भेड़
काव्य साहित्य | कविता वीरेन्द्र बहादुर सिंह1 Oct 2024 (अंक: 262, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
बाड़ में रहते-रहते उसे लगता है बढ़ रहा ज्ञान
पर हक़ीक़त में बढ़ता है ऊन।
जब ऊन उतार कर उसके शरीर को
अगली फ़सल के लिए तैयार हुए खेत की तरह
बना दिया जाता है तब भी
उसे यही लगता है कि वह नि:स्पृह बन कर
मोक्ष की ओर गति कर रहा है।
छोटे सँकरे बाड़े में भरी भारी मात्रा में भेड़ें
सिर उठा कर हमेशा एक-दूसरे को
चोट पहुँचाती रहती हैं।
इनके मालिकों को इनकी पहचान आसानी से हो जाए
इसलिए इनके शरीर पर निशान के लिए
लाल या हरा रंग हमेशा लगाते रहते हैं
जिसे भेड़ अपनी चेतना पर धारण कर के
श्रद्धापूर्वक हमेशा निभाती रहती है।
सूर्योदय होते ही वह शिष्ट संयमी
मूल्यबोध के होश वाले
आंदोलनकारियों की तरह निकलती हैं
और तब जैसे समग्र सृष्टि
नींद त्याग कर उनके साथ चलती है
इस भ्रम के साथ चलती है भेड़।
वह खुले में चर रही होती है तो
हवा उनके कान में कुछ कहती है
कलकल बहती उनकी नज़र में आने को उत्सुक होती है
उन्नत पर्वतमालाएँ उनके झुके सिर को
प्रेरित करने को तैयार होती हैं
सूर्य डूबने तक प्रयत्नशील होता है
उनकी दृष्टि की व्यापकता बढ़ाने को
पर भेड़! यह मरती नहीं बल्कि बढ़ती है
मालिकों की ज़रूरत के लिए और
गुणांक में बढ़ाती रहती है अपनी संख्या।
कभी सपने में भी पूरी पृथ्वी के गोले पर
मुझे भेड़ ही दिखाई देती है और मुझे लगता है
कि भेड़ से डरने और चेतने जैसा तो है ही।
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