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खिद्रापुर कोपेश्वर मंदिर निर्माण


मंदिर की फलदायी सृजन यात्रा के महत्त्वपूर्ण क्षण

इस मंदिर के निर्माण में प्रयुक्त टिकाऊ पत्थर सह्याद्रि पर्वतमालाओं से बहुत दूर से लाए गए थे। यह काम मंदिर के कारीगरों के लिए अत्यंत कठिन चुनौतीपूर्ण था। कुशल हाथों ने पीढ़ियों तक इन पत्थरों को मंदिर का रूप देने में जो शिल्पकला दिखाई है, वह आज भी अक्षुण्ण है। 

सातवीं शताब्दी में आरंभ हुई इस सृजन यात्रा का अंतिम पड़ाव लगभग पाँच सौ सालों बाद बारहवीं शताब्दी में जा कर पूरा हुआ था। इतने लंबे समय में इन भारी-भरकम पत्थरों को यहाँ तक कैसे लाया गया होगा? यह अत्यंत रोचक है। 

कृष्णा सहित पंचगंगा नदी के प्रवाह के सहारे लकड़ी के पटरों पर रख कर इन पत्थरों और चट्टानों को बड़ी सावधानीपूर्वक लाया गया था। जब इन नदियों में बाढ़ आती थी, तभी यह कार्य सम्भव होता था, क्योंकि केवल बाढ़ के समय ही नदी का प्रवाह इतना तीव्र हो जाता था कि वह पत्थरों को ला सकता था। 

सह्याद्रि पर्वतमालाओं से हो कर गुज़रने वाली नदियाँ, नाले और छोटी धाराएँ इस प्राकृतिक सामग्री के परिवहन का साधन बनीं और तभी यह अद्भुत, अत्यंत कलात्मक तथा रहस्यमय मंदिर ‘कोपेश्वर मंदिर’ पूरा हो सका। 

भले ही इसके निर्माण में पाँच सौ साल लगे हैं, परन्तु यही लंबा कालखंड इस मंदिर की नींव की सबसे बड़ी विशेषता बन गया। अनजान स्रोतों से मिली यह रेत और चट्टानें मंदिर निर्माण में अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई हैं, जिन्हें ऊपर की दिशा में बड़ी सावधानी से एक-एक कर के जमाया गया था। 

रेत ने नींव और सहारा, दोनों का कार्य किया। 

इसी कारण रेत के संचय के कारण आसपास का परिदृश्य (लैंडस्केप) ऊँचा प्रतीत होता है। भूभाग की श्याम (काली) पृष्ठभूमि के सामने रेत का श्वेत रंग एकदम विपरीत दिखाई देता है। आज भी खड़ा यह भव्य मंदिर इन रंगों का साक्षी है। मंदिर के आसपास का ऊँचा गाँव इस स्मारक की निर्माण-स्मृतियों को सहेज कर प्रसन्न है। इस भूमि के दृश्य को इस सामग्री ने आकार दे कर उसे अमरत्व प्रदान किया है। 

देश के कोने-कोने में छुपे स्थापत्य के भव्य रत्न

बाढ़ के साथ आए काले बेसाल्ट पत्थर नींव के भाग में बरसात और बाढ़ के पानी के कारण भीग कर धूसर-सफेद दिखाई देते हैं और ऊपर की ओर कालेपन का आभास कराते हैं। इस तरह कोपेश्वर मंदिर बाहर से देखने पर गोलाकार रूप में द्वि-रंगी प्रतीत होता है। हर साल वर्षा ऋतु में इसका आधा भाग पानी में डूबा रहता है। किन्तु मंदिर की भार सहने की क्षमता इन मज़बूत पत्थरों में निहित है। 

सह्याद्री पर्वत पंचगंगा और भोगावती नदियों का उद्गम स्थल है। इस तथ्य की पुष्टि यहाँ की रेत और मिट्टी करती है। शायद यही कारण है कि यह स्थापत्य रत्न आज भी दृढ़ और अडिग खड़ा है। 

पहली नज़र में कोपेश्वर मंदिर को देख कर दो अन्य अद्भुत मंदिरों की याद आती है, एक तो महाराष्ट्र के ठाणे ज़िले का हेमाडपंती स्थापत्य शैली वाला अंबरनाथ मंदिर और दूसरा गुजरात की गौरवशाली चालुक्य (या गुर्जर) शैली का मोडेरा का सूर्य मंदिर। 

ये तीनों मंदिर आकार में अत्यधिक विशाल नहीं हैं, किन्तु इनका स्थापत्य-सौंदर्य किसी भव्यतम मंदिर से कम नहीं। इनका कलापक्ष किसी भी रसिक को मोहित कर सकता है। 

