिखाई देता तो उसकी ख़बर रखते। बच्चे मज़ाक़ में कहते, “नाम बूढ़े अंकल है मेरा, सबकी ख़बर रखता हूँ।”
ग़ुस्से में दी गई उनकी डाँट भी हँसी में उड़ा दी जाती थी। सीढ़ियों के नीचे लोहे की जाली उनका आशियाना थी। वहाँ वह झाड़ू, डिब्बा, बाल्टी और अपने पुराने कंबल के साथ रहते थे। रात में गेट बंद होते ही वह वहीं बैठ जाते सिक्योरिटी गार्ड की तरह। बूढ़े अंकल के काम में कोई कमी नहीं थी। लेकिन कभी-कभी जब कोई निवासी दया दिखाता, “बूढ़े अंकल, इतनी पुरानी गुदड़ी में कैसे सोते हो? मैं पुराना गद्दा दे दूँ?”
तब वह तुरंत कहते, “नहीं रे, नहीं चाहिए। मेरी गुदड़ी किसी की गंदी चादर से बेहतर है। अरे, कहाँ वह रेशमी तकिया, कहाँ यह गंदा फ़र्श . . . तुम नहीं मानोगे।”
मिसेज दलाल को उनसे सच्चा अपनापन था। वह कभी-कभी खाना देतीं, साबुन या तेल ला कर देतीं। बदले में बूढ़े अंकल उनके घर का छोटा-मोटा काम कर देते।
एक दिन मिसेज दलाल ने कहा, “बूढ़े अंकल, सर्दियाँ आ रही हैं। इस दिवाली पर एक रजाई दे दूँगी।”
बूढ़े अंकल मुस्कुराए, “तुम नहीं मानोगी, कोई नहीं मानेगा, पहले मैं ग़रीबों को अपने हाथ से कंबल बाँटा करता था।”
वक़्त बीतता गया। इमारत के मिस्टर दलाल को प्रमोशन मिला। उन्होंने नया सिंक और नल लगवाया। बूढ़े अंकल ने ही उसका उद्घाटन किया। सब ने उनकी सफ़ाई की तारीफ़ की। वह बोले, “अरे, मैं तो गुलाबजल और इत्र से नहाता था कभी। तुम नहीं मानोगे।”
धीरे-धीरे इमारत में प्रतिस्पर्धा बढ़ने लगी। किस के घर ज़्यादा आधुनिक हैं, किसकी सजावट बेहतर है।
मिस्टर दलाल छुट्टियों पर शिमला चले गए। जाते हुए बोले, “बूढ़े अंकल, घर का ध्यान रखना। तुम्हारे लिए एक स्वेटर लाएँगे।”
बूढ़े अंकल ने गेट से हाथ हिला कर उन्हें विदा दी। उनके जाते ही सब ने घरों में काम शुरू करवा दिए, रंगाई, पालिश, मरम्मत। अब दिन-रात शोर, धूल और लोगों की आवाज़ाही से बूढ़े अंकल परेशान रहने लगे। वह अपने कोने से दूर छत पर सोने लगे। फिर एक दिन उनकी जमा-पूँजी, जो उन्होंने सालों में बचाई थी, एक लड़का छीन कर भाग गया।
उन्होंने दौड़ने की कोशिश की, मगर घुटने जवाब दे गए। रोते, हाँफते वह वापस लौटे तो फ़्लैट के लोग उन पर ही चिल्ला रहे थे। दालान से नया सिंक चोरी हो गया था। किसी ने आरोप लगाया, “यही बूढ़ा चोर है। इसी ने चोरों को ख़बर दी होगी।”
बूढ़े अंकल काँपती आवाज़ में बोले, “मैंने कुछ नहीं किया . . . मैं ख़ुद लुटा हूँ, दो-दो बार . . . पहले ज़िन्दगी में, अब यहाँ।”
किसी ने उनकी नहीं सुनी। किसी ने उनकी गुदड़ी और बाल्टी बाहर फेंक दी। गेट बंद कर दिया गया। बूढ़े अंकल बाहर खड़े झाड़ू देखते रहे, वही उनका आख़िरी साथी था।
आँखों में आँसू, होंठों पर आख़िरी शब्द, “माना मेरा, मैं ख़ानदान वाला हूँ . . . मैं चोर नहीं हूँ . . .”
गेट की जाली बंद हो गई। बूढ़े अंकल की परछाईं धीरे-धीरे गलियों में विलीन हो गई। सिर्फ़ उनका सिर हिलता रहा, बाक़ी सब स्थिर था।
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