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महाशिवरात्रि और शिवजी का प्रसाद भाँग

 

‘खइ के पान बनारस वाला, खुल जाए बंद अक़्ल का ताला . . .’ चार दशक पूर्व फ़िल्म ‘डाॅन’ में अमिताभ बच्चन का गाया यह गाना बहुत लोकप्रिय हुआ था। पान के रसिया उत्तर भारतीय लोगों के लिए तो यह गाना एक तरह से लोकगीत बन गया था। इस गाने की शुरूआत के शब्द हैं—‘भंग का रंग जमा हो चकाचक . . .’
यहाँ बात भाँग की हो रही है। महा शिवरात्रि के आते ही भाँग के रसिया गेल में आ जाते हैं। पूरे साल चाय की प्याली को ही पेय मान कर पीने वाले सीधे सरल लोग भी महा शिवरात्रि पर शिवजी का प्रसाद मान कर एकाध गिलास भाँग का शरबत तो पी ही लेते हैं। वह गाना तो याद ही होगा:

“मैं ने शंकर का रूप निराला देखा . . .
जटा में गंगा, हाथ में भाँग का प्याला देखा . . .”

जिन्हें भाँग पीना अच्छा लगता है, वे बिना शंकरजी का नाम जोड़े भाँग पीते ही नहीं हैं। शिवजी भाँग पी कर मस्त रहते थे, तांडव नृत्य करते थे, इस तरह की बातें कर के शिवभक्त भी मस्ती के लिए भाँग का सेवन करते हैं। शिवरात्रि के दिन भक्त मंदिर जाते हैं और दर्शन कर के भाँग का प्रसाद लेते हैं। यह प्रसाद यानी छनी हुई भाँग।

चोरी-छुपे जो भाँग बिकती है, वह शुद्ध होती नहीं। शिवरात्रि को पूरे देश में लाखों लीटर भाँग शिवजी के प्रसाद के रूप में पी ली जाती है। देश के कुछ राज्यों में क़ानूनी रूप से सरकार ने भाँग पर प्रतिबंध लगा रखा है। इसलिए कोई भी वैद्य-हकीम भाँग का उपयोग कर के बनी दवा किसी अनजान को नहीं देता। परन्तु आयुर्वेद में भाँग के तमाम गुण बताए गए हैं। भाँग और शराब के बीच अंतर यह है कि शराब का व्यसन शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से उसके व्यसनी को भारी नुक़्सान पहुँचाता है। अवगुण भाँग में भी हैं, पर अतिरेक करने पर भी इससे बहुत ज़्यादा नुक़्सान नहीं होता। फिर भी अगर भाँग का उपयोग ज़रूरी हो तो इसका उपयोग औषधि के रूप में करना चाहिए, व्यसन के रूप में नहीं।

पाचनतंत्र को सुधारने के लिए भी भाँग का उपयोग किया जाता है और किसी भी तरह के पीड़ा-शमन के लिए भी। जबकि औषधि के लिए उपयोग में ली जाने वाली भाँग का शुद्धिकरण करना पड़ता है। इसके लिए भाँग के पत्ते को गाय के दूध में उबाल कर साफ़ पानी में धो कर सुखा लेना चाहिए। इस सुखाए पत्ते को गाय के घी में भून कर तब दवा के रूप में उपयोग में लाया जाता है।

भाँग के पेड़ का पत्ता और बीज दोनों का दवा के रूप में उपयोग होता है। ऊष्ण होने से दोनों ही वातहर और कफहर हैं, पर पित्तवर्धक हैं। वातहर होने से पीड़ा कम करते हैं।

टिटनेस या कुत्ते के काटने पर शरीर में खिंचाव होने पर भाँग से आराम मिलता है। भाँग का धुआँ देने पर मिर्गी में राहत मिलती है, रोगी सो जाता है। दर्द से परेशान रोगी को ज़्यादा मात्रा में भाँग देने पर आराम मिलता है। इससे दर्द ठीक नहीं होता, पर व्यक्ति को पीड़ा का अहसास नहीं होता। अपने यहाँ 99 प्रतिशत लोग केवल महा शिवरात्रि को शिवजी का प्रसाद मान कर भाँग पीते हैं।

महा शिवरात्रि को मंदिरों में या उसके आसपास भाँग का शरबत मिलता है। उत्तर प्रदेश की जो प्रथा आज पूरे देश में फैल चुकी है ठंडाई, लिज्जतदार भाँग का शरबत, जिसमें भाँग का असर ज़्यादा नहीं होता, लोग प्रसाद के रूप में पिलाते भी हैं।

