केतन मेहता और धीरूबेन की ‘भवनी भवाई’
आलेख | सिनेमा चर्चा वीरेन्द्र बहादुर सिंह1 Apr 2023 (अंक: 226, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
इसी 9 मार्च को 96 साल की धीरूबेन की मौत हो गई। केतन मेहता वैसे तो हिंदी फ़िल्मों: मिर्च मसाला, मि. योगी, (टीवी सीरियल), हीरो हीरालाल, माया मेमसाब, सरदार, मंगल पांडे, रंग रसिया के लिए जाने जाते हैं। परन्तु उनकी पहली फ़िल्म गुजराती में ‘भवनी भवाई’ थी।
अपने एक इंटरव्यू में मेहता ने कहा था, “गुजराती मेरी मातृभाषा है और मेरे पिताजी गुजराती के प्रोफ़ेसर थे। इसलिए उमाशंकर जोशी जैसे अनेक गुजराती साहित्यकारों के सहवास का लाभ मुझे मिला है। मैंने भी बाद में गुजराती साहित्य ख़ूब पढ़ा है। फ़िल्म संस्था से पास होने के बाद मैंने कुछ दिन अहमदाबाद के इसरो संचालित सेटेलाइट चैनल के लिए काम किया था। इसके लिए मुझे खेड़ा ज़िला में ख़ूब भटकना पड़ा था। मैं गाँव वालों के लिए कार्यक्रम बनाता था, इसलिए मुझे गाँव की समस्याओं के बारे में पता चला। ख़ास कर अछूतों की बातें मुझे परेशान करती थीं। उसी बीच मुझे ‘भवनी भवाई’ की कहानी मिली, जो अछूत के वेश के रूप में भवाई में अदा कर रही थी।”
बड़ौदा में पैदा हुई, मुंबई में पली-बढ़ी और मुंबई में ही पढ़-लिखकर अध्यापक बनी धीरूबेन को गुजरात के ग्रामीण इलाक़े में प्रचलित भवाई की लोककला को आधार बनाकर अस्पृश्यता और अंधविश्वास पर ‘भवनी भवाई’ नाटक लिखने का विचार कैसे आया होगा, उनका कोई बयान नहीं मिलता। परन्तु इसमें उन्होंने दलित और पिछड़े समाज के जो सवाल उठाए थे, वे ज्वलंत और यथार्थ थे।
इसीलिए केतन मेहता ने इस पर फ़िल्म बनाई थी, विवेचकों ने इसकी ख़ूब प्रशंसा की थी। इसे राष्ट्रीय पुरस्कारों में राष्ट्रीय एकता के लिए नरगिस दत्त पुरस्कार मिला था। इसे म्यूज़ियम ऑफ़ माडर्न आर्ट के फ़िल्म फ़ेस्टिवल में पसंद किया गया था और थ्री कांटिनेंट्स फ़ेस्टिवल में यूनेस्को क्लब ह्युमन राइट्स का पुरस्कार मिला था।
फ़िल्म को दिल्ली में आठवें फ़िल्म महोत्सव में दिखाया गया था। इसके अलावा इसे अमेरिका, कैनेडा, फ़्राँस, जर्मनी, हालैंड, चेकोस्लोवाकिया और इंग्लैंड में भी ख़ूब वाहवाही मिली थी। ‘भवनी भवाई’ को बाद में ‘अंधेर नगरी’ के नाम से हिंदी में डब किया गया था।
विद्यार्थी चटर्जी नाम के फ़िल्म विवेचक ने इस फ़िल्म को देखने के बाद लिखा था: ‘भवनी भवाई’ बनाने के बाद केतन मेहता रिटायर हो गए होते तो भी एक अग्रणी निर्देशक के रूप में वह याद किए जाते, इस तरह की उनकी इस फ़िल्म में ताक़त और प्रतिभा थी।
फ़िल्म का स्वरूप कहानी के स्वरूप के अनुसार था। हरिजनों का एक ग्रुप शहर में स्थानांतर कर रहा है। उसने एक रातवास के दौरान एक वृद्ध (ओम पुरी) हरिजन राजा चक्रसेन (नसिरुद्दीन शाह) की कहानी कहता है। उसकी दो रानियाँ हैं। उनमें से छोटी रानी (सुहासिनी मुले) अपने प्रेमी और मंत्री (बेंजामिन गिलानी) के साथ मिल कर बड़ी रानी के नवजात बेटे की हत्या का षडयंत्र रचती है। पर जिस सिपाही को यह काम सौंपा गया था, उसे दया आ जाती है और राजकुमार को वह लकड़ी की पेटी में रख कर वह उसे नदी में तैरा देता है।
