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पेले और पालेकर: ‘गोल’ माल 

दिसंबर के अंतिम सप्ताह में, फ़ुटबाल के खेल में दंतकथा स्वरूप ब्राज़िलियन फ़ुटबालर एडिसन अर्राटेस डो नासमेंटो उर्फ़ पेले का अवसान हुआ। उस समय सोशल मीडिया पर उनके प्रशंसकों ने अमोल पालेकर की फ़िल्म ‘गोलमाल’ की क्लिप खोल निकाली थी, जिसमें पेले की लोकप्रियता को बहुत अच्छी तरह दर्ज कराया गया था। ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित यह फ़िल्म 1779 में आई थी। इसके दो साल पहले ही 1977 में पेले ने भारत का दौरा किया था। इसके सात साल पहले 1970 में पेले ने ब्राज़ील की ओर से संपूर्ण तीसरा फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप जीता था। बस, तभी पेले की ख्याति समुद्र पार तक फैल गई थी। 

कोलकाता का मोहन बाग़ान फ़ुटबाल क्लब प्रोफ़ेशनल मैच कराता था और सन् 77 में उसने ईडेन गार्डन में एक फ़्रेंडली मैच रखा था, जिसमें पेले को बुलाया गया था। फ़ुटबाल के हीरो के रूप में पेले भारत, जापान और चीन की यात्रा पर थे। भारत में फ़ुटबाल के प्रशंसकों ने पेले के बारे में ख़ूब सुना था, पर उन्हें रूबरू नहीं देखा था। उस दिन कोलकाता के डमडम एयरपोर्ट और सेंट्रल कोलकाता स्थित उनके होटल पर लाखों को संख्या में उनके प्रशंसक उमड़ पड़े थे। 80 हज़ार की क्षमता वाला इडेन गार्डन 37 वर्षीय पेले की कप्तानी वाली उनकी टीम का खेल देखने के लिए खचाखच भरा था।  

भारत के अख़बारों के स्पोटर्स पेज पेले की लोकप्रियता के गवाही थे। मुंबई में उस समय पारिवारिक मनोरंजन के लिए फ़िल्मों के लिए मशहूर ऋषिकेश मुखर्जी ‘गोलमाल’ फ़िल्म पर काम कर रहे थे। ऋषि दा ख़ुद बंगाली थे। फ़िल्म के पटकथा लेखक सचिन भौमिक भी बंगाली अख़बार में व्यंग्य लेखक थे। फ़िल्म में जिनकी भूमिका अहम थी, वह उत्पल दत्त अनेक बंगाली फ़िल्मों और नाटकों में काम करने के बाद हिंदी फ़िल्मों में आए थे। बाक़ी कुछ भी हो, ‘गोलमाल’ फ़िल्म की प्रेरणा ‘कांचा मीठा’ नाम की बंगाली फ़िल्म थी, जिसमें फ़िल्म का हीरो एक झूठ छुपाने के लिए झूठ का सिलसिला रचता है। कोलकाता में पेले ने जो जादू किया था, उसे फ़िल्म में जोड़ने का विचार इस बंगाली कनेक्शन के कारण ही आया था। 

‘गोलमाल’ में एक ऐसे युवक की कहानी थी, जो नौकरी पाने की लालच में कंपनी के रूढ़िवादी मालिक को ख़ुश करने के लिए अनोखा पैंतरा रचता है। रामप्रसाद दशरथप्रसाद शर्मा (अमोल पालेकर) सीए कर के आए थे। उर्मिला ट्रेडर्स नाम की कंपनी में नौकरी के लिए आवेदन किया था। उसके मालिक भवानी शंकर (उत्पल दत्त) शुद्धतावादी और परंपरागत मूल्यों को मानने वाले थे। वह पैंट-शर्ट पहन कर मौज-शौक करने वाले युवकों को पसंद नहीं करते थे। उन्हें खेल से काफ़ी नफ़रत थी। इसे वह समय की बरबादी मानते थे। भवानी शंकर की दूसरी भी एक विचित्र मानसिकता थी। वह बिना मूँछ वाले युवकों से भी नफ़रत करते थे। उनका मानना था कि बिना मूँछ के लड़के चरित्रहीन होते हैं। 

रामप्रसाद शर्मा में वे सभी अवगुण थे, जिनसे भवानी शंकर नफ़रत करते थे। रामप्रसाद नौकरी के लिए इतना बेचैन था कि वह वेशभूषा बदल कर परंपरागत भारतीय युवक बन कर इंटरव्यू देने जाता है। इंटरव्यू में भवानी शंकर अलग-अलग तरह से रामप्रसाद में ‘नए ज़माने के अवगुण’ हैं कि नहीं, इसकी जाँच करते हैं। इसमें भवानी शंकर रामप्रसाद से साफ़ कह देते हैं कि वह काम से इतर स्पोर्ट्स जैसे फ़ालतू मामलों में रुचि रखने वाले लोगों से सख़्त नफ़रत करते हैं। ऋषि दा और सचिन भौमिक ने कोलकाता में पेले का जो जादू देखा था, उसमें यह दृश्य जोड़ा था। 

रामप्रसाद के आने के पहले एक लड़का इंटरव्यू दे गया था। उसने भवानी शंकर पर अपना प्रभाव जमाने के लिए कहा था, “सर, मेरे अंकल को तो आप जानते ही होंगे। अब वह फ़ुटबाल के मशहूर कोच हो गए हैं। जब ब्लैक पर्ल यहाँ आया था न, तब मोहन बाग़ान की टीम उन्होंने ही चुनी थी। जैसे रवीन्द्रनाथ को गुरुदेव, गाँधी जी को महात्मा या बापू कहते हैं न सर, उसी तरह पेले को ब्लैक पर्ल कहते हैं।”