ठंडाई एक सुमधुर रसीला पेय है, जो बनारस में अनेक रेस्टोरेंट या फ़ास्टफ़ूड या चाय-पान की दुकानों या मिठाई की दुकानों पर मिलता है। गर्मियों में ठंडाई का ख़ूब उपयोग होता है। भाँग को सिल पर ख़ूब रगड़ कर पीसा जाता है, इसके बाद दूध और शक्कर, सौंफ़, इलायची, केसर, बादाम आदि मिला कर शरबत बनाया जाता है। इसमें ‘रोज़’ (गुलाब) का शरबत भी मिलाया जा सकता है। इस तरह तैयार मिश्रण को ठंडाई कहते हैं। भाँग-ठंडाई बनाने की मुख्य क्रिया भाँग को पीसने की है। इसके बाद तैयार भाँग और मसाले की लुगदी को कपड़े से छाना जाता है। इसे बनाने वाला आदमी शरीर हिलाते हुए गुनगुनाता रहता है:

“छान छान किसी की न मान,
जब चली जाएगी जान,
तो कौन कहेगा छान
जय शंकर की, जय भोलेनाथ की।”

ठंडाई के शौक़ीनों को अमुक बात का ध्यान रखना चाहिए। अगर ठंडाई में भाँग ले रहे हैं तो कभी ख़ाली पेट न लें। इसे पीने के पहले कुछ खाना ज़रूरी है।

भाँग का मूल वतन चीन है। चीन से यह वनस्पति हिमालय की तलहटी में आई। आज भी भाँग के पौधे सब से अधिक उत्तर भारत में उगते हैं। इसके पेड़ को काट कर किसी चीज़ से दबा दिया जाता है। जिससे वह सड़ जाता है। इसके बाद उसे निकाल कर बीज बाहर कर के उपयोग में लाया जाता है।

संस्कृत में भाँग के लिए भंग मदिनी, संविदा, जया, गंजा, मातलाज और विजया नाम है। वनस्पतिशास्त्र में भाँग केनेबीस सटिवा के रूप में जानी जाती है। इसके पत्ते लंबे, धारीवाले, हरे और किनारे आरी की तरह होते हैं। नर पेड़ का उपयोग भाँग के रूप में होता है, जबकि मादा पेड़ के हरे पत्ते में हरे भूरे रंग की मिलने वाली लार से चरस बनता है और गाँजा भी इसी मादा पौधे से बनता है। गाँजा से माजम और भुरकी नाम के दूसरे दो मादक पदार्थ बनते हैं। औषधि के रूप में इसके पत्ते और बीज का उपयोग होता है।

आयुर्वेदाचार्यों ने भाँग का औषधि के रूप में उपयोग देर में शुरू किया है। क्योंकि चरक और सुश्रुत ने इसका उल्लेख नहीं किया है। फिर भी लगभग एक हज़ार साल से भाँग का उपयोग औषधि के रूप में हो रहा है। यह राजनिघंटु के कर्ता पंडित नरसिंह द्वारा किए वर्णन से पता चलता है। उन्होंने विजया को ऊष्ण, ग्राही कफघ्न, वातघ्न, वाचाल बनाने वाली, बल, बुद्धि और वीर्य बढ़ाने वाली तथा बहू दीपन (भूख बढ़ाने वाली) कहा है। मेडिकल साइंस के अनुसार स्नायुओं को शिथिल कर निद्रा लाती है तथा पीड़ा का शमन करती है। पूरे दिन मेहनत करने वाला मज़दूर थोड़ी भाँग पी कर दस से पंद्रह घंटे लगातार सो सकता है। कुछ घटनाओं में भाँग के नशे में लोग 30 घंटे तक सोते रहे हैं।

भाँग सेक्स वर्धक है और मंदाग्नि को दूर करने वाली भी है। झाड़ा-अतिसार पर तुरंत क़ाबू पाती है। भाँग पीने से भूख बहुत लगती है। भाँग एक तरह एंटीसेप्टिक गुण वाली होती है। घाव हो, सूखता न हो, हड्डियों के जोड़ में दर्द हो, ये तकलीफ़ें भाँग के सेवन से दूर होती हैं। एक वैद्यराज के अनुसार भाँग के सूखे पत्ते का मसा फिस्चर (भगंदर) के स्थान पर गरम सेक करने से राहत मिलती है। वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या बढ़ाने के लिए कुछ वैद्य भाँग का चूर्ण बनाते थे। इसी तरह क्षयरोग, दमा, शरदी, खाँसी की हमेशा के लिए शिकायत दूर करने के लिए उन्हें भाँग का चूर्ण दिया जाता था। दवा के लिए भाँग का उपयोग करने के लिए वैद्य रोगी को भाँग की एक गोली के साथ एक गिलास गरम दूध पीने के लिए कहते थे।

भाँग मादक है यह नहीं भूलना चाहिए। इसका असर व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार होता है। शरीर में उत्तेजना की लहर फैलाने वाली भाँग शुरूआत में ख़ूब आनंद देती है। पर जब इसकी आदत पड़ने लगती है तो इसका मनोरंजक असर कम होने लगता है और गंभीर बुरा असर होने लगता है।

कुछ नशेड़ी भाँग का उपयोग धूम्रपान के लिए करते हैं। इससे नशे का असर तेज़ी से और ज़्यादा होता है। जबकि शरबत के रूप में लेने से इसका असर धीरे-धीरे और कम होता है।