वह पेटी माला भगत नाम के एक हरिजन के हाथ लगती है। वह और उसकी पत्नी धूड़ी (दीना पाठक) बच्चे को ‘जीवा’ (मोहन गोखले) नाम से बड़ा करते हैं। दूसरी ओर वारिस के लिए राज ज्योतिष के कहने पर राजा पानी का तालाब बनवाते हैं, पर उसमें पानी नहीं आता है। राज ज्योतिष को पता चल जाता है कि जीवा राजकुमार है। वह राजा से कहता है कि बत्तीस लक्षणा पुत्र की बलि चढ़ाने पर ही तालाब में पानी आएगा।
पूरे राज्य में ऐसा पुत्र केवल जीवा ही था। जीवा की खोज शुरू होती है। जीवा अपनी जान बचाने के लिए बनजारा जाति की अपनी प्रेमिका उजम (स्मिता पाटिल) के साथ भाग जाता है। छुपता-छुपाता वह राजा के पास समर्पण की शर्त रखता है कि ‘अगर राजा राज्य से अस्पृश्यता ख़त्म कर दे तो वह आत्मसमर्पण कर देगा, वरना वह आत्महत्या कर लेगा।’ राजा उसकी बात मान लेता है, परन्तु बलिदान के दिन वह जेल से भाग जाता है। जबकि अंतिम समय में राजा को पता चल जाता है कि जीवा उनका राजकुमार है, इसलिए वह बलिदान रोक देते हैं। उसी समय तालाब से पानी निकल आता है।
केतन मेहता ने प्रयोग कर के फ़िल्म के दो अंत रखे थे और दर्शकों पर यह छोड़ा था कि वह कौन सा अंत पसंद करते हैं। बलिदान रोक देने के साथ माला भगत कहानी पूरी कहता है, तभी दूसरा एक हरिजन वहाँ आकर कहता है, भगत ‘सुखद अंत’ सुना कर लोगों को भ्रमित करता है। वह कहता है कि असल में तो जीवा की बलि चढ़ती है, फिर भी पानी नहीं आता। पुत्र की मौत सहन न कर पाने वाली माता धूणी की भी मौत हो जाती है। बेटा और पत्नी दोनों को खोने वाला माला भगत राजा को शाप देकर तालाब में आत्महत्या कर लेता है। माला की मौत होते ही तालाब में पानी आ जाता है।
यह सच है को केतन मेहता की फ़िल्म से धीरूबेन को गुजरात से बाहर भी ख्याति मिली, पर जिस तरह रचनात्मक जुगलबंदी में होता है, उस तरह ‘भवनी भवाई’ के निर्माण के बाद धीरूबेन को आनंद के साथ आघात भी मिला था। 2019 में बीबीसी के इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि एक लेखक के हक़ के लिए मुझे लड़ाई करनी पड़ी थी।
उनकी बात से तो यही लगता है कि धीरूबेन ने इस फ़िल्म के लिए कहानी लिखी थी, पर उसमें उन्हें क्रेडिट नहीं दिया गया था। दोनों के बीच क्या तय हुआ था, यह तो पता नहीं, पर फ़िल्म में लेखक और गीतकार के रूप में धीरूबेन का नाम है। जबकि स्क्रिप्ट में केतन मेहता का नाम है। नीचे की बात से यही लगता है कि यह स्क्रिप्ट किताब के रूप में भी प्रकाशित हुई होगी, उसमें धीरूबेन का नाम नहीं होगा।
‘भवनी भवाई’ पुस्तक की प्रतावना में धीरूबेन ने लिखा है कि “मुझे पता नहीं था कि लेखक का ‘भवनी भवाई’ होना है। 22 अक्टूबर, 1987 को सुबह मित्र सुरेश दलाल का फोन आया कि धीरूबेन स्ट्रेंड बुक स्टोर में तुम्हारी पुस्तक देखी, पर ख़ूबी की बात यह है कि उसमें कहीं तुम्हारा नाम नहीं है। मुझे अत्यंत आश्चर्य हुआ . . . फ़िल्म—केतन मेहता, स्क्रिप्ट का पुनर्निर्माण और अनुवाद—शंपा बनर्जी। 23 नवंबर, 1987 को केतन मेहता मिलने आए। कहा कि मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। राॅयल्टी भी आप ले लो और लेखक के रूप में आप का नाम भी डलवा देता हूँ। पंद्रह दिनों में काग़ज़ तो तैयार हो कर आ गया, पर राॅयल्टी और कॉपीराइट की बात अंदर से गुल। उस काग़ज़ का क्या मतलब? गुजराती लेखकों की आँख खोलने और कॉपीराइट के मामले में सजग करने के लिए यह पुस्तक प्रकाशित कर रही हूँ। यह अन्य के सामने मेरा अपने ढंग का प्रतिकार है।”
केतन मेहता
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