अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अनुराधा: कैसे दिन बीतें, कैसे बीती रतियाँ, पिया जाने न हाय . . . 

 

फ़्रैंच साहित्य में यथार्थवाद के प्रणेता माने जाने वाले गुस्ताव फ़्लोबर्ट (1821–1880) का 1956 में एक उपन्यास प्रकाशित हुआ था, ‘मैडम बोवरी’। यह उपन्यास मूल फ़्रैंच में लिखा गया था और कम से कम 19 बार अंग्रेज़ी में अनूदित किया गया था। ‘मैडम बोवरी’ उपन्यास 10 फ़िल्मों और टीवी सीरियल का प्रेरणा बना था। इसमें दो प्रसिद्ध हिंदी फ़िल्में भी थीं, जिनकी बात बाद में करेंगे। 

अंग्रेज़ी-फ़्रैंच साहित्य का सबसे उत्कृष्ट उपन्यास का जिसे ख़िताब मिला है, उस ‘मैडम बोवरी’ की इस लोकप्रियता का कारण उसकी नायिका एम्मा बोवरी और उसका विषयवस्तु था। एम्मा का जीवन के प्रति दृष्टिकोण अत्यंत रोमांटिक है और उसे सुंदर दिखने, ऐशो-आराम करने, उत्कट रूप से जीने और भद्र लोगों के बीच घूमने-फिरने की चाहत थी। 

उसका पति चार्ल्स देहाती था और गाँव में डाक्टरी करता था। उसे लोगों का इलाज करने के अलावा अन्य किसी चीज़ में रुचि नहीं थी। देखने में दोनों के बीच असमानता थी, पर चार्ल्स पत्नी के प्रति समर्पित था और उसके रंगरलिया करने के बावजूद उसे पत्नी में कोई कमी नज़र नहीं आती थी। 

रोमांटिक कल्पनाओं और जीवन की वास्तविकताओं के बीच असमानता में एम्मा फँस गई थी और एक बड़ी देनदारी में फँस कर अंत में आत्महत्या करती है। उसने मन से जिया और मन में आया इसलिए मर गई। गुस्ताव ने घरेलू जीवन जीने वाली एक कल्पनाशील स्त्री की एकविधता और जीवन में नवीनता के लिए उसकी भूख पर हताशा और निराशा पर एक मनोवैज्ञानिक कहानी लिखी थी। 

एम्मा एक ग़ैरपरंपरागत साहित्यिक पात्र थी। यह उसकी कामुकता थी या फिर भौतिक जीवन के प्रति असंतोष था, जो उसे असाधारण और विनाशक जीवन की ओर ले गया था। गुस्ताव द्वारा उठाए गए इस सवाल से तमाम फ़िल्म निर्माता ‘मैडम बोवरी’ की ओर आकर्षित हुए थे। जैसा ऊपर बताया है कि इस उपन्यास पर हिंदी में दो शानदार फ़िल्में बनी हैं। 

1960 में ऋषिकेश मुखर्जी ने इससे प्रेरित होकर ‘अनुराधा’ बनाई थी। 1993 में केतन मेहता ने इस पर ‘माया मेमसाब’ का निर्माण किया था। दोनों के बीच तात्विक फ़र्क़ यह था कि ऋषिकेश मुखर्जी ने ‘मैडम बोवरी’ का मात्र मूल प्लाट ही उठाया था। उनकी अनुराधा स्वच्छंद नहीं थी, पर वैवाहिक जीवन से ऊबी थी। केतन मेहता मैडम बोवरी के पूरी तरह वफ़ादार रहे थे। (यहाँ तक कि माया मेमसाब नाम भी मिलता जुलता था) और उनकी माया को व्यभिचारी एम्मा की अपेक्षा एक क़दम आगे ले जा कर भ्रमित (सादी भाषा में पागल) जीवित दिखाया था। 

‘माया मेमसाब’ दूसरे दो कारणों से भी चर्चा में रही थी। एक तो इस में एम्मा (माया) की भूमिका मेहता की पत्नी दीपा शाही ने की थी और दूसरी उसके प्रेमी की भूमिका शाहरुख खान ने की थी। ‘माया मेमसाब’ एकमात्र फ़िल्म है, जिसमें खान ने बोल्ड बेडरूम सीन किया था। अब आइए ऋषिकेश की ‘अनुराधा’ की बात करते हैं। ‘माया मेमसाब’ की बात आगे करेंगे। 

‘अनुराधा’ ऋषि दा की ‘चुपक-चुपके', ‘गोलमाल', ‘अभिमान', ‘गुड्डी’ और ‘आनंद’ जैसी प्रख्यात नहीं थी, पर इस पर ध्यान दिया जा सके इस तरह गहराई वाली थी। सचिन भौमिक जैसे जानेमाने लेखक ने ‘मैडम बोवरी’ पर बँगला में एक संक्षिप्त कहानी लिखी थी, जो ‘अनुराधा’ का आधार बनी थी। फ़िल्म को श्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था और बर्लिन फ़िल्म फ़ेस्टिवल के लिए गोल्डन बेर के लिए नामांकित हुई थी। 