भाँग पीने से शुरू में ख़ूब भूख लगती है, पर आगे चल कर यह क्रम उलटा हो जाता है। भूख मर जाती है। शरीर में स्फूर्ति आने के बजाय थकान लगने लगती है। शरीर सूखता जाता है। जिस भाँग का डोज़ लेने से कामेच्छा ख़ूब प्रबल होती लगती थी, उसी भाँग को नियमित लेने से कामेच्छा मरने लगती है। कामेच्छा बढ़ती होने से आदमी रोज़ाना भाँग पीने लगे तो इसका ख़राब परिणाम आता है। शरीर के जो स्नायु शुरूआत में उत्तेजित होते लगते थे, उत्साहित होते लगते थे, बाद में काँपते से लगते हैं। हमेशा एक तरह झपझनाहट सी महसूस होती है।

एक मशहूर न्यूरोलोजिस्ट के अनुसार भाँग में टेट्रा हाइड्रोकेनाविनोल नाम का ऐक्टिव एजेंट होता है, यह तत्त्व ख़ून में मिल कर दिमाग़ के न्यूरोसेंस को शिथिल बनाता है। इसीलिए भाँग का नशा करने वाला व्यक्ति बावरा बन जाता है। उसका चित्त भ्रमित हो जाता है। स्थिर वस्तु हिलतीडुलती लगती है और चलती फिरती वस्तु स्थिर लगती है।

भाँग पीने वाला व्यक्ति पागल और जुनूनी क्यों हो जाता है, यह भी जानने जैसा है। भाँग के नशे की वजह से दिमाग़ की संदेश विनिमय करने वाली शक्ति कुंठित हो जाती है, जिससे व्यक्ति के अस्तित्व या नज़र के सामने न हो, वह भी दिखाई देता है, सुनाई देता है। इससे व्यक्ति भ्रमित हो कर बावरा बन कर सामना करने के लिए प्रेरित होता है।

हमारे देश में कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश में भाँग ख़ूब पैदा होती है। उत्तर भारत में सभी जगह शिवरात्रि और होली में भाँग पीने का रिवाज़ है। खसखस, बादाम, केसर, शक्कर, सौंफ़ और गुलाब की सूखी पंखुड़ियाँ, कालीमिर्च और सोंठ मिला कर ख़ूब पीस कर मधुर पेय बनाया जाता है।

महाराष्ट्र और गुजरात सहित भारत के कुछ राज्यों में भाँग बेचने पर प्रतिबंध है। परन्तु उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भाँग खुलेआम बिकती है। मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में तो महाकालेश्वर मंदिर में भगवान शंकर को प्रसाद के रूप में रोज़ाना नैवेद्य चढ़ाया जाता है। यहीं के काल भैरव मंदिर में मूर्ति को मदिरा के साथ भाँग का पेय चढ़ाया जाता है।

केवल भाँग की गोली खाने में कड़वी लगती है। इससे भाँग के शौक़ीन उसमें मिठाई मिला कर खाते हैं। कहीं कहीं भाँग का पापड़ या भाँग की बर्फी या भाँग के बिस्कुट मिलते हैं। यहीं नहीं भाँग मिश्रित गुलकंद डाल कर पान भी बेचे जाते हैं। भाँग मिश्रित मुनक्का भी बनारस और प्रयागराज में ख़ूब बिकते हैं।

एक बात यह भी जान लेना ज़रूरी है कि भाँग और धतूरा दो अलग चीज़ें हैं। धतूरा से शरीर चल होता है, त्वचा लाल हो जाती है, लगता है शरीर सूज गया है। भाँग के बजाय धतूरा पीस दिया जाए तो मुश्किल हो सकती है। इसी तरह भाँग का नशा अधिक हो जाए तो नींबू पानी पीने और सिर पर ठंडा पानी डालने से आराम होता है।

अब तो अमेरिकी कंपनियाँ भी भाँग की लोकप्रियता का लाभ उठाना चाहती हैं। अमेरिकी कंपनी फ़र्म स्टार जे वैन रिक्सेल ने ‘भाँग द ओरिजनल केनेबिस चाकलेट‘ के पेटेंट के लिए आवेदन किया है।

भाँग पी कर जीवन में दो पल रंग जमाया जा सकता है। पर वह भी मर्यादा में हो तभी अच्छा लगता है। जबकि चरस, अफ़ीम, गाँजा, और शराब जैसे नशीले पदार्थों से भाँग अच्छी है। इस बात को एक उत्तर भारतीय वैद्य ने अच्छी तरह कहा है—शराब आदमी को बेशरम बनाती है, अफ़ीम आदी बनाती है, गाँजा धूनी बनाता है, चरसी को पागल, लेकिन भाँग आदमी की कल्पनाशक्ति को बढ़ाती है। उसे स्वर्ग के सुख का अनुभव कराता है। 
 

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टिप्पणियाँ

छोटु सिंह प्रजापत लाडनूं राजस्थान 2024/03/10 01:54 PM

शिव महिमा और भंग के फायदे बहुत सुंदर।

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