भवानी शंकर इस पूरे इंटरव्यू के दौरान नाक-भौं चढ़ाते रहते हैं। इसके बाद रामप्रसाद का नंबर आता है। भवानी शंकर शुरूआत सब से पहले रामप्रसाद को स्पोर्ट्स में रुचि है या नहीं, इसकी जाँच करते हैं। वह ब्लैक पर्ल का नाम ले कर गुगली सवाल फेंकते हैं, “ब्लैक पर्ल के बारे में तुम्हारा क्या ख़्याल है?” रामप्रसाद निर्दोष चेहरा बना कर कहता है, “मुझे तो यह पता ही नहीं है कि मोती काला भी होता है। मैं तो यह समझता था कि मोती श्वेत वर्ण ही होता है।”

भवानी शंकर अपनी ‘गेंदबाज़ी’ जारी रखते हुए कहते हैं कि वह मशहूर फ़ुटबालर पेले की बात कर रहे हैं, तब भवानी शंकर को पट्टी पढ़ाने का निर्णय कर के आया रामप्रसाद ‘महाराष्ट्र के आदिवासियों की प्रति व्यक्ति आय’ पर प्रोफ़ेसर रेले की थिसिस की प्रशंसा करने लगता है। ज़माने का अनुभव कर चुके भवानी शंकर तीसरी बार फ़ुटबालर पेले पर ज़ोर देते हैं तो अब तक उन्हें ठीक से पहचान चुका रामप्रसाद मुँह बिचका कर कहता है, “कुछ दिनों पहले समाचार पत्र में अवश्य पढ़ा था कि कोलकाता में 30-40 हज़ार पागल उनका दर्शन करने डमडम एयरपोर्ट पर पहुँच गए थे।”

रामप्रसाद इस तीसरी परीक्षा में पास हो जाता है और भवानी शंकर को विश्वास दिला देता है कि उसे न ब्लैक पर्ल के बारे में कुछ पता है और न ही फ़ुटबाल से ज़रा प्रेम है। भवानी शंकर को अपने ऑफ़िस के लिए आदर्श ‘राम’ मिल जाता है और 850 रुपए महीने के वेतन पर रामप्रसाद को नौकरी पर रख लेते हैं। गोल स्कोरर पेले को ‘गोलमाल’ फ़िल्म के बारे में पता था या नहीं, यह तो पता नहीं, पर अपने कैरियर के दौरान वह लगभग दर्जन भर फ़िल्मों में दिखाई दिए थे। 

ऋषिकेश मुखर्जी की चली होती तो वह पेले को ‘गोलमाल’ फ़िल्म में ले आए होते। पर उन्होंने पेले के उल्लेख मात्र से काम चला लिया था। अमोल पालेकर की छाप हमेशा साधारण मनुष्य के हीरो की रही है और गोलमाल फ़िल्म में उन्होंने रामप्रसाद उसी तरह लक्ष्मणप्रसाद की भूमिका लाजवाब की थी। इसमें उन्हें उत्पल दत्त का ज़बरदस्त साथ मिला था। हिंदी फ़िल्मों में हीरो और हीरोइन की केमिस्ट्री के बारे में बहुत लिखा गया है, पर ‘गोलमाल’ में अमोल पालेकर और उत्पल दत्त की जुगलबंदी फिर देखने को नहीं मिली, इस तरह दुर्लभ थी। 

इसमें ज़रा भी आश्चर्य की बात नहीं कि उस साल बेस्ट एक्टर का फ़िल्मफेयर अवार्ड अमोल पालेकर और बेस्ट काॅमिक का फ़िल्मफेयर अवार्ड उत्पल दत्त के हिस्से में गया था। मज़े की बात यह है कि ऋषिकेश मुखर्जी के ही दो फ़ेवरेट सुपरस्टार राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन को पीछे छोड़ कर पालेकर ने यह अवार्ड जीता था। संयोग से ‘गोलमाल’ में अमिताभ बच्चन का गेस्ट रोल भी था। पालेकर और उनके दोस्त देवेन वर्मा कुरता-पायजामा लेने के लिए अमिताभ की फ़िल्म के सेट पर जाते हैं। इनफ़ैक्ट फ़िल्म का वह सेट ऋषिकेश मुखर्जी की ही एक फ़िल्म ‘जुर्माना’ का था, जिसमें हीरो अमिताभ बच्चन थे। 

डबल रोल की बात तब हैरान करने वाली नहीं थी। अभिनेताओं ने इस तरह के रोल बड़ी अच्छी तरह निभाए थे। जबकि उन कहानियों में एक तरह दिखाई देने वाले दो अलग पात्रों की भूमिकाएँ की थीं। पर पालेकर के मामले में चुनौती यह थी कि एक ही पात्र को अलग-अलग तरह से पेश करना था। एक रामप्रसाद बिना मूँछों के कुरता-पायजामा में है और दूसरा रामप्रसाद रंगीन पैंट-शर्ट और गोगल्स में हॉकी का प्रेमी है। केवल मूँछ लगा कर कोई आदमी अपना पूरा व्यक्तित्व बदल डाले, यह केवल पालेकर ही कर सकते थे। ‘गोलमाल’ आज भी हिंदी सिनेमा की बेहतरीन काॅमेडी फ़िल्मों सब से ऊपर है। मौक़ा मिले तो ज़रूर देखिएगा। 

गोल-माल फ़िल्म

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