खिद्रापुर के कोपेश्वर मंदिर परिसर में खड़े हो कर इसके अंदर-बाहर की शिल्प-संपदा, नक़्क़ाशी, और उसके ऐतिहासिक, धार्मिक तथा दार्शनिक पहलुओं का अवलोकन करें तो मन आह्लादित हो उठता है। जब यहाँ ‘स्वर्ग की सीढ़ी’ का उल्लेख होता है, तो मन हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा घाटी में स्थित ‘मस्रूर रॉक-कट टेंपल’ की ओर चला जाता है, क्योंकि वहाँ भी ‘स्वर्ग की सीढ़ी’ का संदर्भ है। सचमुच “मेरा भारत महान।”

चलो, विचारों से लौट कर फिर कोपेश्वर की ओर लौटते हैं। 

नंदी के बिना विश्व का एकमात्र शिव मंदिर

बारहवीं सदी में शिल्हार राजवंश के राजा गंधारादित्य द्वारा निर्मित यह शिवमंदिर अपने आप में एक अद्भुत चमत्कार है। ‘कोपेश्वर’ का अर्थ है—क्रोधयुक्त शिव। कथा के अनुसार, जब सती पार्वती ने अपने मायके में अग्नि में देहत्याग किया था, तो शिव अत्यंत क्रोधित हो उठे थे। सती, नंदी पर सवार हो कर गई थीं और शोकाकुल नंदी वहीं ठहर गया था, इसीलिए इस मंदिर का यह असामान्य नाम पड़ा। 

भगवान विष्णु ने शिव को शांत किया था और उनकी इस मित्रता के प्रतीकस्वरूप स्थापत्यकार ने इस मंदिर में शिव के साथ लिंगस्वरूप में विष्णु की भी स्थापना की। चूँकि नंदी वहाँ नहीं आया था, इसलिए मंदिर में उसकी गद्दी नहीं रखी गई। 

इस प्राचीन मंदिर में चालुक्य वंश से प्रेरित स्थापत्य शैली दिखाई देती है, जिसे वेसरा शैली कहते हैं, जिसमें उत्तर भारत की नागर शैली और दक्षिण की द्रविड़ शैली का अद्भुत समन्वय है। 

इसमें शिखर नागर शैली का है, जबकि नक़्क़ाशीदार दीवारें और मंडप द्रविड़ शैली की विशेषताएँ रखते हैं। मूर्तियाँ, शिल्प और दीवारों की बारीक़ नक़्क़ाशी अत्यंत कलात्मक और मनमोहक हैं। ऐसी ही बोलती संरचनाएं कर्नाटक के बेलूर, हलेबीडु और होयसला स्थापत्य में भी देखने को मिलती हैं। 

यह मंदिर चार भागों में विभक्त है। 

  1. स्वर्ग मंडप

  2. सभा मंडप

  3. अंतराल कक्ष

  4. गर्भगृह

तो चलो, चलते हैं इस भव्य स्थापत्य रत्न को हृदयस्थ करने करने और क्रोध से शान्ति तक की इस यात्रा में समरसता और समाधान की दैवीय गाथा का गुणगान करने। 

ज्वालामुखी से जन्मे अग्निकृत दृढ़ पत्थर

भारत भर में फैले प्राचीन मंदिरों का इतिहास और उनकी वास्तुकला पर विश्वभर में चर्चा होती रही है। इनका निर्माण, स्थापत्य, शिल्प और चित्रकला इतने अनोखे हैं कि अगर उनकी सर्जनात्मकता का विश्लेषण किया जाए तो वर्षों लग जाएँगे। हमारे पूर्वज केवल बुद्धिमान ही नहीं थे, अत्यंत कलाप्रेमी भी थे। 

इष्टदेव चाहे जो भी हों, कला और सौंदर्य की दृष्टि हर मंदिर में प्रबल रही है। क्योंकि यह विश्वास रहा है कि ‘ईश्वर स्वयं सौंदर्य के उपासक हैं’, इसीलिए हमारे मंदिर केवल धार्मिक नहीं, बल्कि दार्शनिक और कलात्मक दृष्टि से भी विलक्षण हैं। 

इन धामों के निर्माण में सहयोग देने वाले राजा, दानदाता, रक्षक और संरक्षक समाज के महत्त्वपूर्ण अंग रहे हैं। 
आज भी इन धरोहरों के संरक्षण का उत्तरदायित्व कुछ समर्पित लोगों और संस्थाओं द्वारा निभाया जा रहा है। 

महाराष्ट्र के दक्षिणी छोर से सटा कर्नाटक का उत्तरी भाग और उनके बीच बहती कृष्णा नदी, इसी नदी के तट पर कोल्हापुर ज़िले के शिरोल तालुका में तीन ओर से कृष्णा से घिरा एक सुंदर टापूनुमा गाँव है—खिद्रापुर। 

खिद्रा नामक एक सेवक की स्मृति में इस गाँव का नाम खिद्रापुर पड़ा। 

रेतीली भूमि पर बसे इस गाँव में न पत्थर हैं, न पहाड़, न चट्टानें, फिर भी यहाँ बने हैं हज़ारों साल पुराने मंदिर, कठोर और टिकाऊ काले बेसाल्ट पत्थरों से निर्मित, यह अपने आप में चमत्कार है। 

खिद्रापुर कोपेश्वर मंदिर

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