1954 की फ़ेमिना मिस इंडिया लीला नायडू की यह पहली फ़िल्म थी, जिन्हें उस साल अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘वोग’ में दुनिया की दस सब से ख़ूबसूरत स्त्रियों में स्थान मिला था। लीला परमाणु वैज्ञानिक डॉ. रामैया नायडू और उनकी स्विस-फ़्रैंच पत्रकार पत्नी मार्थे की बेटी थी। वह भारत और फ़्राँस में पली-बढ़ी थी। 

विमल राय के सहायक रह चुके ऋषि दा ने अपनी तीसरी फ़िल्म ‘अनुराधा’ में नवोदित लीला नायडू को इसलिए पेश किया था, क्योंकि एम्मा बोवरी फ़्रैंच स्त्री थी। 

कहानी कुछ इस तरह थी। एक प्रख्यात रेडियो गायक और नृत्यांगना अनुराधा राॅय (लीला) एक आदर्शवादी और सामान्य घर के डॉ. निर्मल चौधरी (बलराज साहनी) के प्यार में पड़ती है। अनुराधा के पिता इस सम्बन्ध के ख़िलाफ़ हैं। अनुराधा के पिता चाहते थे कि वह लंदन से आए दीपक (अभि भट्टाचार्य) के साथ विवाह करे। पर अनुराधा इस प्रस्ताव को ठुकरा देती है। दीपक अनुराधा को शुभकामनाएँ देता है और भविष्य में कभी ज़रूरत पड़ने पर मदद करने का वचन दे कर चला जाता है। 

विवाह और एक बेटी होने के बाद अनुराधा को गाँव में ऊब होने लगती है। उसका गाना बंद हो गया था और वह घर की चारदीवारों में क़ैद हो कर रह गई थी। सालों बाद उसके पिता उससे मिलने आते हैं तो इस युगल से शहर आने को कहते हैं। निर्मल ने कहा कुछ सालों बाद वह विचार करेगा। 

इस दौरान दीपक अपनी प्रेमिका के साथ कार दुर्घटना का शिकार हो जाता है। डॉ. निर्मल प्रेमिका की सर्जरी करता है। इस दौरान दीपक को अनुराधा की परेशानियों का अहसास होता है और वह निर्मल को छोड़कर शहर जाने और अपने संगीत के शौक़ को पूरा करने की सलाह देता है। 

अनुराधा अब संगीत पसंद करे या पति, इस दुविधा में पड़ जाती है। डॉ. निर्मल भी ख़ुद को छोड़कर शहर जाकर अपना जीवन फिर से शुरू करने की अनुराधा की इच्छा को स्वीकार कर लेता है। इस निर्णायक क्षण में अनुराधा निर्धार कर के डॉ. निर्मल से कहती है, “आप उसे (दीपक को) जाने और फिर कभी न आने के लिए क्यों नहीं कहते?” यानी अनुराधा पति को छोड़ने को तैयार नहीं थी। 

फ़िल्म का एक महत्त्वपूर्ण अंग संगीत था। फ़िल्म ‘अनुराधा’ में शास्त्रीय संगीतकार पंडित रविशंकर, गायिका लता मंगेशकर और गीतकार शैलेन्द्र की अनपेक्षित जुगलबंदी थी। फ़िल्म की आत्मा उसके संगीत में है। क्योंकि फ़िल्म की नायिका गायिका थी। फ़िल्म में कुल पाँच गाने थे: 

‘जाने कैसे सपनों में खो गई अँखियाँ’, ‘साँवरे साँवरे कहे मोसे’, ‘कैसे दिन बीते, कैसे बीती रतियाँ’, ‘बहुत दिन’ और ‘हाय रे वह दिन क्यूँ न आए’। 

फ़िल्म में एक दृश्य है। दीपक के आग्रह पर अनुराधा गाना गाती है। गाना भले दीपक की फ़रमाइश का है, पर उसके केंद्र डॉ. निर्मल है, जो अपने मेडिकल के काम में व्यस्त है। गाने के दौरान किसी काम से निर्मल बाहर जाता है। दीपक इस गाने में उसके न बहने वाले आँसू देखता है। उसकी आवाज़ में पति की ओर से मिलने वाली उपेक्षा की पीड़ा का अनुभव करता है। इस गाने में अनुराधा फ़िल्म का केंद्रवर्ती विचार है: 

“कैसे दिन बीते, कैसे बीती रतियाँ
पिया जाने न हाय
नेहा लगा के मैं पछताई
सारी सारी रैना निंदिया न आई
जान के देखो मेरे जी की बतियाँ।” 

अनुराधा: कैसे दिन बीतें, कैसे बीती रतियाँ, पिया जाने न हाय

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

चिन्तन

कविता

साहित्यिक आलेख

काम की बात

सिनेमा और साहित्य

स्वास्थ्य

कहानी

किशोर साहित्य कहानी

लघुकथा

सांस्कृतिक आलेख

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

सिनेमा चर्चा

ललित कला

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

पुस्तक चर्चा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं