शीशों का नगर
काव्य साहित्य | कविता वीरेन्द्र बहादुर सिंह1 Oct 2025 (अंक: 285, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
एक दिन
सुगरी के महल जैसे साफ़ सुथरे घर की
स्नेहिल हथेलियों में बैठ कर
तुम . . . शीशों का नगर देख रहे होगे तब
कहीं दूर
किसी अनजाने वृक्ष की . . . अनजानी डाल पर
टूटी डाल पर सोए किसी अनजान फूल की
चुटकी जैसी नमी . . . अगर तुम्हारी . . . सूखी
हथेली में उग आए तो . . .
सोफ़े के हत्थे पर . . . तुम अपनी
हथेलियों को पोंछ मत लेना . . .
उसकी छाप एक काग़ज़ पर उतार कर
कहीं अनजाने घर के . . . कहीं अनजाने पते
पर उसे भेज देना।
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